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भगवान जगन्नाथ यहां आज भी लेते हैं किसानों से लगान - Jagannath temple was built one hundred and twenty years ago

गरियाबंद जिले का देवभोग जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा हुई. इस मंदिर का रिश्ता पुरी के जगन्नाथ मंदिर से जुड़ा हुआ (Relationship of Jagannath Temple of Devbhog with Puri Temple) है.

Lord Jagannath still takes rent from farmers here
भगवान जगन्नाथ यहां आज भी लेते हैं किसानों से लगान
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Published : Jul 1, 2022, 5:27 PM IST

गरियाबंद : देवभोग में 84 गांव के लोग भगवान जगन्नाथ जी को आज भी लगान देते है. लगान देने की ये परंपरा 120 साल से निरंतर चली आ रही (Historic Jagannath Temple of Devbhog ) है. लगान के रुप में चावल और मूंग लिया जाता है. यहां से वसूला गया लगान पुरी के विश्व प्रसिद् भगवान जगन्नाथ मंदिर जाता है और फिर सबसे पहले उसी सुगंधित चावल और मुंग का भोग पुरी के जगन्नाथ मंदिर में लगाया जाता है. इसी कारण से लगभग 120 साल पहले इस इलाके का नाम देवभोग रखा गया. यहां बना भगवान जगन्नाथ का मंदिर ओडिशा में भी प्रसिद्ध है. ओडिशा से भी भक्त यहां दर्शन करने लगातार पहुंचते हैं. रथयात्रा के दिन इस मंदिर में खूब रौनक हैं. यहां भी विशेष रथ यात्रा निकाली जा रही है.



कितना पुराना है मंदिर : गरियाबंद जिले के देवभोग में मौजूद जगन्नाथ जी के मंदिर का इतिहास 120 साल से भी ज्यादा पुराना (Jagannath temple was built one hundred and twenty years ago) है. इलाके के 84 गांव के जनसहयोग से इस मंदिर को बनाने में 47 वर्ष लग गए. यह एक मात्र ऐसा मंदिर हैं. जहां भक्त अपने भगवान को लगान पटाने की परंपरा बना हुआ है. लगान के रूप में प्राप्त होने वाले अनाज का एक भाग पुरी के जगन्नाथ जी के भोग के लिए जाता ( Lord Jagannath still takes rent from farmers here) है. इसी के चलते यहां का नाम देवभोग पड़ा. आइए देखते हैं इस मंदिर से जुड़े रोचक तथ्यों को.


कैसी है मंदिर की कलाकृति : वास्तुकला और अनोखी पद्धति से निर्मित ये मंदिर 84 गांव के ग्रामीणों के जन सहयोग से बना है. सीमेंट के बजाय इस मंदिर को बनाने में बेल ,चिवड़ा ,बबूल और देसी सामग्रियों का इस्तेमाल इमारत को जोड़ने के लिए किया गया हैं. यही वजह है कि इसे बनाने में पूरे 47 साल लग गए . ब्रिटिश काल में इलाका जमीदारों के हवाले था. 1820 में मिचकुण्ड नामक एक ब्राम्हण भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति लेकर देवभोग से लगे झराबहाल पहुंचा. आस्था जगी तो इसके निर्माण के लिए इलाके भर के लोग जुट गए. इस मंदिर में विराजित मूर्ति जगन्नाथ जी के 52 रूपों में से एक दधि ब्राम्हण स्वरूप की है.पुरी के अलावा जगन्नाथ जी के अन्य मंदिरों में गरुण -अरुण स्तम्भ की पूजा होती है. लेकिन यहां स्थापित गरुण -अरुण की मूर्तियां मंदिर की अद्वितीय की श्रेणी में ला दिया गया है. आस्था का केंद्र बन चुके इस मंदिर में प्रतिमाह भगवान के 12 उत्सव मनाए जाते हैं. एकादशी और रथयात्रा में श्रद्धालुओं का भारी भीड़ जमावड़ा होता है.

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भगवान जगन्नाथ यहां आज भी लेते हैं किसानों से लगान

ये भी पढ़ें -सीएम भूपेश ने भगवान जगन्नाथ के किए दर्शन, अच्छी बारिश होने की कामना की

कैसे पड़ा देवभोग नाम : मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद 84 गांव के ग्रामीणों ने जगन्नाथ जी के झराबहाल स्थित पुराने स्थल पर एकत्र होकर मंदिर संचालन के लिए जगन्नाथ जी को लगाने स्वरूप पहले फसल का हिस्सा भेंट करने का शपथ लिया (Relationship of Jagannath Temple of Devbhog with Puri Temple) था. बकायदा एक शिला को स्थापित कर शपथ शिला का नाम दिया गया था. हालांकि इस पर अब राधा कृष्ण स्थापित कर निर्माण कराया गया है. मंदिर संचालन की यह व्यवस्था आस्था का प्रतीक तो है ही वहीं दूसरे मंदिरों की तुलना में संचालन की अनोखी पद्धति भी है. लगान का एक हिस्सा जगन्नाथ पुरी भोग चढ़ने भेजा जाता है. इलाके के सुगन्धित चांवल जगन्नाथ के प्रिय भोग काला मूंग को ग्रहण कर पूरी पीठ ने कुसुम भोग नामक. इस नगरी को नामकरण देवभोग के नाम से कर दिया. तब से ही देवभोग का नाम से यह नगरी विख्यात हुआ है.

