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Gujarat Election : 'क्यों हर बार गुजरात का चुनाव दिलचस्प हो जाता है', समझें - गुजरात चुनाव में आप की रैली

जब से गुजरात का गठन हुआ है, तब से हर विधानसभा चुनाव किसी-न-किसी फैक्टर की वजह से रुचिकर रहा है. इस बार का फैक्टर है- आम आदमी पार्टी. कांग्रेस और भाजपा के बीच वह पूरे मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने का पूरा प्रयास कर रही है. यह 'एंगल' राजनीतिक विश्लेषकों को भी चौंका रहा है. 1960 से लेकर आज तक गुजरात विधानसभा के प्रत्येक चुनाव में क्या दिलचस्प रहा है, जानिए वरिष्ठ पत्रकार श्याम पारेख की कलम से.

AAP rally gujarat election
गुजरात चुनाव में आप की रैली
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Published : Nov 16, 2022, 4:48 PM IST

Updated : Nov 20, 2022, 10:03 AM IST

नई दिल्ली : 1960 में गुजरात का गठन हुआ था. और तब से होने वाले हर विधानसभा चुनाव में कोई न कोई दिलचस्प फैक्टर जरूर रहा है. कुछ मौंकों पर भले ही यह दिखा कि पूरा चुनाव एक तरफा हो गया, इसके बावजूद वहां पर कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि पूरे देश की नजर गुजरात पर जाकर टिक गई. 2001 से तो यहां पर 'मोदी फैक्टर' ही हावी रहा है.

नरेंद्र मोदी की व्यापक लोकप्रियता के बावजूद, 2002, 2007 और 2012 का चुनाव आसान नहीं रहा. 2017 में भी वह स्टार प्रचारक थे और 2022 में भी वही स्टार प्रचारक हैं. 182 सीटों वाली गुजरात की 15वीं विधानसभा के गठन के लिए 3 नवंबर को चुनाव की घोषणा की गई थी. इनमें से 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और 27 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

अनुमान है कि 2022 में राज्य की जनसंख्या सात करोड़ के आंकड़े को पार कर चुकी है. हालांकि आधिकारिक तौर पर राज्य की आबादी 6.5 करोड़ है और इनमें से 4.91 करोड़ मतदाता हैं. इस बार 3.25 लाख नए मतदाता जोड़े गए हैं. चुनाव दो चरणों में होना है. पहले चरण का चुनाव एक दिसंबर को, और दूसरे चरण का चुनाव पांच दिसंबर को होना है. आठ दिसंबर को मतगणना होगी. पूरी चुनावी कवायद 10 दिसंबर, 2022 से पहले पूरी की जानी है.

2017 के चुनावों में बीजेपी 182 में से 99 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. कांग्रेस ने 77 सीटें जीतीं. हालांकि बाद में हुए उपचुनाव के बाद भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई. भाजपा के विधायकों की संख्या 111 तक पहुंच गई, जबकि कांग्रेस 60 पर जाकर सीमित हो गई.

लेकिन इस बार के चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा तारीखों की घोषणा से ठीक एक महीने पहले तक किसी को कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. पीएम मोदी बार-बार राज्य का दौरा कर रहे थे, अलग-अलग परियोजनाओं को समर्पित कर रहे थे. इसके बावजूद विपक्ष इससे कोई राजनीतिक माइलेज नहीं ले सका. इन सबके बीच राज्य में एक तीसरी शक्ति का उदय हो गया और इसने पूरे राज्य के चुनाव को वाइब्रेंट बना दिया. कम से कम लोगों के बीच चर्चा तो जरूर होने लगी. ऐसा लगता है कि चुनाव में लोगों की रूचि बढ़ गई है.

चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले, पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री ने गुजरात का जितना दौरा किया, किसी भी प्रधानमंत्री के लिए किसी राज्य का दौरा करना और सभाओं को संबोधित करना एक तरह का रिकॉर्ड होना चाहिए. गुजरात चुनाव में कांग्रेस प्रभारी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो तंज कसते हुए कि पीएमओ को गुजरात में एक कैंप ऑफिस ही खोल लेना चाहिए.

