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आजादी के 72 साल बाद भी विकास की राह में कोसों दूर है बालोद जिले का ये गांव

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Published : Sep 22, 2019, 2:42 PM IST

बालोद जिले का किनार गोंदी गांव की बस्ती में परेशानियों का जैसे अंबार लग गया है. यहां रह रहे लोग हर रोज कीचड़ से जद्दोजहद कर अपने घर पहुंचते हैं. सबसे मूलभूत जरूरत पानी की यहां लगातार कमी बनी हुई है

विकास की राह में कोसो दूर है बालोद का यह गांव

बालोद : जहां एक ओर देश मे शहरों को विकास को गति देने के लिए स्मार्ट सिटी जैसी योजनाएं चल रही हैं. तो वही गांव का विकास मानो रूक सा गया है. गांवों की बदहाली की न जाने कितनी कहानी आपने सुनी होगी, आज हम आपको एक ऐसी बस्ती के बारे में बता रहे हैं, जो आजादी के 72 साल बाद भी विकास की राह में कोसों दूर है.

आजादी के 72 साल बाद भी विकास की राह में कोसों दूर है बालोद जिले का ये गांव

यहां रह रहे लोग रोज कीचड़ से जद्दोजहद कर अपने घर पहुंचते हैं. सोचने वाली बात यह की रास्ते के नाम पर गांववालों के पास एक मात्र यही विकल्प है. न चाहकर भी उन्हें इस बदतर मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है.

परेशानियों का यह सिलसिला आज से नहीं बल्कि लंबे अरसे से चल रहा है. मानव जीवन की सबसे मूलभूत जरूरत पानी की यहां लगातार कमी बनी हुई है. एक बार किसी तरह यहां हैंडपंप लगाया गया, लेकिन इसके बाद भी समस्याओं का हल नहीं हो सका. हैंडपंप से निकलने वाला पानी न तो पीने लायक है और न ही इसका इस्तेमाल किसी और काम में किया जा सकता है. आलम यह है कि, यहां रह रहे लोगों को बरसात के दिनों मे ही गर्मी की चिंता खाए जा रही है.

इन घने जंगलों के बीच 10 से ज्यादा परिवार रहते हैं. यहां रहने वाले ज्यादातर परिवार बांस के पारंपरिक सामान बनाते हैं, जिसमें छत्तीसगढ़ी सूपा, झिंझरी आदि शामिल हैं. यहां ना गलियां हैं और ना ही पक्के घर और न ही 1 साल पहले तक यहां बिजली आई थी. लोग अंधेरे में जीवन यापन करते थे. एक साल पहले लगे यह सोलर सिस्टम भी अब खराब हो चुके हैं.

पढे़ं : रायपुर : 'जब ऐसा ही करना था, तो मूर्ति विसर्जन कुंड बनाने का ढकोसला क्यों'

इस बस्ती में रहने वाले लोगों का कहना है कि, वो हर चुनाव मे वोट डालते हैं अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं. यह सोच कर की शायद कभी न कभी शासन और प्रशासन की नींद टूटे और उनकी जिन्दगी की मूलभूत जरूरत के लिए कोई आगे आए. अब देखना यह होगा की आखिर कब हुक्मरानों की नींद टूटेगी और वे इन लोगों के लिए कोई पहल करेंगे.

बालोद : जहां एक ओर देश मे शहरों को विकास को गति देने के लिए स्मार्ट सिटी जैसी योजनाएं चल रही हैं. तो वही गांव का विकास मानो रूक सा गया है. गांवों की बदहाली की न जाने कितनी कहानी आपने सुनी होगी, आज हम आपको एक ऐसी बस्ती के बारे में बता रहे हैं, जो आजादी के 72 साल बाद भी विकास की राह में कोसों दूर है.

आजादी के 72 साल बाद भी विकास की राह में कोसों दूर है बालोद जिले का ये गांव

यहां रह रहे लोग रोज कीचड़ से जद्दोजहद कर अपने घर पहुंचते हैं. सोचने वाली बात यह की रास्ते के नाम पर गांववालों के पास एक मात्र यही विकल्प है. न चाहकर भी उन्हें इस बदतर मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है.

परेशानियों का यह सिलसिला आज से नहीं बल्कि लंबे अरसे से चल रहा है. मानव जीवन की सबसे मूलभूत जरूरत पानी की यहां लगातार कमी बनी हुई है. एक बार किसी तरह यहां हैंडपंप लगाया गया, लेकिन इसके बाद भी समस्याओं का हल नहीं हो सका. हैंडपंप से निकलने वाला पानी न तो पीने लायक है और न ही इसका इस्तेमाल किसी और काम में किया जा सकता है. आलम यह है कि, यहां रह रहे लोगों को बरसात के दिनों मे ही गर्मी की चिंता खाए जा रही है.

