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गांधी, आजाद और गफ्फार खान: सह-अस्तित्व और सहिष्णुता पर करते थे यकीन

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 38वीं कड़ी.

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Published : Sep 24, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Oct 1, 2019, 7:04 PM IST

गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ने बड़ी संख्या में भारतीयों को एक व्यावहारिक जीवन दर्शन के प्रति आकर्षित किया. इसमें न केवल हिंदू बल्कि मुसलमानों ने भी उनका अनुसरण किया. इनमें दो प्रमुख मुस्लिम नेताओं का नाम लिया जा सकता है. एक थे मौलाना आजाद और दूसरे थे खान अब्दुल गफ्फार खान. दोनों नेता गांधीवादी जीवन के समर्थक थे. शांतिवाद, सह अस्तित्व, सहिष्णुता और अहिंसा के वे सच्चे पुजारी थे.

जब गांधी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ लड़ रहे थे, तब देश का उत्तर-पश्चिमी छोर, जिसे उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के रूप में जाना जाता था, वहां एक और गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान का उदय हो रहा था. बादशाह खान और बच्चा खान के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान, एक महान पश्तून स्वतंत्रता सेनानी और शांतिवादी थे. इस इलाके में आदिवासी समुदायों के बीच आपसी रंजिश का लंबा इतिहास रहा है. यहां युद्धरत कबीले एक दूसरे पर अंकुश रखते थे.

यहीं पर गफ्फार खान ने गांधीवादी सोच का प्रचार-प्रसार किया. गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह पर टिके रहे. यही वजह थी कि लोग उन्हें समींतर गांधी के नाम से जानते थे.

ये भी पढ़ें: हिंसा का विकल्प और अहिंसा देवी से साक्षात्कार

गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के विचारों से प्रेरित होकर, खान ने मक्का से हज से लौटने के बाद खुदाई खिदमतगार (भगवान के सेवक) आंदोलन की स्थापना की थी.

जनता खान के प्रति आकर्षित थी क्योंकि उनकी आस्था भारत की अखंडता और अहिंसा के प्रति अटूट थी. उनके आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि लगातार युद्धरत रहने वाला समुदाय भी अहिंसा को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाने को तैयार हो गया.

खान 1928 में पहली बार महात्मा गांधी से मिले थे. वे भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ गए. बहुत जल्द वह गांधी के सबसे करीबी सहयोगी बन गए. हालांकि, गांधी और बादशाह खान की पृष्ठभूमि अलग-अलग थी. बादशाह खान ने विवि से डिग्री हासिल की थी, जबकि गांधी सामान्य परिवेश में पले-बढ़े थे. बावजूद दोनों ने राजनीति, धर्म और सांस्कृतिक मुद्दों पर घंटो बहस किया.

गांधीजी गफ्फार खान की ईमानदारी, स्पष्टता और अत्यंत सरलता से बहुत प्रभावित थे. वह, उनके विचार में, एक सच्चा खुदाई खिदमतगार, भगवान का सेवक थे. वे जीवन के तीन प्रमुख आदर्शों-अमल, यकीन, मुहब्बत पर यकीन करते थे. यही उनका सिद्धान्त था.

ये भी पढ़ें: नीदरलैंड में गांधी की 150वीं जयंती पर होगा गांधी मार्च का आयोजन

गांधी और खान के पास एक साझा दृष्टिकोण था. उन्होंने एक स्वतंत्र, अविभाजित, धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखा था. एक ऐसा भारत, जहां हिंदू और मुसलमान दोनों शांति से एक साथ रह सकें.

खान अब्दुल गफ्फार खान की कहानी न केवल लोकप्रियता के लिहाज से, बल्कि अहिंसक प्रतिरोध के इतिहास में सरल और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लिए भी अलग स्थान रखता है.
जैसा कि बादशाह खान कहते थे: 'अहिंसा प्रेम है और यह लोगों में साहस का संचार करता है ... जब तक अहिंसा का अभ्यास नहीं किया जाता है, तब तक कोई भी शांति या शांति दुनिया के लोगों पर नहीं उतर सकती है.'