कांग्रेस के इस तरह के छिटपुट बयानों को छोड़ दें, तो विपक्ष की ओर से कुछ बड़ी तैयारी नहीं दिखी. कुछ सभाएं और रैलियां भी हुईं, लेकिन उनकी बहुत अधिक या तो चर्चा नहीं हुई, या फिर वे बहुत ज्यादा अपना असर नहीं छोड़ सकीं. तभी अगस्त महीने में अचानक ही आप ने गुजरात में अपनी आक्रामक शैली में प्रचार अभियान की शुरुआत कर दी. इसने राज्य में राजनीतिक हलचल पैदा कर दी.

कांग्रेस तो 1995 में ही चुनाव हार चुकी थी. उसके बाद से वह अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत नहीं पा सकी. पार्टी के पास न तो उस स्तर का नेता रहा और न ही वह जोश, जिसके आधार पर वह भाजपा को चुनौती दे सके. बाद के वर्षों में पार्टी अपने कार्यकर्ताओं में जोश भी नहीं भर पाई. परिणाम स्वरूप विपक्ष का मैदान खाली हो गया और आम आदमी पार्टी ने इसका भरपूर फायदा उठाया. उसने सही समय पर अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी.

कांग्रेस की गलतियों से सीखते हुए, जिसने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में कभी भी किसी एक चेहरे को पेश नहीं किया, आप ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की. उसने इसुदन गढ़वी को आगे किया. वह एक लोकप्रिय गुजराती टीवी समाचार चैनल (वीटीवी) के एंकर रह चुके हैं. वह ईटीवी में भी काम कर चुके हैं. यह दिलचस्प इसलिए है, क्योंकि तब तक भाजपा ने इसकी घोषणा नहीं की थी कि उनकी ओर से सीएम कैंडिडेट कौन होगा. बाद में गृह मंत्री अमित शाह ने इसको लेकर एक घोषणा की. उन्होंने कहा कि अगर भाजपा जीतती है, तो भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री बनेंगे.

2017 का चुनाव बीजेपी के लिए उम्मीद से कहीं ज्यादा कठिन साबित हुआ. उस चुनाव में अंतिम दो हफ्तों में पूरे गुजरात में पीएम मोदी द्वारा बहुत ही भावुक नोट पर किए गए तूफानी प्रचार ने उनकी पार्टी को बेहतर स्थिति में ला दिया. सत्ता विरोधी लहर और कई अन्य मुद्दों ने उनकी पार्टी की साख को नुकसान पहुंचाया. 2017 से सीखे गए सबक को याद करते हुए और यह ध्यान में रखते हुए कि पांच और वर्षों ने एंटी-इनकंबेंसी को बढ़ाया ही होगा, भाजपा कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाह रही है.

अब जरा एक नजर विगत के उन चुनावों पर डालिए, जिसकी वजह से गुजरात चुनावों को काफी रुचिकर माना जाता है. 1960 में राज्य के गठन के बाद 1962 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ. उस समय विधानसभा की 154 सीटें थीं. भाषायी आधार पर राज्यों का गठन होने के बाद यह पहला चुनाव था. चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई. 1965 में गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता का निधन हो गया. पाकिस्तानी सेना ने कच्छ के पास उनके विमान को गिरा दिया था. उनकी जगह पर हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री बने. अगले चुनाव, 1967, में वह फिर से चुनकर आए. 1971 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. गुजरात में चार बार राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है, जिसमें इमरजेंसी काल का दौर भी शामिल है.

1973 में चिमनभाई पटेल मुख्यमंत्री बने. लेकिन नवनिर्माण आंदोलन की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. यह आंदोलन छात्रों द्वारा चलाया जा रहा था. जून 1975 में जनता मोर्चा का गठन हुआ और फिर बाबूभाई जसभाई पटेल राज्य के पहले गैर कांग्रेसी सीएम बने. उनके सत्ता में आने के तुरंत बाद ही आपात काल लागू कर दिया गया था.

