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जल्द हो समाधान नहीं तो गैंगवार हो जाएगा माओवाद आंदोलन, साथ चले तो नेपाल वरना अफगानिस्तान बन जाएगा बस्तर : शुभ्रांशु - ETV Bharat exclusive news

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु (Senior Journalist and Social Activist Shubhranshu Choudhary) चौधरी लंबे समय से नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत का रास्ता तलाश रहे हैं. ईटीवी भारत से खास बातचीत में उन्होंने इस बारे में क्या कहा, आइये जानते हैं....

Senior Journalist and Social Activist Shubhranshu Choudhary
जल्द हो समाधान नहीं तो गैंगवार हो जाएगा माओवाद आंदोलन
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Published : Mar 25, 2022, 10:08 PM IST

रायपुर : छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी लंबे समय से नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत का रास्ता तलाश रहे हैं. शुभ्रांशु चौधरी देश- विदेश की कई बड़ी मीडिया संस्थानों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. वर्तमान में वे बस्तर क्षेत्र में बतौर सामाजिक कार्यकर्ता काफी सक्रिय हैं. ईटीवी भारत ने शुभ्रांशु चौधरी से नक्सलियों और बस्तर के आदिवासियों से जुड़े विभिन्न विषयों को लेकर खास बातचीत की.

जल्द हो समाधान नहीं तो गैंगवार हो जाएगा माओवाद आंदोलन

सवाल : कश्मीर फाइल्स फिल्म रिलीज होने के बाद प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता नंद कुमार साय ने बयान दिया है कि बस्तर (Discussion on The Bastar Files) क्षेत्र से विस्थापित आदिवासियों की स्थिति कश्मीरी पंडितों से भी ज्यादा खराब है. इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब : यह सही बात है. अभी कश्मीर और यूक्रेन में विस्थापितों की बात हो रही है. सभी सरकारें मदद भी कर रही हैं. आज से 17 साल पहले बस्तर से करीब 55 हजार लोग विस्थापित हुए थे. आज भी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. छत्तीसगढ़ कहता है कि यहां से कोई गया नहीं और विस्थापित परिवार जिन प्रदेशों में गए हैं, वे उन्हें अपने यहां रखना नहीं चाह रहे हैं. इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए. रही बात नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत में मध्यस्थता की तो हम शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.

बस्तर के विस्थापितों के पुनर्वास का काम किया जाना चाहिए. हमारे पास उदाहरण है नार्थ ईस्ट का. मिजोरम से विस्थापित होकर त्रिपुरा गए लोगों के लिए पुनर्वास योजना बनाई गई. हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि बस्तर के विस्थापितों का भी पुनर्वास हो सके. 50 सालों से जो गाड़ी गलत दिशा में चल रही है, वह रिवर्स गियर में वापस हो. हिंसा खत्म कर बस्तर अब शांति की ओर लौटे.

यह भी पढ़ें : छत्तीसगढ़ का विकास मॉडल फेल, असम और बिहार के बाद अब यूपी की जनता भी इसे नकारेगी: धरमलाल कौशिक

सवाल : आप नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत के लिए प्रयास कर रहे हैं. क्या दोनों पक्ष बातचीत के लिए गंभीर हैं ?
जवाब : गंभीर तो दोनों पक्ष नहीं हैं, लेकिन हमें कोशिश करनी चाहिए. नक्सलियों की स्थिति आज बेहद कमजोर है. इससे पहले भी बातचीत की कोशिश हुई थी 2004 में. उस समय नक्सली पक्ष मजबूत था. आज नक्सलियों की स्थिति बेहद कमजोर है. नक्सली आंदोलन शुरुआत में किसानों का आंदोलन था. 80 के दशक में ये लोग बस्तर आये. इनका साथ देने वाली बस्तर की 99 प्रतिशत आदिवासी जनता ने अब तय कर लिया है कि उन्हें इससे बाहर निकलना है. हमारे राज्य में सरेंडर पॉलिसी काफी पहले से है, लेकिन कुछ अर्से पहले ही स्थानीय नक्सलियों ने सरेंडर करना शुरू किया है. हालांकि करीब 5 लाख लोग अब भी उनके डायरेक्ट कंट्रोल में हैं.

