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EXCLUSIVE एक ऐसा ईसाई समुदाय जो नहीं मनाता क्रिसमस, दावा- बाइबिल में नहीं है ईसा मसीह के जन्म की तारीख

25 दिसंबर को पूरी दुनिया में क्रिसमस मनाया जाता है. ईसाई समुदाय के लिए ये सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है. उनका मानना है इसी दिन प्रभू ईसा मसीह का जन्म हुआ था. हालांकि रांची में एक ऐसा भी ईसाई समुदाय है जो क्रिसमस नहीं मनाता (Christian Community who not celebrate christmas). उनका मानना है कि 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ ही नहीं था.

Christian Community who not celebrate christmas
Christian Community who not celebrate christmas
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Published : Dec 24, 2022, 8:26 PM IST

Updated : Dec 24, 2022, 9:06 PM IST

जायजा लेते ब्योरो चीफ राजेश कुमार

रांची: पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम मची है. कैरोल गीत से फिजाएं गूंज रही हैं. चर्चों की सजावट देखते बन रही है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि झारखंड की राजधानी रांची में एक चर्च ऐसा भी है, जहां क्रिसमस को लेकर कोई तैयारी नहीं की गई है. यहां क्रिसमस के नाम पर कोई विशेष प्रार्थना नहीं होती है, ये क्रिसमस नहीं मनाते (Christian Community who not celebrate christmas). इस चर्च का नाम है सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट. इसके अनुयायियों का मानना है कि बाइबिल में ईसा मसीह के जन्म की तारीख का जिक्र ही नहीं है. ऐसे में धार्मिक दृष्टिकोण से क्रिसमस के अवसर पर चर्च में विशेष प्रार्थना का कोई औचित्य ही नहीं है.

ये भी पढ़ें: दिव्यांग बच्चों के स्कूल जीवन ज्योति संस्थान में क्रिसमस की धूम

सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च के पास्टर सुजल किस्कू ने ईटीवी भारत के ब्यूरो चीफ राजेश कुमार सिंह को फोन पर क्रिसमस नहीं मनाने की वजह बताई. उन्होंने कहा कि क्रिसमस पर विशेष प्रार्थना करना इतिहास के किसी राजवंश की कहानी को ईसाइयत के आध्यात्मिक आदर्शों पर थोपना है. इसलिए सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च पूरी दुनिया में ईसा का जन्मोत्सव मनाने से परहेज करता है.

Christian Community who not celebrate christmas
क्रिसमस से पहले बंद चर्च

क्रिसमस मनाने की कहीं चर्चा नहीं: पास्टर सुजल कहते हैं कि ईसा मसीह की जीवनी न्यू टेस्टामेंट में मार्क्स, मैथ्यू, ल्यूक और जान लिखित सुसमाचारों में है. इनमें से किसी ने ईसा के जन्म की तारीख नहीं बताई है. न्यू टेस्टामेंट में ईसा के बाद के कई सौ साल बाद तक ईसाइयत के प्रचार का उल्लेख मिलता है. इनमें से कहीं भी क्रिसमस मनाने की चर्चा नहीं है. उन्होंने बताया कि सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट, प्रोटेस्टेंट चर्च विंग का ही एक ग्रुप है. इसमें कैथोलिक के कई मान्यताओं को नहीं माना जाता है. मूर्ति पूजा नहीं होती है. रविवार की जगह शनिवार को उपासना करते हैं.

कैसे हुई क्रिसमस की शुरूआत: पास्टर सुजल किस्कू का कहना है इतिहास में वर्णित एक प्रमुख तारीख को ईसा के जन्म दिवस के रूप में आरोपित किया गया है. पास्टर के अनुसार, बेबीलोन के इतिहास और दंतकथाओं में निमरोद नाम के एक राजा थे. उसके दरबारियों ने उसके बेटे मितरस को चमत्कारी कहना शुरू कर दिया. मितरस का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था. जनता को मितरस का जन्म दिन मनाने और उसकी पूजा के लिए बाध्य किया गया. सालों साल की परंपरा इसाइयत ग्रहण करने के बाद भी बरकरार रही. बेबीलोन से यह रोम पहुंचा. रोमन सम्राट कांटेस्टाइन के इसाई धर्म को राजधर्म घोषित करने के बाद 25 दिसंबर को ईसा का जन्मदिन क्रिसमस के रूप में मनाया जाने लगा.