1980 में गुजरात में कांग्रेस फिर से सत्ता में लौटी. माधव सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बने. 1985 में फिर से वह सत्ता में आए और उन्हें 149 सीटें मिलीं. यह रिकॉर्ड आजतक कायम है. उनकी सफलता का श्रेय 'खाम' फैक्टर को दिया जाता है. खाम यानी केएचएएम- क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम. लेकिन कांग्रेस की जो ताकत थी, वही इनकी कमजोरी भी बन गई.

माना जाता है कि 80 के दशक में जातीय गोलबंदी बढ़ने लगी थी. जिस फैक्टर ने सोलंकी को इतना अधिक ताकतवर बनाया, 90 के दशक में यही जातीय गोलबंदी भाजपा के काम आ गई. और भाजपा आजतक उस फैक्टर का लाभ उठा रही है. गुजरात का सबसे प्रभाशाली ग्रुप पटेल भाजपा के साथ खड़ा हो गया. वह खाम के विरोध में खड़ा हुआ था. साथ ही उच्च जाति भी भाजपा का साथ देने लगी. ऊपर से 'हिंदुत्व लैबोरेट्री' ने भाजपा को लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुंचा दिया.

1990 के चुनाव में कांग्रेस को मात्र 33 सीटें मिलीं. तब से आज तक कांग्रेस का कोई भी नेता सीएम नहीं बन सका, न ही वह अकेले सत्ता में आई. दूसरी पार्टियों के सहयोग से वह सत्ता में जरूर आई. लेकिन वह भी बहुत संक्षिप्त काल के लिए. 1990 में चिमनभाई पटेल सीएम बने. इस बार वह जनता दल में शामिल थे. भाजपा ने भी उन्हें समर्थन दिया था.

भाजपा गुजरात में किस तरह से सफलता की सीढ़ी चढ़ती रहिए, उसे भी आप जानिए. 1980 में भाजपा को 9 सीटें मिलीं थीं. 1985 में खाम फैक्टर की वजह से भाजपा को 11 सीटें मिलीं. 1990 में पार्टी को 67 सीटें मिलीं. यह नंबर, कांग्रेस की उस साल की टैली से दोगुनी थी. तब से भाजपा हमेशा से कांग्रेस से अधिक सीटें हासिल करती रही है. 1995 में भाजपा ने अपनी सफलता से सबको चौंका दिया. पार्टी को 121 सीटें मिलीं. पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे केशुभाई पटेल. लेकिन अगले तीन सालों में भाजपा लगातार सीएम बदलती रही. तीन मुख्यमंत्री देख लिए. केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला और दिलीप पारेख.

शंकर सिंह वाघेल ने भाजपा से विद्रोह कर दिया. उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय जनता पार्टी का गठन किया. बाद में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए. केशुभाई पटेल फिर से सत्ता में वापस आए. इस बार भाजपा को 117 सीटें मिलीं. 2001 में गुजरात में जबरदस्त भूकंप आया. इस दौरान प्रशासन की देरी से मदद पहुंचाने को लेकर खूब आलोचना हुई. भाजपा ने केशुभाई को हटाकर नरेंद्र मोदी को सीएम बना दिया. तब ऐसा माना गया था कि अगले चुनाव यानी 2002 तक यह इंतजाम किया गया है.

लेकिन 2002 में गुजरात में दंगा हो गया. इसने वहां की राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. 2002 में विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा को 127 सीटें मिलीं. यह भाजपा की सबसे बड़ी सफलता थी. खुद भाजपा भी इस 'लाइन' को दोबारा प्राप्त नहीं कर सकी है. उसके बाद 2007, 2012 में मोदी फिर से सत्ता में लौटे. 2014 में मोदी केंद्र में चले आए. मोदी की लोकप्रियता राज्य से निकलकर पूरे देश में फैल गई. कांग्रेस की भी सीटें धीरे-धीरे बढ़ रहीं हैं. 1990 में 33, 1995 में 45, 1998 में 53, 2002 में 51 सीटें मिलीं. गोधरा दंगा के बाद कांग्रेस को 2007 में 59, 2012 में 60, 2017 में 77 सीटें मिलीं.