ज्यादातर नक्सली नेता अब बूढ़े हो गए हैं. ये 40 साल में इक्के-दुक्के ही आदिवासी नेता तैयार कर पाए हैं. सेंट्रल कमेटी में एक भी आदिवासी नेता वर्तमान में नहीं है. जबकि इनके लिए लड़ने वाले ज्यादातर लोग आदिवासी हैं. नक्सलियों के पास पैसा है. लोग हैं. जंगल और हथियार भी हैं. जो नहीं है, वह है ब्रेन यानी बुद्धि. नक्सलियों का आंदोलन गैंगवार में बदलने वाला है. इसलिए नक्सलियों को भी गंभीरता से सोचना चाहिए कि आज समय है कि वे बातचीत से आदिवासियों के लिए कुछ हासिल कर सकते हैं. सरकार से भी अनुरोध होगा कि अगर किसी समस्या का समाधान करना है तो अगले पक्ष को नष्ट करके नहीं बल्कि उन्हें सम्मानजनक विदाई देनी चाहिए.

सवाल : क्या आपको लगता है कि कैंप बढ़ाने और विकास करने से नक्सलवाद की समस्या का पूरा निदान किया जा सकता है? जैसी सरकारें कहती रही हैं.
जवाब : इसके लिए भी बातचीत तो करनी ही होगी. उस क्षेत्र में विकास कैसा हो, यह तो वहां रहने वाले लोगों से ही चर्चा करनी होगी. नक्सलियों ने भी कुछ जगहों पर लोकतांत्रिक आंदोलन करने का प्रयास किया है. बस्तर के कुछ-कुछ स्थानों पर यह दिखाई भी दे रहा है. इसका स्वागत होना चाहिए.

सवाल : आप के खिलाफ भी नक्सलियों ने पर्चे फेंके. उसमें आपको सरकार का दलाल तक बता डाला. उन्होंने अपनी हिटलिस्ट में भी आपका नाम रखा है. क्या आपको लगता है कि ऐसे में आप जो कार्य कर रहे हैं, उसमें ये बाधक बन सकती हैं ?
जवाब : यह अच्छी बात है कि सरकार हमें नक्सली बोलती है और नक्सली हमें सरकारी बोलते हैं. दोनों के बीच में रहने की जरूरत है. नक्सली जो अभी कर रहे हैं, उसे संयुक्त मोर्चा कहते हैं. उसमें आदिवासियों के हक की बात करने वाले लोग भी शामिल हैं. ऐसे में आदिवासियों को संविधान में दिये गए अधिकारों के कानून को लागू करने का मौका दिया जाए. जैसा नेपाल में हुआ, ताकि नक्सली भी कह सकें कि हमने वह काम करके दिखाया जो अब तक कोई सरकार नहीं कर पाई. अब इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए.

यह भी पढ़ें : फिल्म नीति को लेकर क्या कहते हैं छालीवुड स्टार अनुज, क्या संस्कृति विभाग के अफसरों के रवैये से कलाकार हैं नाराज!

सवाल : नक्सलियों को लेकर छत्तीसगढ़िया या कहें तो बस्तरिया आदिवासी आखिर क्या सोचते हैं. और वे चाहते क्या हैं?
जवाब : बस्तर के आदिवासी सम्मान चाहते हैं. मूलतः बस्तर के एक-दो आदिवासी ही अब तक नक्सलियों के लीडर बन पाए हैं. इन्हीं में से एक बड़े नक्सली आदिवासी लीडर से मैंने भी यही सवाल पूछा जो आप पूछ रहे हैं. उन्होंने कहा कि हम जंगल के लोग हैं. हम जंगल का अधिकार चाहते हैं. हमारी भाषा-संस्कृति का सम्मान चाहते हैं. हम अपनी तरह जीना चाहते हैं. हमारा आत्मसम्मान रहे, इसीलिए संविधान में दिये गए अधिकार चाहते हैं. इसके अलावा और कुछ नहीं.

नक्सलियों में भी महज 1 प्रतिशत लोग हैं, जिनका उद्देश्य अलग है. वे दुनिया में बदलाव लाने की बात कहते हैं. लेकिन इनके साथ जो 99 प्रतिशत आदिवासी हैं, उनका उद्देश्य अलग है. 99 प्रतिशत वही चाहते हैं, जो भारतीय संविधान में लिखा है. अगर उसे लागू करने की बात करें और सभी से पूछें कि उनकी समस्याएं क्या हैं तो इस समस्या के समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है.

