रायपुर : आजादी के 75वीं वर्षगांठ के मौके पर देशभर में आजादी का अमृत महोत्सव (azadi ka amrit mahotsav ) मनाया जा रहा है. इस खास मौके पर हम आपको ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में बताने जा रहे हैं. जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन (Indian Independence Day ) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.यदि ये स्वतंत्रता सेनानी देश में मौजूद नहीं होते तो शायद ही कभी हमारा देश आजादी के लिए अपना सिर उठा पाता. इनके साहस और बलिदान के कारण ही देश अंग्रेजों के शासन से मुक्त हो (Changemakers ) सका. आजादी की लड़ाई में पूरे देश के साथ छत्तीसगढ़ का भी अपना योगदान रहा (Saluting Bravehearts ) है. इसी योगदान में आज हम आपको बताने जा रहे हैं ऐसे 5 वीरों के बारे में जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अग्रेजों के छक्के छुड़ा (freedom fighters of Chhattisgarh) दिए.
वीर नारायण सिंह : वर्ष 1856 में छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल पड़ा था. जमींदार नारायण सिंह (Veer Narayan Singh) की प्रजा के समक्ष भूखों मरने की स्थिति थी. उन्होंने अपने गोदाम से अनाज लोगों को बांट दिया, लेकिन वह मदद पर्याप्त नहीं थी. इसलिए जमींदार नारायण सिंह ने शिवरीनारायण के माखन नामक व्यापारी से अनाज की मांग की. उन्होंने नारायण सिंह का आग्रह ठुकरा दिया. नारायण सिंह कुछ किसानों के साथ माखन के गोदाम पहुंचे और उस पर कब्जा कर लिया. इस बात की सूचना जब अंग्रेजों को मिली तो नारायण सिंह को गिरफ्तार करने का आदेश जारी कर दिया गया. उन्हें 24 अक्टूबर 1856 को गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया गया. संबलपुर के क्रांतिकारी सुरेंद्र साय के नारायण सिंह से अच्छे संबंध थे. सिपाहियों की मदद से वह जेल से निकल भागने में कामयाब रहे. सोनाखान पहुंच कर नारायण सिंह ने 500 लोगों की सेना बना ली. 20 नवंबर 1857 को रायपुर के असिस्टेंट कमिश्नर लेफ्टिनेंट स्मिथ ने 4 जमींदारों और 53 सिपाहियों के साथ सोनाखान के लिए कूच किया. उसकी सेना ने खरौद में पड़ाव डाला और अतिरिक्त मदद के लिए बिलासपुर को संदेश भेजा. सोनाखान के करीब स्मिथ की फौज पर पहाड़ की ओर से नारायण सिंह ने हमला कर दिया. इसमें स्मिथ को भारी नुकसान पहुंचा. उसे पीछे हटना पड़ा. इस बीच, स्मिथ तक कटंगी से अतिरिक्त सैन्य मदद पहुंच गई. बढ़ी ताकत के साथ उसने उस पहाड़ी को घेरना शुरू कर दिया, जिस पर नारायण सिंह मोर्चा बांधे डटे थे. दोनों ओर से दिन भर गोलीबारी होती रही. नारायण सिंह की गोलियां खत्म होने लगी. नारायण सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया. उन्हें रायपुर जेल में डाल दिया गया. मुकदमे की कार्यवाही चली और 10 दिसंबर 1857 को उन्हें फांसी दे दी गई.