खान अब्दुल गफ्फार खान इंसानियत की सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे. अगर कोई भी धर्म ने संघर्ष को भड़काए और घृणा को जन्म दे, या फिर लोगों को विभाजित करे और मानव जाति की एकता पर प्रहार करे, तो गफ्फार खान उसकी जरूर निंदा करते थे. वे इसे सच्चा धर्म नहीं मानते थे.

खान ने बार-बार दोहराया कि अहिंसा की अवधारणा पवित्र कुरान में है. उन्होंने कहा, 'यह पैगंबर का हथियार है, लेकिन आपको इसके बारे में पता नहीं है. उस हथियार को धैर्य और धार्मिकता कहा जाता है. इस ग्रह पर कोई भी शक्ति इसके खिलाफ नहीं खड़ी हो सकती है.'

ये भी पढ़ें: पहले खुद पर ही हर प्रयोग करते थे गांधी

दूसरे नेता थे मौलाना अबुल कलाम आजाद. वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे प्रभावशाली स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं में से एक थे. वह एक प्रसिद्ध लेखक, कवि और पत्रकार भी थे. वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख राजनीतिक नेता थे और 1923 और 1940 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे. एक मुस्लिम होने के बावजूद, आजाद अक्सर मुहम्मद अली जिन्ना जैसे अन्य प्रमुख मुस्लिम नेताओं की कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ खड़े थे.

मिस्र, तुर्की, सीरिया और फ्रांस की व्यापक यात्रा से भारत लौटने के बाद, आजाद ने प्रमुख हिंदू क्रांतिकारियों श्रीअरबिंदो घोष और श्याम सुंदर चक्रवर्ती से मुलाकात की. उसके बाद उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों को विकसित किया. उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया. आजाद ने उन मुस्लिम राजनेताओं की जमकर आलोचना की, जो राष्ट्रीय हित पर ध्यान दिए बिना सांप्रदायिक मुद्दों की ओर अधिक प्रवृत्त थे. उन्होंने अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा वकालत किए गए सांप्रदायिक अलगाववाद के सिद्धांतों को भी खारिज कर दिया.

इस्तांबुल में खलीफा की बहाली की मांग करने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में, मौलाना अबुल कलाम आजाद 1920 के दौरान कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए खिलाफत आंदोलन के साथ बोर्ड पर आए. वह गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े. यह खिलाफत मुद्दा एक बड़ा हिस्सा था.

ये भी पढ़ें: गांधी ने मृत्यु को बताया था 'सच्चा मित्र'

मौलाना आजाद जनवरी 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. उन्होंने सितंबर 1923 में कांग्रेस के विशेष सत्र की अध्यक्षता की और कहा कि वह कांग्रेस के सबसे कम उम्र के निर्वाचित अध्यक्ष हैं.

मौलाना आजाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे. उन्होंने कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य के रूप में और कई अवसरों पर महासचिव और अध्यक्ष के कार्यालयों में भी कार्य किया. आजाद ने धर्म के आधार पर अलग-अलग निर्वाचकों की समाप्ति की भी वकालत की और धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध एक राष्ट्र का आह्वान किया.

मौलाना आजाद का अलग-अलग धर्मों के सह-अस्तित्व में दृढ़ विश्वास था. उनका सपना एक एकीकृत स्वतंत्र भारत का था जहां हिंदू और मुस्लिम शांति से रह सके. यद्यपि आजाद का यह दृष्टिकोण भारत के विभाजन के बाद बिखर गया, वह सह-अस्तित्व और सहिष्णुता में यकीन करते थे. वह दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक के साथ-साथ खिलाफत के नेताओं के साथ थे, एक संस्था जो आज एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन चुका है. यहां पर सभी वर्गों और समुदायों को शिक्षा मिल रही है.