सवाल : क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही कोई बीच का रास्ता निकलेगा, इस समस्या के समाधान के लिए ?
जवाब : हम तो चाहते हैं. अगर यह बीच का रास्ता नहीं निकला तो नक्सली आंदोलन गैंगवार की तरफ बढ़ जाएगा. बस्तर इसके चौराहे पर खड़ा है. अगर हमने होशियारी के साथ दो-चार साल काम किया तो बस्तर में नेपाल जैसी स्थिति बन सकती है. जहां कम से कम बंदूकें तो बात नहीं कर रहीं. हमने यह नहीं किया तो बस्तर में अफगानिस्तान जैसी स्थिति निर्मित हो जाएगी. यही समय है इस समस्या के क्लीन क्लोजर का. हम सबको इस समस्या के खात्मे के लिए काम करना चाहिए.

रायपुर : छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी लंबे समय से नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत का रास्ता तलाश रहे हैं. शुभ्रांशु चौधरी देश- विदेश की कई बड़ी मीडिया संस्थानों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. वर्तमान में वे बस्तर क्षेत्र में बतौर सामाजिक कार्यकर्ता काफी सक्रिय हैं. ईटीवी भारत ने शुभ्रांशु चौधरी से नक्सलियों और बस्तर के आदिवासियों से जुड़े विभिन्न विषयों को लेकर खास बातचीत की.

जल्द हो समाधान नहीं तो गैंगवार हो जाएगा माओवाद आंदोलन

सवाल : कश्मीर फाइल्स फिल्म रिलीज होने के बाद प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता नंद कुमार साय ने बयान दिया है कि बस्तर (Discussion on The Bastar Files) क्षेत्र से विस्थापित आदिवासियों की स्थिति कश्मीरी पंडितों से भी ज्यादा खराब है. इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब : यह सही बात है. अभी कश्मीर और यूक्रेन में विस्थापितों की बात हो रही है. सभी सरकारें मदद भी कर रही हैं. आज से 17 साल पहले बस्तर से करीब 55 हजार लोग विस्थापित हुए थे. आज भी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. छत्तीसगढ़ कहता है कि यहां से कोई गया नहीं और विस्थापित परिवार जिन प्रदेशों में गए हैं, वे उन्हें अपने यहां रखना नहीं चाह रहे हैं. इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए. रही बात नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत में मध्यस्थता की तो हम शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.

बस्तर के विस्थापितों के पुनर्वास का काम किया जाना चाहिए. हमारे पास उदाहरण है नार्थ ईस्ट का. मिजोरम से विस्थापित होकर त्रिपुरा गए लोगों के लिए पुनर्वास योजना बनाई गई. हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि बस्तर के विस्थापितों का भी पुनर्वास हो सके. 50 सालों से जो गाड़ी गलत दिशा में चल रही है, वह रिवर्स गियर में वापस हो. हिंसा खत्म कर बस्तर अब शांति की ओर लौटे.

यह भी पढ़ें : छत्तीसगढ़ का विकास मॉडल फेल, असम और बिहार के बाद अब यूपी की जनता भी इसे नकारेगी: धरमलाल कौशिक

सवाल : आप नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत के लिए प्रयास कर रहे हैं. क्या दोनों पक्ष बातचीत के लिए गंभीर हैं ?
जवाब : गंभीर तो दोनों पक्ष नहीं हैं, लेकिन हमें कोशिश करनी चाहिए. नक्सलियों की स्थिति आज बेहद कमजोर है. इससे पहले भी बातचीत की कोशिश हुई थी 2004 में. उस समय नक्सली पक्ष मजबूत था. आज नक्सलियों की स्थिति बेहद कमजोर है. नक्सली आंदोलन शुरुआत में किसानों का आंदोलन था. 80 के दशक में ये लोग बस्तर आये. इनका साथ देने वाली बस्तर की 99 प्रतिशत आदिवासी जनता ने अब तय कर लिया है कि उन्हें इससे बाहर निकलना है. हमारे राज्य में सरेंडर पॉलिसी काफी पहले से है, लेकिन कुछ अर्से पहले ही स्थानीय नक्सलियों ने सरेंडर करना शुरू किया है. हालांकि करीब 5 लाख लोग अब भी उनके डायरेक्ट कंट्रोल में हैं.

ज्यादातर नक्सली नेता अब बूढ़े हो गए हैं. ये 40 साल में इक्के-दुक्के ही आदिवासी नेता तैयार कर पाए हैं. सेंट्रल कमेटी में एक भी आदिवासी नेता वर्तमान में नहीं है. जबकि इनके लिए लड़ने वाले ज्यादातर लोग आदिवासी हैं. नक्सलियों के पास पैसा है. लोग हैं. जंगल और हथियार भी हैं. जो नहीं है, वह है ब्रेन यानी बुद्धि. नक्सलियों का आंदोलन गैंगवार में बदलने वाला है. इसलिए नक्सलियों को भी गंभीरता से सोचना चाहिए कि आज समय है कि वे बातचीत से आदिवासियों के लिए कुछ हासिल कर सकते हैं. सरकार से भी अनुरोध होगा कि अगर किसी समस्या का समाधान करना है तो अगले पक्ष को नष्ट करके नहीं बल्कि उन्हें सम्मानजनक विदाई देनी चाहिए.