हनुमान सिंह : नारायण सिंह के बलिदान ने रायपुर के सैनिकों में अंग्रेजी शासन के प्रति घृणा और आक्रोश को तीव्र कर दिया. रायपुर ने भी बैरकपुर की तरह की सैन्यक्रान्ति देखी है. इसके जनक तीसरी रेजिमेन्ट के सैनिक हनुमान सिंह (Hanuman Singh) थे. उनकी योजना थी कि रायपुर के अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर छत्तीसगढ़ में अंग्रेज शासन को पंगु बना दिया जाए. हनुमान सिंह ने 18 जनवरी 1858 को सार्जेन्ट मेजर सिडवेल की हत्या की थी. अपने साथियों के साथ तोपखाने पर कब्जा कर लिया. सिडवेल की हत्या तथा छावनी में सैन्य विद्रोह की सूचना अंग्रेज अधिकारियों को मिल गई. लेफ्टिनेंट रॉट और लेफ्टिनेंट सी. एच. लूसी स्मिथ ने अन्य सैनिकों के सहयोग से विद्रोह पर काबू पा लिया. हनुमान सिंह के साथ मात्र 17 सैनिक ही थे, लेकिन वह लगातार छः घंटों तक लड़ते रहे. अधिक देर टिकना असंभव था, इसलिए वह वहां से फरार हो गए. इसके बाद वह कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे. उनके साथी गिरफ्तार कर लिए गए. 22 जनवरी 1858 को इन क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई,जिनके नाम हैं: गाजी खान, अब्दुल हयात, मल्लू, शिवनारायण, पन्नालाल, मतादीन, ठाकुर सिंह, बली दुबे, लल्लासिंह, बुध्दू सिंह, परमानन्द, शोभाराम, दुर्गा प्रसाद, नजर मोहम्मद, देवीदान और जय गोविन्द.
बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव : बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव (Babu Chhotelal Srivastava) दृढ़ता और संकल्प के प्रतीक थे, छत्तीसगढ़ के इतिहास की प्रमुख घटना कंडेल नहर सत्याग्रह के वह सूत्रधार थे. छोटेलाल श्रीवास्तव का जन्म 28 फरवरी 1889 को कंडेल के एक संपन्न परिवार में हुआ था. पं. सुंदरलाल शर्मा और पं. नारायणराव मेघावाले के संपर्क में आकर उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया. वर्ष 1915 में उन्होंने श्रीवास्तव पुस्तकालय की स्थापना की. यहां राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं मंगवाई जाती थी. आगे चल कर धमतरी का उनका घर स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन गया. वह वर्ष 1918 में धमतरी तहसील राजनीतिक परिषद के प्रमुख आयोजकों में से एक थे. छोटेलाल श्रीवास्तव को सर्वाधिक ख्याति कंडेल नहर सत्याग्रह से मिली. अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ उन्होंने किसानों को संगठित किया. अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ संगठित जनशक्ति का यह पहला अभूतपूर्व प्रदर्शन था. वर्ष 1921 में स्वदेशी प्रचार के लिए उन्होंने खादी उत्पादन केंद्र की स्थापना की. वर्ष 1922 में श्यामलाल सोम के नेतृत्व में सिहावा में जंगल सत्याग्रह हुआ. बाबू साहब ने उस सत्याग्रह में भरपूर सहयोग दिया. जब वर्ष 1930 में रुद्री के नजदीक नवागांव में जंगल सत्याग्रह का निर्णय लिया गया, तब बाबू साहब की उसमें सक्रिय भूमिका रही. उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. जेल में उन्हें कड़ी यातना दी गई. वर्ष 1933 में गांधीजी ने पुनः छत्तीसगढ़ का दौरा किया. वह धमतरी गए. वहां उन्होंने छोटेलाल बाबू के नेतृत्व की प्रशंसा की. वर्ष 1937 में श्रीवास्तवजी धमतरी नगर पालिका निगम के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी बाबू साहब की सक्रिय भूमिका थी.उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. स्वतंत्रता संग्राम के महान तीर्थ कंडेल में 18 जुलाई 1976 को उनका देहावसान हो गया.