ये भी पढ़ें : Himachal Pradesh Election 2022 : 'भाजपा रचेगी इतिहास या कांग्रेस देगी सरप्राइज', एक विश्लेषण

नई दिल्ली : 1960 में गुजरात का गठन हुआ था. और तब से होने वाले हर विधानसभा चुनाव में कोई न कोई दिलचस्प फैक्टर जरूर रहा है. कुछ मौंकों पर भले ही यह दिखा कि पूरा चुनाव एक तरफा हो गया, इसके बावजूद वहां पर कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि पूरे देश की नजर गुजरात पर जाकर टिक गई. 2001 से तो यहां पर 'मोदी फैक्टर' ही हावी रहा है.

नरेंद्र मोदी की व्यापक लोकप्रियता के बावजूद, 2002, 2007 और 2012 का चुनाव आसान नहीं रहा. 2017 में भी वह स्टार प्रचारक थे और 2022 में भी वही स्टार प्रचारक हैं. 182 सीटों वाली गुजरात की 15वीं विधानसभा के गठन के लिए 3 नवंबर को चुनाव की घोषणा की गई थी. इनमें से 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और 27 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

अनुमान है कि 2022 में राज्य की जनसंख्या सात करोड़ के आंकड़े को पार कर चुकी है. हालांकि आधिकारिक तौर पर राज्य की आबादी 6.5 करोड़ है और इनमें से 4.91 करोड़ मतदाता हैं. इस बार 3.25 लाख नए मतदाता जोड़े गए हैं. चुनाव दो चरणों में होना है. पहले चरण का चुनाव एक दिसंबर को, और दूसरे चरण का चुनाव पांच दिसंबर को होना है. आठ दिसंबर को मतगणना होगी. पूरी चुनावी कवायद 10 दिसंबर, 2022 से पहले पूरी की जानी है.

2017 के चुनावों में बीजेपी 182 में से 99 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. कांग्रेस ने 77 सीटें जीतीं. हालांकि बाद में हुए उपचुनाव के बाद भाजपा की स्थिति मजबूत हो गई. भाजपा के विधायकों की संख्या 111 तक पहुंच गई, जबकि कांग्रेस 60 पर जाकर सीमित हो गई.

लेकिन इस बार के चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा तारीखों की घोषणा से ठीक एक महीने पहले तक किसी को कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. पीएम मोदी बार-बार राज्य का दौरा कर रहे थे, अलग-अलग परियोजनाओं को समर्पित कर रहे थे. इसके बावजूद विपक्ष इससे कोई राजनीतिक माइलेज नहीं ले सका. इन सबके बीच राज्य में एक तीसरी शक्ति का उदय हो गया और इसने पूरे राज्य के चुनाव को वाइब्रेंट बना दिया. कम से कम लोगों के बीच चर्चा तो जरूर होने लगी. ऐसा लगता है कि चुनाव में लोगों की रूचि बढ़ गई है.

चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले, पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री ने गुजरात का जितना दौरा किया, किसी भी प्रधानमंत्री के लिए किसी राज्य का दौरा करना और सभाओं को संबोधित करना एक तरह का रिकॉर्ड होना चाहिए. गुजरात चुनाव में कांग्रेस प्रभारी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो तंज कसते हुए कि पीएमओ को गुजरात में एक कैंप ऑफिस ही खोल लेना चाहिए.

कांग्रेस के इस तरह के छिटपुट बयानों को छोड़ दें, तो विपक्ष की ओर से कुछ बड़ी तैयारी नहीं दिखी. कुछ सभाएं और रैलियां भी हुईं, लेकिन उनकी बहुत अधिक या तो चर्चा नहीं हुई, या फिर वे बहुत ज्यादा अपना असर नहीं छोड़ सकीं. तभी अगस्त महीने में अचानक ही आप ने गुजरात में अपनी आक्रामक शैली में प्रचार अभियान की शुरुआत कर दी. इसने राज्य में राजनीतिक हलचल पैदा कर दी.

