धमतरी: जिले के सिहावा इलाके के घने जंगलों में कोटेश्वर महादेव नाम का एक शिवलिंग है. इस शिवलिंग में दूध डालने पर दूध का कलर नीला पड़ जाता है. इसलिए मान्यता है कि इस शिवलिंग में भगवान शिव का नीलकंठेश्वर रूप आज भी मौजूद है. इस चमत्कारी शिवलिंग से शिव भक्तों की आस्था जुड़ी हुई है. इसलिए श्रावण माह में भगवान शिव के नीलकण्ठेश्वर रूप को देखने भक्तों की भीड़ उमड़ती है.
कोटेश्वर महादेव मंदिर क्यों है खास: छ्त्तीसगढ़ के धमतरी जिला मुख्यालय से 65 किमी दूरी पर सिहावा इलाके के घने जंगलों के बीच कोटेश्वर महादेव नामक एक शिवलिंग मौजूद है. ऐसा माना जाता है कि इस भीमा कोटेश्वर महादेव धाम के शिवलिंग में भगवान शिव का नीलकंठेश्वर रूप आज भी मौजूद है. करीब साढ़े चार फिट के युगों पुराने इस शिवलिंग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जमीन से निकला हुआ स्वयंभू शिवलिंग है. किसी तरह पत्थर या चट्टान को काटकर या तराश कर नहीं बनाया गया है.
चमत्कारी शिवलिंग से जुड़ी मान्यताएं: सागर मंथन के वक्त जब हलाहल विष की उत्पति हुई और इस विष से सृष्टि का विनाश होने लगा. तब भगवान शिव ने उस विष का पान कर उसे अपने कंठ में रोक लिया. जिससे उनकी गर्दन नीली पड़ गई. तभी से भगवान शिव नीलकंठेश्वर कहलाये. कहते हैं कि धमतरी के सिहावा इलाके के दंडक वन में मौजूद यह शिवलिंग चमत्कारी है. आज भी अगर इस शिवलिंग पर गाय के दूध से अभिषेक किया जाए, तो शिवलिंग पर दूध गिरते ही दूध अपने आप नीले रंग का हो जाता है.
राक्षस राज रावण ने की तपस्या: ऐसा एक बार नहीं अक्सर होता है. इसे देखने के दावे हजारों लोग करते है. यही नहीं इस शिवलिंग को लेकर एक मान्यता और भी है. दंडक वन में मौजूद इस शिवलिंग की पूजा त्रेतायुग में रावण के पूर्वजों द्वारा यह शिवलिंग स्थापित किया गया था. रावण के पूर्वज इस शिवलिंग की पूजा किया करते थे. खुद राक्षस राजा रावण ने भी इसी शिवलिंग के सामने कई वर्षो तक कड़ी तपस्या कर सारे दिव्यास्त्रों का वर पाया था. यह भी मान्यता है कि इसलिए वे सभी आज भी इस शिवलिंग की पूजा करते हैं. हां एक मान्यता यह भी है कि रावण के दादा पुलत्स्य ऋषि आज भी छत्तीसगढ़ के दंडक वन में मौजूद हैं. हर मध्यरात्रि को वो इस शिवलिंग की पूजा आज भी करते है. इसके दावे भी कई लोग करते रहे हैं.
धमतरी से शुरु होता है दंडक वन: छत्तीसगढ़ के धमतरी से ही देश के 5 राज्यों में फैले दंडक वन की शुरआत होती है. भगवान राम के 14 साल के वनवास के साथ ही यह दंडक वन कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और पौराणिक कीवदंतियों का साक्षी रहा है. दण्डक के द्वार कहे जानेवाले इसी सिहावा में सप्तऋषियों का वास रहा है. इसी सिहावा से भगवान राम को सप्तऋषियों ने दिव्यास्त्रों की शिक्षा भी दी थी. साथ ही दण्डक वन रावण और उनके दादा पुलत्स्य ऋषि की तपोभूमि भी रहा है.