वहीं, निमरोद की पत्नी और बेटे की मूर्ति को लोग मदर मेरी और जीसस की मूर्ति मानकर घरों और सार्वजनिक जगहों पर स्थापित करने लगे. इस तरह 25 दिसंबर ईसा मसीह के जन्मोत्सव और फिर सांताक्लाज के उपहार तथा ऐसी ही कई चीजों के साथ मिलकर ईसाई धर्म के सबसे बड़े धार्मिक त्योहार का रूप ग्रहण करता चला गया. बाद में पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे इलाकों में गैर ईसाई भी जोर-शोर से इसे मनाने लगे.

क्या कहना है कैथोलिक समाज का: रांची स्थित आर्चबिशप हाउस के बिशप थ्योडोर मास्करेन्हास ने ईटीवी भारत को फोन पर बताया कि जिसको जो मानना है, उसको मानने का अधिकार है. ऐतिहासिक रूप से हम नहीं जानते हैं कि किस दिन प्रभु का जन्म हुआ था. दो हजार साल पहले हमारे पूर्वजों ने एक दिन चुना, जिस दिन रौशनी फैली थी. उसको दुनिया का सूरज यानी प्रभु ईसा मसीह की रौशनी मानकर यह परंपरा शुरू हुई. उसी समय से हमलोग क्रिसमस मनाते आ रहे हैं. अब तो क्रिसमस सभी का बन गया है. धर्म में सभी को आजादी है. इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं है. जैसे हिन्दू धर्म में जन्माष्टमी मनाते हैं. यह भी मान्यता ही है. उन्होंने पूरे राज्य की सुख, शांति और समृद्धि की कामना की. उन्होंने मुस्कुराते हुए लहजे में कहा कि एडवेंटिस्ट वाले अपनी मान्यताओं के साथ चलते हैं तो उन्हें चलने दीजिए.

जायजा लेते ब्योरो चीफ राजेश कुमार

रांची: पूरी दुनिया में क्रिसमस की धूम मची है. कैरोल गीत से फिजाएं गूंज रही हैं. चर्चों की सजावट देखते बन रही है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि झारखंड की राजधानी रांची में एक चर्च ऐसा भी है, जहां क्रिसमस को लेकर कोई तैयारी नहीं की गई है. यहां क्रिसमस के नाम पर कोई विशेष प्रार्थना नहीं होती है, ये क्रिसमस नहीं मनाते (Christian Community who not celebrate christmas). इस चर्च का नाम है सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट. इसके अनुयायियों का मानना है कि बाइबिल में ईसा मसीह के जन्म की तारीख का जिक्र ही नहीं है. ऐसे में धार्मिक दृष्टिकोण से क्रिसमस के अवसर पर चर्च में विशेष प्रार्थना का कोई औचित्य ही नहीं है.

ये भी पढ़ें: दिव्यांग बच्चों के स्कूल जीवन ज्योति संस्थान में क्रिसमस की धूम

सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च के पास्टर सुजल किस्कू ने ईटीवी भारत के ब्यूरो चीफ राजेश कुमार सिंह को फोन पर क्रिसमस नहीं मनाने की वजह बताई. उन्होंने कहा कि क्रिसमस पर विशेष प्रार्थना करना इतिहास के किसी राजवंश की कहानी को ईसाइयत के आध्यात्मिक आदर्शों पर थोपना है. इसलिए सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च पूरी दुनिया में ईसा का जन्मोत्सव मनाने से परहेज करता है.