कांग्रेस तो 1995 में ही चुनाव हार चुकी थी. उसके बाद से वह अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत नहीं पा सकी. पार्टी के पास न तो उस स्तर का नेता रहा और न ही वह जोश, जिसके आधार पर वह भाजपा को चुनौती दे सके. बाद के वर्षों में पार्टी अपने कार्यकर्ताओं में जोश भी नहीं भर पाई. परिणाम स्वरूप विपक्ष का मैदान खाली हो गया और आम आदमी पार्टी ने इसका भरपूर फायदा उठाया. उसने सही समय पर अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी.

कांग्रेस की गलतियों से सीखते हुए, जिसने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में कभी भी किसी एक चेहरे को पेश नहीं किया, आप ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की. उसने इसुदन गढ़वी को आगे किया. वह एक लोकप्रिय गुजराती टीवी समाचार चैनल (वीटीवी) के एंकर रह चुके हैं. वह ईटीवी में भी काम कर चुके हैं. यह दिलचस्प इसलिए है, क्योंकि तब तक भाजपा ने इसकी घोषणा नहीं की थी कि उनकी ओर से सीएम कैंडिडेट कौन होगा. बाद में गृह मंत्री अमित शाह ने इसको लेकर एक घोषणा की. उन्होंने कहा कि अगर भाजपा जीतती है, तो भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री बनेंगे.

2017 का चुनाव बीजेपी के लिए उम्मीद से कहीं ज्यादा कठिन साबित हुआ. उस चुनाव में अंतिम दो हफ्तों में पूरे गुजरात में पीएम मोदी द्वारा बहुत ही भावुक नोट पर किए गए तूफानी प्रचार ने उनकी पार्टी को बेहतर स्थिति में ला दिया. सत्ता विरोधी लहर और कई अन्य मुद्दों ने उनकी पार्टी की साख को नुकसान पहुंचाया. 2017 से सीखे गए सबक को याद करते हुए और यह ध्यान में रखते हुए कि पांच और वर्षों ने एंटी-इनकंबेंसी को बढ़ाया ही होगा, भाजपा कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाह रही है.

अब जरा एक नजर विगत के उन चुनावों पर डालिए, जिसकी वजह से गुजरात चुनावों को काफी रुचिकर माना जाता है. 1960 में राज्य के गठन के बाद 1962 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ. उस समय विधानसभा की 154 सीटें थीं. भाषायी आधार पर राज्यों का गठन होने के बाद यह पहला चुनाव था. चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई. 1965 में गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता का निधन हो गया. पाकिस्तानी सेना ने कच्छ के पास उनके विमान को गिरा दिया था. उनकी जगह पर हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री बने. अगले चुनाव, 1967, में वह फिर से चुनकर आए. 1971 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. गुजरात में चार बार राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है, जिसमें इमरजेंसी काल का दौर भी शामिल है.

1973 में चिमनभाई पटेल मुख्यमंत्री बने. लेकिन नवनिर्माण आंदोलन की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. यह आंदोलन छात्रों द्वारा चलाया जा रहा था. जून 1975 में जनता मोर्चा का गठन हुआ और फिर बाबूभाई जसभाई पटेल राज्य के पहले गैर कांग्रेसी सीएम बने. उनके सत्ता में आने के तुरंत बाद ही आपात काल लागू कर दिया गया था.

1980 में गुजरात में कांग्रेस फिर से सत्ता में लौटी. माधव सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बने. 1985 में फिर से वह सत्ता में आए और उन्हें 149 सीटें मिलीं. यह रिकॉर्ड आजतक कायम है. उनकी सफलता का श्रेय 'खाम' फैक्टर को दिया जाता है. खाम यानी केएचएएम- क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम. लेकिन कांग्रेस की जो ताकत थी, वही इनकी कमजोरी भी बन गई.

