रायपुर: कहते हैं कि कला किसी की मोहताज नहीं होती. इस बात को सोनाली रंजन ने सच साबित कर दिखाया है. आर्टिस्ट सोनाली रंजन ने भित्तिचित्र को दीवारों पर उकेरा है. उन्होंने ट्राइबल आर्ट को सीआरपीएफ 211वीं बटालियन के मेस की दीवारों और बाउंड्री वॉल पर उकेरा है. हर कोई उनकी इस कलाकृति की सराहना कर रहा है.वहीं, इतिहासकारों का मानना है कि ये कला 30 हजार साल पुरानी है.
आदिवासियों का कल्चर दर्शाता है ट्राइबल आर्ट: इस बारे में ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान आर्टिस्ट सोनाली रंजन ने बताया कि, "छत्तीसगढ़ आने के बाद शबरी एंपोरियम में शॉपिंग करने गई थी. उसी दौरान यह कला मैंने देखा. ये आर्ट मन को भाने लगा था. उसके बाद ब्रश और पेंट हाथों में थाम कर भित्ति चित्र बनानी शुरू कर दी. लगभग 4 महीने के अथक प्रयास और मेहनत के बाद मेस की दीवारों और बाउंड्री वॉल पर भित्ति चित्र बनाई है. इन चित्रों में आदिवासियों का कल्चर दिखता है. जो आदिवासी संस्कृति का जीता जागता उदाहरण है. इस काम में मैंने किसी की भी मदद नहीं ली है."
जानिए क्या कहते हैं इतिहासकार: इस बारे में इतिहासकार और पुरातत्वविद डॉक्टर हेमू यदु ने कहा कि, "यह पेंटिंग 30 हजार साल पुरानी है. इस पेंटिंग को लोग छत्तीसगढ़ में भित्तिचित्र के नाम से भी जानते हैं. यह पेंटिंग छत्तीसगढ़ के बस्तर सहित रायगढ़, सरगुजा, कबरा, पहाड़, चितवा, डोंगरी जैसे जगह पर काफी लोकप्रिय है. इस पेंटिंग का प्रयोग शुरुआत में आदिवासी संस्कृति में जंगली जानवरों से अपने परिजनों को बचाने के लिए किया जाता था. पेंटिंग के माध्यम से आदिवासी अपने जनजीवन का चित्रांकन करते थे."
दरअसल, ट्राइबल आर्ट को महाराष्ट्र की वर्ली पेंटिंग भी कई लोग कहते हैं. लेकिन इसकी असली पहचान छत्तीसगढ़ की ट्राइबल पेंटिंग के नाम से है. इस पेंटिंग में ट्राइबल आर्ट के जरिए ग्रामीण परिवेश को दर्शाया जाता है. इसमें अधिकांश तस्वीर ग्रामीण इलाके से जुड़ी हुई है. वहीं, सोनाली रंजन ने हर राज्य के लोगों को छत्तीसगढ़ी कल्चर से रू-ब-रू कराने के लिए इस पेंटिंग को वॉल पर करना शुरू किया. अब सोनाली का ये जुनून हर किसी को पसंद आ रहा है.