बैरिस्टर छेदीलाल : बैरिस्टर छेदीलाल (Barrister Chhedilal) का जन्म 1887 में अकलतरा (बिलासपुर) में हुआ. अकलतरा से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद माध्यमिक शिक्षा के लिए बिलासपुर म्यूनिस्पल हाई स्कूल में प्रवेश लिया. शिक्षा के साथ-साथ वो कार्यक्रमों में गहन रूचि रखते थे. बाल्यकाल से ही उनका झुकाव राजनीति के प्रति था. उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन संपूर्ण देश में व्याप्त था. जिससे छत्तीसगढ़ सहित बिलासपुर भी प्रभावित था. 1901 में माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने रायपुर आए. यहां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्चतर शिक्षा हेतु वे प्रयाग गए. विशेष योग्यता के कारण उन्हें छात्रवृत्ति मिलती रही. इंग्लैण्ड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University of England) से उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और इतिहास विषय लेकर बी ए. ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद उन्होंने इतिहास में एम.ए. किया. सन् 1913 में वे बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत लौटे.25 फरवरी 1932 को सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत बिलासपुर बैरिस्टर छेदीलाल ने धरना प्रदर्शन किया. पिकेटिंग के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.इसके साथ ही नागपुर, विदर्भ कांग्रेस के संयुक्त सम्मेलन में ठाकुर छेदीलाल सभापति बनाए गए. सम्मेलन में दिए गए भाषण की प्रतिक्रिया स्वरूप उन्हें बंदी बनाकर उनके वकालत के लाइसेंस को निरस्त कर दिया गया. 1942 में 9 अगस्त को बिलासपुर में भारत छोड़ो आंदोलन के परिणामस्वरूप छेदीलाल को 3 वर्ष कैद की सजा दी गई. 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार संविधान निर्मात्री सभा का चुनाव हुआ.ठाकुर जी अनवरत संविधान निर्माण कार्य में सहयोग करते रहे. स्वतंत्रता के बाद भी वे राष्ट्रीय सेवा कार्य में लगे रहे.सितंबर 1956 में दिल का दौरा पड़ने से बैरिस्टर छेदीलाल का निधन हो गया .
ठाकुर प्यारेलाल सिंह :21 दिसंबर 1891 में ठाकुर प्यारेलाल सिंह (Thakur Pyarelal Singh) का जन्म दुर्ग जिले के अंतर्गत राजनांदगांव तहसील के देहान नामक गांव में हुआ था.उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजनांदगांव में हुई और हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर गवर्नमेंट हाईस्कूल से प्राप्त की. ठाकुर प्यारेलाल ने हिस्लाप कॉलेज, नागपुर से इण्टर की परीक्षा पास की. इसी बीच पिता ठाकुर दीनदयाल सिंह की मृत्यु से शिक्षा में व्यवधान पड़ा, बाद में बी.ए. पास करने की बाद ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1916 में वकालत पास की.1924 में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने राजनांदगाँव के मिल मजदूरों को लेकर आंदोलन किया. इस दौरान अनेक गिरफ्तारियां हुईं. अंग्रेज ठाकुर प्यारेलाल से इतना परेशान हो गए कि उन्होंने ठाकुर जी के भाषण देने पर प्रतिबंध लगा दिया . 1932 में आंदोलन के दूसरे चरण में विदेशी बहिष्कार आंदोलन में पंडित रविशंकर शुक्ल के बाद ठाकुर साहब संचालक बने. 26 जनवरी 1932 को ठाकुर साहब गांधी मैदान में सविनय अवज्ञा के कार्यक्रम संबंधी भाषण देते हुए गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें 2 वर्ष की सजा और जुर्माना किया गया. जुर्माना न देने पर उनकी संपत्ति कुर्क कर ली गई. इसके साथ ही वकालत की सनद भी जब्त कर ली गई. उन्हें जेल के क्लास-सी में रखा गया, मध्यप्रदेश के वे ही प्रथम वकील थे जिनकी सनद जब्त की गई. जेल से छूटने के बाद ठाकुर साहब उसी स्फूर्ति और लगन के साथ जनसेवा समेत संगठन के कार्य में जुट गए. 1933 में वे महाकौशल कांग्रेस कमेटी के मंत्री बने. 1937 तक इस पद पर रहकर उन्होंने पूरे प्रदेश का दौरा करके कांग्रेस को पुनः संगठित करने का प्रयास किया. 1936 में कांग्रेस टिकट पर मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए. 1937 में वे म्युनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष बने.छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की कमी की पूर्ति के लिए ठाकुर साहब की अध्यक्षता में 'छत्तीसगढ़ एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना 1937 में की गई और छत्तीसगढ़ कॉलेज की नींव डाली गई.