(लेखक- असद मिर्जा)
आलेख के विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है

गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ने बड़ी संख्या में भारतीयों को एक व्यावहारिक जीवन दर्शन के प्रति आकर्षित किया. इसमें न केवल हिंदू बल्कि मुसलमानों ने भी उनका अनुसरण किया. इनमें दो प्रमुख मुस्लिम नेताओं का नाम लिया जा सकता है. एक थे मौलाना आजाद और दूसरे थे खान अब्दुल गफ्फार खान. दोनों नेता गांधीवादी जीवन के समर्थक थे. शांतिवाद, सह अस्तित्व, सहिष्णुता और अहिंसा के वे सच्चे पुजारी थे.

जब गांधी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ लड़ रहे थे, तब देश का उत्तर-पश्चिमी छोर, जिसे उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के रूप में जाना जाता था, वहां एक और गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान का उदय हो रहा था. बादशाह खान और बच्चा खान के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान, एक महान पश्तून स्वतंत्रता सेनानी और शांतिवादी थे. इस इलाके में आदिवासी समुदायों के बीच आपसी रंजिश का लंबा इतिहास रहा है. यहां युद्धरत कबीले एक दूसरे पर अंकुश रखते थे.

यहीं पर गफ्फार खान ने गांधीवादी सोच का प्रचार-प्रसार किया. गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह पर टिके रहे. यही वजह थी कि लोग उन्हें समींतर गांधी के नाम से जानते थे.

ये भी पढ़ें: हिंसा का विकल्प और अहिंसा देवी से साक्षात्कार

गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के विचारों से प्रेरित होकर, खान ने मक्का से हज से लौटने के बाद खुदाई खिदमतगार (भगवान के सेवक) आंदोलन की स्थापना की थी.

जनता खान के प्रति आकर्षित थी क्योंकि उनकी आस्था भारत की अखंडता और अहिंसा के प्रति अटूट थी. उनके आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि लगातार युद्धरत रहने वाला समुदाय भी अहिंसा को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाने को तैयार हो गया.

खान 1928 में पहली बार महात्मा गांधी से मिले थे. वे भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ गए. बहुत जल्द वह गांधी के सबसे करीबी सहयोगी बन गए. हालांकि, गांधी और बादशाह खान की पृष्ठभूमि अलग-अलग थी. बादशाह खान ने विवि से डिग्री हासिल की थी, जबकि गांधी सामान्य परिवेश में पले-बढ़े थे. बावजूद दोनों ने राजनीति, धर्म और सांस्कृतिक मुद्दों पर घंटो बहस किया.

गांधीजी गफ्फार खान की ईमानदारी, स्पष्टता और अत्यंत सरलता से बहुत प्रभावित थे. वह, उनके विचार में, एक सच्चा खुदाई खिदमतगार, भगवान का सेवक थे. वे जीवन के तीन प्रमुख आदर्शों-अमल, यकीन, मुहब्बत पर यकीन करते थे. यही उनका सिद्धान्त था.

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गांधी और खान के पास एक साझा दृष्टिकोण था. उन्होंने एक स्वतंत्र, अविभाजित, धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखा था. एक ऐसा भारत, जहां हिंदू और मुसलमान दोनों शांति से एक साथ रह सकें.

खान अब्दुल गफ्फार खान की कहानी न केवल लोकप्रियता के लिहाज से, बल्कि अहिंसक प्रतिरोध के इतिहास में सरल और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लिए भी अलग स्थान रखता है.
जैसा कि बादशाह खान कहते थे: 'अहिंसा प्रेम है और यह लोगों में साहस का संचार करता है ... जब तक अहिंसा का अभ्यास नहीं किया जाता है, तब तक कोई भी शांति या शांति दुनिया के लोगों पर नहीं उतर सकती है.'