Christian Community who not celebrate christmas
क्रिसमस से पहले बंद चर्च

क्रिसमस मनाने की कहीं चर्चा नहीं: पास्टर सुजल कहते हैं कि ईसा मसीह की जीवनी न्यू टेस्टामेंट में मार्क्स, मैथ्यू, ल्यूक और जान लिखित सुसमाचारों में है. इनमें से किसी ने ईसा के जन्म की तारीख नहीं बताई है. न्यू टेस्टामेंट में ईसा के बाद के कई सौ साल बाद तक ईसाइयत के प्रचार का उल्लेख मिलता है. इनमें से कहीं भी क्रिसमस मनाने की चर्चा नहीं है. उन्होंने बताया कि सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट, प्रोटेस्टेंट चर्च विंग का ही एक ग्रुप है. इसमें कैथोलिक के कई मान्यताओं को नहीं माना जाता है. मूर्ति पूजा नहीं होती है. रविवार की जगह शनिवार को उपासना करते हैं.

कैसे हुई क्रिसमस की शुरूआत: पास्टर सुजल किस्कू का कहना है इतिहास में वर्णित एक प्रमुख तारीख को ईसा के जन्म दिवस के रूप में आरोपित किया गया है. पास्टर के अनुसार, बेबीलोन के इतिहास और दंतकथाओं में निमरोद नाम के एक राजा थे. उसके दरबारियों ने उसके बेटे मितरस को चमत्कारी कहना शुरू कर दिया. मितरस का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था. जनता को मितरस का जन्म दिन मनाने और उसकी पूजा के लिए बाध्य किया गया. सालों साल की परंपरा इसाइयत ग्रहण करने के बाद भी बरकरार रही. बेबीलोन से यह रोम पहुंचा. रोमन सम्राट कांटेस्टाइन के इसाई धर्म को राजधर्म घोषित करने के बाद 25 दिसंबर को ईसा का जन्मदिन क्रिसमस के रूप में मनाया जाने लगा.

वहीं, निमरोद की पत्नी और बेटे की मूर्ति को लोग मदर मेरी और जीसस की मूर्ति मानकर घरों और सार्वजनिक जगहों पर स्थापित करने लगे. इस तरह 25 दिसंबर ईसा मसीह के जन्मोत्सव और फिर सांताक्लाज के उपहार तथा ऐसी ही कई चीजों के साथ मिलकर ईसाई धर्म के सबसे बड़े धार्मिक त्योहार का रूप ग्रहण करता चला गया. बाद में पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे इलाकों में गैर ईसाई भी जोर-शोर से इसे मनाने लगे.

क्या कहना है कैथोलिक समाज का: रांची स्थित आर्चबिशप हाउस के बिशप थ्योडोर मास्करेन्हास ने ईटीवी भारत को फोन पर बताया कि जिसको जो मानना है, उसको मानने का अधिकार है. ऐतिहासिक रूप से हम नहीं जानते हैं कि किस दिन प्रभु का जन्म हुआ था. दो हजार साल पहले हमारे पूर्वजों ने एक दिन चुना, जिस दिन रौशनी फैली थी. उसको दुनिया का सूरज यानी प्रभु ईसा मसीह की रौशनी मानकर यह परंपरा शुरू हुई. उसी समय से हमलोग क्रिसमस मनाते आ रहे हैं. अब तो क्रिसमस सभी का बन गया है. धर्म में सभी को आजादी है. इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं है. जैसे हिन्दू धर्म में जन्माष्टमी मनाते हैं. यह भी मान्यता ही है. उन्होंने पूरे राज्य की सुख, शांति और समृद्धि की कामना की. उन्होंने मुस्कुराते हुए लहजे में कहा कि एडवेंटिस्ट वाले अपनी मान्यताओं के साथ चलते हैं तो उन्हें चलने दीजिए.

Last Updated : Dec 24, 2022, 9:06 PM IST
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