हैदराबाद : ग्लाेबम वार्मिंग का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है. यह सब एक दिन में नहीं हाेता, बल्कि दशकाें के बाद इसके प्रभाव मानव जीवन पर देखने काे मिलते हैं.
नए शोध से पता चलता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ आर्कटिक में बर्फ तेजी से पिघल रही है और यह सीधे ताैर पर जीवन को प्रभावित कर रहा है.
वैश्विक स्तर पर समुद्र के स्तर को 200 फीट (60 मीटर) से अधिक बढ़ाने के लिए इसमें पर्याप्त भूमि ग्लेशियर (Land Ice) है. वहीं ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर लगभग 10 गुना बढ़ गई है.
वैज्ञानिकों की मानें ताे लंबे समय से यह विदित है कि अंटार्कटिक बर्फ की चादर में भौतिक टिपिंग बिंदु हैं, जिसके आगे बर्फ का नुकसान (Ice Loss ) नियंत्रण से बाहर हो सकता है. नेचर जर्नल में प्रकाशित नए अध्ययन में पाया गया है कि अंटार्कटिक की बर्फ की चादर कुछ दशकों में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंच सकती है.
नए अध्ययन से पता चलता है कि यदि उत्सर्जन अपनी वर्तमान गति से जारी रहा तो लगभग 2060 तक अंटार्कटिक बर्फ की चादर एक महत्वपूर्ण सीमा को पार कर चुकी होगी.
उस बिंदु पर कार्बन डाइऑक्साइड को हवा से बाहर निकालने से बर्फ का पिघलना नहीं रुकेगा, जाे यह दिखाता है कि समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10 गुना अधिक तेजी से बढ़ सकता है.
सबसे ऊंचा बिंदु (The Tipping Point)
अंटार्कटिक में कई प्राेटेक्टिव आइस शेल्व्स हैं जो महाद्वीप के लगातार बहने वाले ग्लेशियरों के आगे समुद्र में फैलती हैं, जिससे समुद्र में भूमि-आधारित ग्लेशियरों का प्रवाह धीमा हो जाता है. लेकिन वे शेल्व काफी पतली हाेती हैं चूंकि इसके नीचे गर्म पानी चला जाता है इसलिए यह टूट सकती हैं.
जब बर्फ की चट्टानें (ice cliffs) खुद को सहारा देने के लिए बहुत ऊंची हो जाती हैं, तो वे समुद्र में बर्फ के प्रवाह की दर को तेज करते हुए भयावह रूप से ढह सकती हैं.
गर्म, नरम बर्फ की चादर और महासागर सभी अंटार्कटिक की सुरक्षात्मक बर्फ की शेल्व्स को फिर से जमने से रोकते हैं. यह सब उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हैं.
इस दिशा में तैयार नीतियों की बात करें ताे इस दिशा में दूर की साेचने की जरूरत है, क्याेंकि ये अंटार्कटिक की बर्फ और दुनिया पर खास प्रभाव डाल सकते हैं.
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पिछले दशकों में तेजी से हुए जलवायु परिवर्तन की बात करें ताे आर्कटिक और इसकी समृद्ध टेपेस्ट्री पर ज्यादा प्रभाव देखने काे मिला है. इसके साथ ही इकाेसिस्टम भी खतरे में है.