गरियाबंद : देवभोग में 84 गांव के लोग भगवान जगन्नाथ जी को आज भी लगान देते है. लगान देने की ये परंपरा 120 साल से निरंतर चली आ रही (Historic Jagannath Temple of Devbhog ) है. लगान के रुप में चावल और मूंग लिया जाता है. यहां से वसूला गया लगान पुरी के विश्व प्रसिद् भगवान जगन्नाथ मंदिर जाता है और फिर सबसे पहले उसी सुगंधित चावल और मुंग का भोग पुरी के जगन्नाथ मंदिर में लगाया जाता है. इसी कारण से लगभग 120 साल पहले इस इलाके का नाम देवभोग रखा गया. यहां बना भगवान जगन्नाथ का मंदिर ओडिशा में भी प्रसिद्ध है. ओडिशा से भी भक्त यहां दर्शन करने लगातार पहुंचते हैं. रथयात्रा के दिन इस मंदिर में खूब रौनक हैं. यहां भी विशेष रथ यात्रा निकाली जा रही है.



कितना पुराना है मंदिर : गरियाबंद जिले के देवभोग में मौजूद जगन्नाथ जी के मंदिर का इतिहास 120 साल से भी ज्यादा पुराना (Jagannath temple was built one hundred and twenty years ago) है. इलाके के 84 गांव के जनसहयोग से इस मंदिर को बनाने में 47 वर्ष लग गए. यह एक मात्र ऐसा मंदिर हैं. जहां भक्त अपने भगवान को लगान पटाने की परंपरा बना हुआ है. लगान के रूप में प्राप्त होने वाले अनाज का एक भाग पुरी के जगन्नाथ जी के भोग के लिए जाता ( Lord Jagannath still takes rent from farmers here) है. इसी के चलते यहां का नाम देवभोग पड़ा. आइए देखते हैं इस मंदिर से जुड़े रोचक तथ्यों को.


कैसी है मंदिर की कलाकृति : वास्तुकला और अनोखी पद्धति से निर्मित ये मंदिर 84 गांव के ग्रामीणों के जन सहयोग से बना है. सीमेंट के बजाय इस मंदिर को बनाने में बेल ,चिवड़ा ,बबूल और देसी सामग्रियों का इस्तेमाल इमारत को जोड़ने के लिए किया गया हैं. यही वजह है कि इसे बनाने में पूरे 47 साल लग गए . ब्रिटिश काल में इलाका जमीदारों के हवाले था. 1820 में मिचकुण्ड नामक एक ब्राम्हण भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति लेकर देवभोग से लगे झराबहाल पहुंचा. आस्था जगी तो इसके निर्माण के लिए इलाके भर के लोग जुट गए. इस मंदिर में विराजित मूर्ति जगन्नाथ जी के 52 रूपों में से एक दधि ब्राम्हण स्वरूप की है.पुरी के अलावा जगन्नाथ जी के अन्य मंदिरों में गरुण -अरुण स्तम्भ की पूजा होती है. लेकिन यहां स्थापित गरुण -अरुण की मूर्तियां मंदिर की अद्वितीय की श्रेणी में ला दिया गया है. आस्था का केंद्र बन चुके इस मंदिर में प्रतिमाह भगवान के 12 उत्सव मनाए जाते हैं. एकादशी और रथयात्रा में श्रद्धालुओं का भारी भीड़ जमावड़ा होता है.

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कैसे पड़ा देवभोग नाम : मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद 84 गांव के ग्रामीणों ने जगन्नाथ जी के झराबहाल स्थित पुराने स्थल पर एकत्र होकर मंदिर संचालन के लिए जगन्नाथ जी को लगाने स्वरूप पहले फसल का हिस्सा भेंट करने का शपथ लिया (Relationship of Jagannath Temple of Devbhog with Puri Temple) था. बकायदा एक शिला को स्थापित कर शपथ शिला का नाम दिया गया था. हालांकि इस पर अब राधा कृष्ण स्थापित कर निर्माण कराया गया है. मंदिर संचालन की यह व्यवस्था आस्था का प्रतीक तो है ही वहीं दूसरे मंदिरों की तुलना में संचालन की अनोखी पद्धति भी है. लगान का एक हिस्सा जगन्नाथ पुरी भोग चढ़ने भेजा जाता है. इलाके के सुगन्धित चांवल जगन्नाथ के प्रिय भोग काला मूंग को ग्रहण कर पूरी पीठ ने कुसुम भोग नामक. इस नगरी को नामकरण देवभोग के नाम से कर दिया. तब से ही देवभोग का नाम से यह नगरी विख्यात हुआ है.

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