माना जाता है कि 80 के दशक में जातीय गोलबंदी बढ़ने लगी थी. जिस फैक्टर ने सोलंकी को इतना अधिक ताकतवर बनाया, 90 के दशक में यही जातीय गोलबंदी भाजपा के काम आ गई. और भाजपा आजतक उस फैक्टर का लाभ उठा रही है. गुजरात का सबसे प्रभाशाली ग्रुप पटेल भाजपा के साथ खड़ा हो गया. वह खाम के विरोध में खड़ा हुआ था. साथ ही उच्च जाति भी भाजपा का साथ देने लगी. ऊपर से 'हिंदुत्व लैबोरेट्री' ने भाजपा को लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुंचा दिया.

1990 के चुनाव में कांग्रेस को मात्र 33 सीटें मिलीं. तब से आज तक कांग्रेस का कोई भी नेता सीएम नहीं बन सका, न ही वह अकेले सत्ता में आई. दूसरी पार्टियों के सहयोग से वह सत्ता में जरूर आई. लेकिन वह भी बहुत संक्षिप्त काल के लिए. 1990 में चिमनभाई पटेल सीएम बने. इस बार वह जनता दल में शामिल थे. भाजपा ने भी उन्हें समर्थन दिया था.

भाजपा गुजरात में किस तरह से सफलता की सीढ़ी चढ़ती रहिए, उसे भी आप जानिए. 1980 में भाजपा को 9 सीटें मिलीं थीं. 1985 में खाम फैक्टर की वजह से भाजपा को 11 सीटें मिलीं. 1990 में पार्टी को 67 सीटें मिलीं. यह नंबर, कांग्रेस की उस साल की टैली से दोगुनी थी. तब से भाजपा हमेशा से कांग्रेस से अधिक सीटें हासिल करती रही है. 1995 में भाजपा ने अपनी सफलता से सबको चौंका दिया. पार्टी को 121 सीटें मिलीं. पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे केशुभाई पटेल. लेकिन अगले तीन सालों में भाजपा लगातार सीएम बदलती रही. तीन मुख्यमंत्री देख लिए. केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला और दिलीप पारेख.

शंकर सिंह वाघेल ने भाजपा से विद्रोह कर दिया. उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय जनता पार्टी का गठन किया. बाद में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए. केशुभाई पटेल फिर से सत्ता में वापस आए. इस बार भाजपा को 117 सीटें मिलीं. 2001 में गुजरात में जबरदस्त भूकंप आया. इस दौरान प्रशासन की देरी से मदद पहुंचाने को लेकर खूब आलोचना हुई. भाजपा ने केशुभाई को हटाकर नरेंद्र मोदी को सीएम बना दिया. तब ऐसा माना गया था कि अगले चुनाव यानी 2002 तक यह इंतजाम किया गया है.

लेकिन 2002 में गुजरात में दंगा हो गया. इसने वहां की राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. 2002 में विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा को 127 सीटें मिलीं. यह भाजपा की सबसे बड़ी सफलता थी. खुद भाजपा भी इस 'लाइन' को दोबारा प्राप्त नहीं कर सकी है. उसके बाद 2007, 2012 में मोदी फिर से सत्ता में लौटे. 2014 में मोदी केंद्र में चले आए. मोदी की लोकप्रियता राज्य से निकलकर पूरे देश में फैल गई. कांग्रेस की भी सीटें धीरे-धीरे बढ़ रहीं हैं. 1990 में 33, 1995 में 45, 1998 में 53, 2002 में 51 सीटें मिलीं. गोधरा दंगा के बाद कांग्रेस को 2007 में 59, 2012 में 60, 2017 में 77 सीटें मिलीं.

ये भी पढ़ें : Himachal Pradesh Election 2022 : 'भाजपा रचेगी इतिहास या कांग्रेस देगी सरप्राइज', एक विश्लेषण

Last Updated : Nov 20, 2022, 10:03 AM IST
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