रविवार को अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का निधन हो गया. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के बाद पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला बताया. यह सच्चाई बदली नहीं जा सकती है. लेकिन जिस तरह से इस खबर को मीडिया ने कवर किया, बिना पुष्टि के आत्महत्या का मामला बताया, उस पर चटखारे लेते रहे, यह सचमुच दुखदायी था.
मिनटों में टेलीविजन चैनलों ने दिन की बड़ी ब्रेकिंग खबर की तरफ अपना रुख कर लिया. सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित था कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कैसे की, न कि इसपर कि एक प्रतिभाशाली युवा कलाकार हमारे बीच नहीं रहा. ज्यादातर टेलीविजन चैनलों पर तकरीबन पूरे दिन आत्महत्या के तरीके का खुलासा होता रहा. दर्शकों को इस बात तक की जानकारी भी दी गई, कि उनके बेडरूम के दरवाजे को ताड़ने पर किस रंग के कपड़े से लटका उनका शव पाया गया.
जब शव को घर से बाहर निकाला गया था, तब लाइव प्रसारण किया गया और पटना में घर में दुखी परिवार के सदस्यों से उनकी प्रतिक्रिया जानने की पूरी कोशिश की गई. उससे ज्यादा तकलीफदेह था कथित आत्महत्या के पीछे की वजह पर अटकलें लगाना. काम में असफलता से लेकर प्रेमिका के साथ मनमुटाव और आर्थिक संकट तक खंगाल डाला गया, जब तक यह एहसास नहीं हो गया कि वह अवसाद से पीड़ित थे और उनका इलाज चल रहा था.
जैसी उम्मीद थी, सुबह के अखबारों में पहले पन्ने पर अभिनेता की तस्वीर के साथ उस कृत्य का पूरा वर्णन था, जिसके कारण एक अनमोल जीवन का अंत हुआ.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समाचार के पटल पर सबसे पहले खबर को ब्रेक करने की होड़ में लगे रहते हैं, इस बात को दोष नहीं दिया जा सकता. वहीं दूसरी ओर समाचार पत्र बारीक तथ्यों के साथ, समाचार की प्रस्तुति और चित्रों को लेकर एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं.
यह समाचार प्रमुखता का हकदार है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन क्या आत्महत्या को इस तरह से उजागर किया जाना चाहिए ? कोई यह कह सकता है कि दोनों को अलग करना मुश्किल है, क्योंकि यह प्रथम दृष्टया आत्महत्या का मामला प्रतीत होता है, लेकिन जो बात आमतौर पर भूला दी जाती है वह यह है कि आत्महत्या पर लगातार दोहराई गई कहानियां दूसरों को इस चरम कदम को उठाने के लिए उकसा सकती है.
दुनियाभर में किए गए 50 से अधिक शोधों में पाया गया है कि समाचार का प्रचार- प्रसार कमजोर व्यक्तियों में आत्महत्या की संभावना को बढ़ा सकता है, जो कवरेज की मात्रा, अवधि और प्रमुखता पर निर्भर करता है. कमजोर व्यक्तियों से हमारा तात्पर्य उन लोगों से है, जो पहले से ही आत्महत्या के बारे में सोच रहे हैं और मीडिया पर जो देखते हैं या पढ़ते हैं, उसके आधार पर कृत को अंजाम देने के लिए प्रभावित हो सकते है.
मशहूर हस्तियों द्वारा की गई आत्महत्याओं को सनसनीखेज खबर बनाकर वह ऐसे लोगों को आत्महत्या करने के लिए उकसा सकते हैं, जिनको लगता है कि ऐसा करना उचित है और ऐसा करके वे भी फौरन मशहूर हो जाएंगे. शोध से यह भी सामने आया है कि मिडिया पर दिखाई जाने वाली आत्महयाओं की खबरों के कारण आत्महत्या की घटनाओं में 2.5 गुना की वृद्धि हो सकती है.
इसे सरल शब्दों में कहें तो यह साबित हो गया है कि मशहूर हस्तियों और कुछ हद तक राजनीतिक लोगों द्वारा की गई आत्महत्याओं, जिनको बड़े पैमाने पर मीडिया में प्रचारित किया जाता है या सनसनीखेज बना दिया जाता है, इसके बाद आत्महत्या की दर सबसे अधिक बढ़ती है.
दूसरी तरफ, आत्महत्या की रोकथाम में मीडिया द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने वाले भी साक्ष्य बढ़ रहे हैं. संकट से निबटने के लिए मीडिया द्वारा बताए गए अत्महत्या के अलावा कई और विकल्पों का नतीजा पपागेनो अध्यन है. मीडिया सनसनीखेज रिपोर्टिंग को कम करके और आत्महत्या की प्रवृति और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के बारे में रिपोर्टिंग पर अधिकतम ध्यान केन्द्रित करके आत्महत्या की रोकथाम के लिए एक बहुत ही प्रासंगिक योगदान दे सकता है.
