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बस्तर दशहरा : 600 साल से ये रस्म निभाते आ रहे हैं आदिवासी, जानिए इतिहास

बस्तर दशहरा और इसका इतिहास 600 साल पुराना है. कई चक्के वाले विशालकाय रथ की परिक्रमा शुरू हो गई है.

बस्तर दशहरा
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Published : Oct 4, 2019, 11:45 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 7:56 AM IST

जगदलपुर : दुनिया में सबसे लंबे वक्त तक चलने वाला लोक पर्व बस्तर दशहरा दुनियाभर में प्रसिद्ध है. 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे की अपनी अलग मान्यता है. इस पर्व की प्रसिद्ध रस्म रथ परिक्रमा का शुभारंभ हो चुका है. कई चक्के वाले विशालकाय रथ की परिक्रमा शुरू हो गई है. इस रथ का निर्माण आदिवासी करते हैं.

पैकेज.

रथ को बनाने में पारंपरिक औजार के साथ साल की लकड़ियों का भी इस्तेमाल किया गया है. अब इस रथ से शहर की परिक्रमा कराई जा रही है. करीब 40 फीट ऊंचे और कई टन वजनी इस रथ को परिक्रमा के दौरान खींचने के लिए सैकड़ों आदिवासी अपनी इच्छा से यहां पहुंचते हैं.

क्या है इस परंपरा का इतिहास-
परिक्रमा के दौरान रथ पर मां दंतेश्वरी के छत्र को विराजमान कराया जाता है.
बस्तर दशहरे की इस अद्भुत रस्म कि शुरुआत 1410 ईसवी में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव ने की थी. रथ परिक्रमा की इस रस्म को 600 सालों बाद आज भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं.
महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथ पुरी जाकर रथपति की उपाधि प्राप्त की थी. इसके बाद से अब तक यह परंपरा चली आ रही है.
दशहरे के दौरान देश में इकलौती इस तरह की परंपरा को देखने हर साल हजारों की संख्या में लोग बस्तर पहुंचते हैं.

पढ़ें : आरक्षण से संबंधित साक्ष्य जल्द ही HC में करेंगे पेश: सिंहदेव

क्या होता है रथ परिक्रमा में खास-
नवरात्रि के पहले दिन से सप्तमी तक मां की सवारी को परिक्रमा लगवाने वाले इस रथ को फूल रथ के नाम से जाना जाता है.
मां दंतेश्वरी के मंदिर से मांई के मुकुट और छत्र को गाजे-बाजे के साथ प्रधान पुजारी और मांझी चालकियों द्वारा रथ तक लाया जाता है. इसके बाद शासकीय सलामी देकर इस रथ कि परिक्रमा का आगाज किया जाता है.
सैकड़ों आदिवासी इस विशालकाय रथ को हाथों से खींचते हैं और जगन्नाथ मंदिर से होते हुए गोल बाजार चौक, हनुमान चौक के बाद दंतेश्वरी मंदिर के परिसर में खड़ा किया जाता है. इसके बाद माई जी की छत्र को उतारकर मंदिर के भीतर लाया जाता है.

जगदलपुर : दुनिया में सबसे लंबे वक्त तक चलने वाला लोक पर्व बस्तर दशहरा दुनियाभर में प्रसिद्ध है. 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे की अपनी अलग मान्यता है. इस पर्व की प्रसिद्ध रस्म रथ परिक्रमा का शुभारंभ हो चुका है. कई चक्के वाले विशालकाय रथ की परिक्रमा शुरू हो गई है. इस रथ का निर्माण आदिवासी करते हैं.

पैकेज.

रथ को बनाने में पारंपरिक औजार के साथ साल की लकड़ियों का भी इस्तेमाल किया गया है. अब इस रथ से शहर की परिक्रमा कराई जा रही है. करीब 40 फीट ऊंचे और कई टन वजनी इस रथ को परिक्रमा के दौरान खींचने के लिए सैकड़ों आदिवासी अपनी इच्छा से यहां पहुंचते हैं.