खान अब्दुल गफ्फार खान इंसानियत की सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे. अगर कोई भी धर्म ने संघर्ष को भड़काए और घृणा को जन्म दे, या फिर लोगों को विभाजित करे और मानव जाति की एकता पर प्रहार करे, तो गफ्फार खान उसकी जरूर निंदा करते थे. वे इसे सच्चा धर्म नहीं मानते थे.

खान ने बार-बार दोहराया कि अहिंसा की अवधारणा पवित्र कुरान में है. उन्होंने कहा, 'यह पैगंबर का हथियार है, लेकिन आपको इसके बारे में पता नहीं है. उस हथियार को धैर्य और धार्मिकता कहा जाता है. इस ग्रह पर कोई भी शक्ति इसके खिलाफ नहीं खड़ी हो सकती है.'

ये भी पढ़ें: पहले खुद पर ही हर प्रयोग करते थे गांधी

दूसरे नेता थे मौलाना अबुल कलाम आजाद. वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे प्रभावशाली स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं में से एक थे. वह एक प्रसिद्ध लेखक, कवि और पत्रकार भी थे. वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख राजनीतिक नेता थे और 1923 और 1940 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे. एक मुस्लिम होने के बावजूद, आजाद अक्सर मुहम्मद अली जिन्ना जैसे अन्य प्रमुख मुस्लिम नेताओं की कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ खड़े थे.

मिस्र, तुर्की, सीरिया और फ्रांस की व्यापक यात्रा से भारत लौटने के बाद, आजाद ने प्रमुख हिंदू क्रांतिकारियों श्रीअरबिंदो घोष और श्याम सुंदर चक्रवर्ती से मुलाकात की. उसके बाद उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों को विकसित किया. उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया. आजाद ने उन मुस्लिम राजनेताओं की जमकर आलोचना की, जो राष्ट्रीय हित पर ध्यान दिए बिना सांप्रदायिक मुद्दों की ओर अधिक प्रवृत्त थे. उन्होंने अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा वकालत किए गए सांप्रदायिक अलगाववाद के सिद्धांतों को भी खारिज कर दिया.

इस्तांबुल में खलीफा की बहाली की मांग करने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में, मौलाना अबुल कलाम आजाद 1920 के दौरान कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए खिलाफत आंदोलन के साथ बोर्ड पर आए. वह गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े. यह खिलाफत मुद्दा एक बड़ा हिस्सा था.

ये भी पढ़ें: गांधी ने मृत्यु को बताया था 'सच्चा मित्र'

मौलाना आजाद जनवरी 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. उन्होंने सितंबर 1923 में कांग्रेस के विशेष सत्र की अध्यक्षता की और कहा कि वह कांग्रेस के सबसे कम उम्र के निर्वाचित अध्यक्ष हैं.

मौलाना आजाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे. उन्होंने कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य के रूप में और कई अवसरों पर महासचिव और अध्यक्ष के कार्यालयों में भी कार्य किया. आजाद ने धर्म के आधार पर अलग-अलग निर्वाचकों की समाप्ति की भी वकालत की और धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध एक राष्ट्र का आह्वान किया.

मौलाना आजाद का अलग-अलग धर्मों के सह-अस्तित्व में दृढ़ विश्वास था. उनका सपना एक एकीकृत स्वतंत्र भारत का था जहां हिंदू और मुस्लिम शांति से रह सके. यद्यपि आजाद का यह दृष्टिकोण भारत के विभाजन के बाद बिखर गया, वह सह-अस्तित्व और सहिष्णुता में यकीन करते थे. वह दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक के साथ-साथ खिलाफत के नेताओं के साथ थे, एक संस्था जो आज एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन चुका है. यहां पर सभी वर्गों और समुदायों को शिक्षा मिल रही है.

(लेखक- असद मिर्जा)
आलेख के विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है

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Last Updated : Oct 1, 2019, 7:04 PM IST
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