सवाल : क्या आपको लगता है कि कैंप बढ़ाने और विकास करने से नक्सलवाद की समस्या का पूरा निदान किया जा सकता है? जैसी सरकारें कहती रही हैं.
जवाब : इसके लिए भी बातचीत तो करनी ही होगी. उस क्षेत्र में विकास कैसा हो, यह तो वहां रहने वाले लोगों से ही चर्चा करनी होगी. नक्सलियों ने भी कुछ जगहों पर लोकतांत्रिक आंदोलन करने का प्रयास किया है. बस्तर के कुछ-कुछ स्थानों पर यह दिखाई भी दे रहा है. इसका स्वागत होना चाहिए.

सवाल : आप के खिलाफ भी नक्सलियों ने पर्चे फेंके. उसमें आपको सरकार का दलाल तक बता डाला. उन्होंने अपनी हिटलिस्ट में भी आपका नाम रखा है. क्या आपको लगता है कि ऐसे में आप जो कार्य कर रहे हैं, उसमें ये बाधक बन सकती हैं ?
जवाब : यह अच्छी बात है कि सरकार हमें नक्सली बोलती है और नक्सली हमें सरकारी बोलते हैं. दोनों के बीच में रहने की जरूरत है. नक्सली जो अभी कर रहे हैं, उसे संयुक्त मोर्चा कहते हैं. उसमें आदिवासियों के हक की बात करने वाले लोग भी शामिल हैं. ऐसे में आदिवासियों को संविधान में दिये गए अधिकारों के कानून को लागू करने का मौका दिया जाए. जैसा नेपाल में हुआ, ताकि नक्सली भी कह सकें कि हमने वह काम करके दिखाया जो अब तक कोई सरकार नहीं कर पाई. अब इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए.

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सवाल : नक्सलियों को लेकर छत्तीसगढ़िया या कहें तो बस्तरिया आदिवासी आखिर क्या सोचते हैं. और वे चाहते क्या हैं?
जवाब : बस्तर के आदिवासी सम्मान चाहते हैं. मूलतः बस्तर के एक-दो आदिवासी ही अब तक नक्सलियों के लीडर बन पाए हैं. इन्हीं में से एक बड़े नक्सली आदिवासी लीडर से मैंने भी यही सवाल पूछा जो आप पूछ रहे हैं. उन्होंने कहा कि हम जंगल के लोग हैं. हम जंगल का अधिकार चाहते हैं. हमारी भाषा-संस्कृति का सम्मान चाहते हैं. हम अपनी तरह जीना चाहते हैं. हमारा आत्मसम्मान रहे, इसीलिए संविधान में दिये गए अधिकार चाहते हैं. इसके अलावा और कुछ नहीं.

नक्सलियों में भी महज 1 प्रतिशत लोग हैं, जिनका उद्देश्य अलग है. वे दुनिया में बदलाव लाने की बात कहते हैं. लेकिन इनके साथ जो 99 प्रतिशत आदिवासी हैं, उनका उद्देश्य अलग है. 99 प्रतिशत वही चाहते हैं, जो भारतीय संविधान में लिखा है. अगर उसे लागू करने की बात करें और सभी से पूछें कि उनकी समस्याएं क्या हैं तो इस समस्या के समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है.

सवाल : क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही कोई बीच का रास्ता निकलेगा, इस समस्या के समाधान के लिए ?
जवाब : हम तो चाहते हैं. अगर यह बीच का रास्ता नहीं निकला तो नक्सली आंदोलन गैंगवार की तरफ बढ़ जाएगा. बस्तर इसके चौराहे पर खड़ा है. अगर हमने होशियारी के साथ दो-चार साल काम किया तो बस्तर में नेपाल जैसी स्थिति बन सकती है. जहां कम से कम बंदूकें तो बात नहीं कर रहीं. हमने यह नहीं किया तो बस्तर में अफगानिस्तान जैसी स्थिति निर्मित हो जाएगी. यही समय है इस समस्या के क्लीन क्लोजर का. हम सबको इस समस्या के खात्मे के लिए काम करना चाहिए.

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