क्या है इस परंपरा का इतिहास-
परिक्रमा के दौरान रथ पर मां दंतेश्वरी के छत्र को विराजमान कराया जाता है.
बस्तर दशहरे की इस अद्भुत रस्म कि शुरुआत 1410 ईसवी में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव ने की थी. रथ परिक्रमा की इस रस्म को 600 सालों बाद आज भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं.
महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथ पुरी जाकर रथपति की उपाधि प्राप्त की थी. इसके बाद से अब तक यह परंपरा चली आ रही है.
दशहरे के दौरान देश में इकलौती इस तरह की परंपरा को देखने हर साल हजारों की संख्या में लोग बस्तर पहुंचते हैं.

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क्या होता है रथ परिक्रमा में खास-
नवरात्रि के पहले दिन से सप्तमी तक मां की सवारी को परिक्रमा लगवाने वाले इस रथ को फूल रथ के नाम से जाना जाता है.
मां दंतेश्वरी के मंदिर से मांई के मुकुट और छत्र को गाजे-बाजे के साथ प्रधान पुजारी और मांझी चालकियों द्वारा रथ तक लाया जाता है. इसके बाद शासकीय सलामी देकर इस रथ कि परिक्रमा का आगाज किया जाता है.
सैकड़ों आदिवासी इस विशालकाय रथ को हाथों से खींचते हैं और जगन्नाथ मंदिर से होते हुए गोल बाजार चौक, हनुमान चौक के बाद दंतेश्वरी मंदिर के परिसर में खड़ा किया जाता है. इसके बाद माई जी की छत्र को उतारकर मंदिर के भीतर लाया जाता है.

Intro:जगदलपुर। बस्तर दशहरे की विश्व प्रसिध्द रस्म रथ परिक्रमा का शुभारंभ हो चुका है। इस रस्म में बस्तर के आदिवासियों द्वारा हाथो से ही पारंपरिक औजारों द्वारा बनाये गये विशालकाय रथ की शहर परिक्रमा कराई जाती है। करीब 40 फीट उंचे व कईं टन वजनी इस रथ को परिक्रमा हेतु खींचने सैकड़ों आदिवासी स्वेच्छा से पहुंचते हैं।




Body:परिक्रमा के दौरान रथ पर माईं दंतेश्वरी के छत्र  को विराजमान कराया जाता है।  बस्तर दशहरे कि इस अद्भुत रस्म कि शुरुवात 1410 ईसवीं में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव के द्वारा कि गई थी। महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथ पूरी जाकर रथ पति कि उपाधि प्राप्त की थी। जिसके बाद से अब तक यह परम्परा अनवरत इसी तरह चले आ रही है।


Conclusion:दशहरे के दौरान देश में इकलौती इस तरह की परंपरा को देखने हर वर्ष हजारों की संख्या मे लोग बस्तर पहुंचते हैं।1400 ईसवीं में राजा पुरषोत्तम देव द्वारा आरंभ की गई रथ परिक्रमा की इस रस्म को 600 सालों बाद आज भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं। नवरात्रि के प्रथम दिन से सप्तमी तक मांई जी की सवारी को  परिक्रमा लगवाने  वाले इस रथ को फुल रथ के नाम से जाना जाता है।मांई दंतेश्वरी के मंदिर से मांईजी के मुकुट और छत्र को गाजे बाजे के साथ प्रधान पुजारी और मांझी चालकियों द्वारा रथ तक लाया जाता है। इसके बाद शासकीय सलामी देकर इस रथ कि परिक्रमा का आगाज किया जाता है। और सैकड़ों आदिवासी इस विशालकाय रथ को हाथों से खिंचते है और जगन्नाथ मंदिर से होते हुए गोल बाजार चौक हनुमान चौक के बाद दंतेश्वरी मंदिर के परिसर में खड़ा किया जाता है और माई जी की छत्र को उतारकर मंदिर के भीतर लाया जाता है।

बाईट1- रविन्द्र पांडे, जानकार
बाईट2- दीप्ती पांडे, स्थानीय
Last Updated : Jul 25, 2023, 7:56 AM IST
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