आत्महत्याओं के पीछे कोई एक कारण नहीं होता है. मगर ज्यादातर, यह मनोविकार का परिणाम होती है जो अवसाद / तनाव से लेकर गंभीर मानसिक बीमारियों तक हो सकता है. कई बार यह आनुवांशिक भी होता है या फिर अगर परिवार में आत्महत्याओं का इतिहास होता है. लेकिन आत्महत्याओं को रोका जा सकता है, यदि मनोविकार को कलंक के तौर पर न देखा जाए और इसे भी किसी अन्य बीमारी के रूप में स्वीकार किया जाए और मानसिक स्वास्थ्य सेवा को सभी के लिए आसानी से उपलब्ध कराया जा सके. कभी-कभी आत्महत्या की प्रवृत्ति रखने वाले शख्स से बात करके भी उसे इस तरह के कृत को अंजाम देने से रोका जा सकता है. मनोविकार से ग्रस्त लोग पागल नहीं होते, जैसे कि आम धारणा बनी हुई है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2008 में आत्महत्या की रिपोर्टिंग पर मीडिया के लिए दिशानिर्देश जारी किया था. किसी कारण से, इन दिशानिर्देशों का अक्षर और आत्मा से मीडिया द्वारा पालन नहीं किया जा रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आत्महत्या पर रिपोर्टिंग के दौरान मीडिया के लिए 11 बिंदुओं को सूचीबद्ध किया है. सबसे महत्वपूर्ण आत्महत्या को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत न करना और लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर शिक्षित करना ताकि आत्महत्या के मामलों पर रोक लगाई जा सके. सनसनीखेज बनाने से तात्पर्य यह है कि शीर्षक में'आत्महत्या शब्द का उपयोग करने से बचें, उसके बजाय यह कहें कि कि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई. ऐसा लिखने के बावजूद भी वह खबर लोगों के ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करेगी.
मृतक की तस्वीर का इस्तेमाल न करना, उस जगह की पहचान न देना जहां इस कृत को अंजाम दिया गया और जीवन को समाप्त करने के लिए इस्तेमाल किए गए तरीके का वर्णन नहीं करना कुछ अन्य महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश में शामिल हैं, जिनका पालन मीडिया द्वारा किया जाना चाहिए. इस दुखदाई क्षण में परिवार की भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें फिल्माने या उनसे कोई प्रतिक्रिया लेने पर जोर न देकर और पूर्व अनुमति के बिना तस्वीरें नहीं लेने की भी हिदायत दी गई है. इसके बजाए विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हेल्पलाइन नंबर और स्वास्थ्य सेवा केंद्रों का उल्लेख करना चाहिए जहां मानसिक स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध है, ताकि आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले लोगों को इससे मदद मिल सके. ऐसे समय पर उपयुक्त शब्दों का चयन करना अति आवश्यक है. सुसाइड नोट में लिखे तथ्यों की जानकारी देने की कोई आवश्यकता नहीं है, इतना कहना काफी है कि सुसाइड नोट मिला है और उसके आधार पर जांच की जा रही है.
उन वाक्यांशों का उपयोग जो आत्महत्या को समान्य रूप देते हैं, जैसे आत्महत्या की महामारी या असफल प्रयास के कारण हुई घटना के इस्तेमाल से बचने की राय दी गई है. उतना ही महत्वपूर्ण है कि समाज को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों के प्रति शिक्षित किया जाए, जैसे कि दिशानिर्देश कहते हैं कि चेतावनी के संकेतों को पहचानना और हेल्पलाइन नंबर की जानकारी होना बेहद जरूरी है. लोगों को यह कहते हुए दोहराना या इस नतीजे पर पहुंचना कि आत्महत्या करने से किसी शख्स की मुसीबतें खत्म हो गईं किसी ऐसे कमज़ोर इंसान को आत्महत्या की तरफ धकेल सकती हैं जो अपनी समस्याओं का सामना हिम्मत से करने की कोशिश कर रहा / रही हो.
सितंबर 2019 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी इन दिशानिर्देशों का समर्थन किया और मीडिया से कहा कि वह मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति की पहचान करने से पहले उसकी अनुमति के बिना उसकी तस्वीर या फुटेज का उपयोग करने से बचें.
लेकिन भारत में मीडिया में आत्महत्याओं का कवरेज आदर्श होने से कोसों दूर है, जबकि ऑस्ट्रिया का अनुभव प्रेरणादायक है, जो दुनियाभर का पहला देश है जिसने 1987 में मीडिया की अपनी सिफारिशों को लागू करने के साथ-साथ आजकल अन्य देशों से भी समर्थन प्राप्त किया है कि मीडिया के सक्रिय सहयोग से आत्महत्याओं को रोका जा सकता है और रिपोर्टिंग की गुणवत्ता में सुधार भी किया जा सकता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में भारत में आत्महत्या की दर प्रति 100,000 जनसंख्या पर 10.2 थी. देश में हर साल 1.34 लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जबकि अन्य 1.60 लाख आत्महत्याओं की सूचना तक नहीं दी जाती है. अधिकांश आत्महत्याओं की रिपोर्ट 14-29 वर्ष के आयु वर्ग में होती है, जो जीवन के सबसे उत्पादक वर्ष हैं !
सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु मीडिया और अन्य हितधारकों के लिए एक अवसर है कि वह विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों के कड़े क्रियान्वयन करके जानों को जाने से बचाएं. वह जीवन एक मीडियाकर्मी का भी हो सकता है क्योंकि वे इस छूत के अछूते नहीं हैं.
ऐसे समय में जब कोरोना वायरस ने जीवन को तनाव में डाल दिया है और नौकरी छूटने के कारण, वापसी के लक्षणों और यहां तक कि संगरोध केंद्रों से जुड़े कलंक के कारण हो रही दर्दनाक आत्महयाओं का भारत पहले से साक्षी है.
आरती धर (वरिष्ठ पत्रकार)