इन घने जंगलों के बीच 10 से ज्यादा परिवार रहते हैं. यहां रहने वाले ज्यादातर परिवार बांस के पारंपरिक सामान बनाते हैं, जिसमें छत्तीसगढ़ी सूपा, झिंझरी आदि शामिल हैं. यहां ना गलियां हैं और ना ही पक्के घर और न ही 1 साल पहले तक यहां बिजली आई थी. लोग अंधेरे में जीवन यापन करते थे. एक साल पहले लगे यह सोलर सिस्टम भी अब खराब हो चुके हैं.

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इस बस्ती में रहने वाले लोगों का कहना है कि, वो हर चुनाव मे वोट डालते हैं अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं. यह सोच कर की शायद कभी न कभी शासन और प्रशासन की नींद टूटे और उनकी जिन्दगी की मूलभूत जरूरत के लिए कोई आगे आए. अब देखना यह होगा की आखिर कब हुक्मरानों की नींद टूटेगी और वे इन लोगों के लिए कोई पहल करेंगे.

Intro:बालोद।

बालोद ज़िले के गुरुर विकासखंड अंतर्गत ग्राम पंचायत नारागांव के आश्रित ग्राम किनार गोंदी की एक ऐसी बस्ती है जहां के लोगों को वोट देने का भरपूर अधिकार है पर विकास पाने का नहीं इनके हितैषी लोग आते तो हैंपर 5 सालों में एक बार बस्ती में जाने का रास्ता तो ऐसा की कोई इमरजेंसी हो तो एम्बुलेंस भी ना पहुंच पाए इस बस्ती का नाम है नाहर डेरा जहां के लोग आज भी अपेक्षित हैं यहां बड़ी मुश्किल से बिजली पहुंची है पर ना सड़क और ना ही अन्य कोई व्यवस्था।


Body:वीओ विथ रोड - यह रास्ता कोई सामान्य रास्ता नहीं है बल्कि यह कुछ परिवारों की जीवन रेखा है जहां से गुजर कर यह अपने भविष्य की नीति तय करते हैं परंतु आज ना यहां मार्ग सुधरा है और ना ही इन परिवारों की स्थिति यहां इस बस्ती तक पहुंचने के लिए कच्चे रास्ते से होकर जाना पड़ता है जो कि काफी सकरा है शायद इस मार्केट से एंबुलेंस भी ना गुजर पाए और इस मार्ग पर गांव के ठीक पहले एक गड्ढा है जहां से दोपहिया वाहन भी बड़ी मुश्किल से गुजरता है इस तरह मेहनत करके नाहर डेरा नामक इस बस्ती में पहुंचते हैं तो पहुंचने के बाद समस्या यह आती है कि गलियां में चलने के लिए भी रास्ते नहीं हैं अपनी ही गलियों में जान जोखिम में लेकर गुजरना पड़ता है गरीब में चलते वक्त कौन सा जानवर कहां से निकल आए कुछ समझ में ही नहीं आता गलिया तो है ही नहीं केवल बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं और पैदल चलने के लायक कुछ पै डगरी जैसा है।

वीओ - नाहर डेरा के इन निवासियों की जिंदगी बांस की खेती जहां होती है वहां से यह बच्चा बांस लेकर आते हैं उसके बाद उनका पारंपरिक सामान बनाते हैं जिसमें छत्तीसगढ़ी सूपा झिंझरी आदि शामिल हैं इन्हीं से ही इनका जीवन यापन होता है जैसे तैसे ये जीवन जी रहे हैं पर इसमें शासन प्रशासन का कुछ सहयोग हो तो इनका जीवन सुधार सकता है।

वीओ - जब हम इस बस्ती में पहुंचे तो पता चला कि यहां 1 दर्जन से अधिक परिवार घने जंगलों के बीच निवास करते हैं यहां ना गलियां हैं और ना ही पक्के घर और 1 साल पहले ही यहां बिजली आई है इसके पहले लोग अंधेरे में जीवन यापन करते थे प्रशासन द्वारा सोलर सिस्टम लगाया गया था परंतु लगाने के बाद कोई ध्यान नहीं दिया गया बैटरी सबकी खराब हो गई जिससे आज या सोलर सिस्टम महेश देखने के काम ही आता है ग्रामीणों ने बताया कि यहां बिजली तो आई है पर पीने को साफ पानी नहीं मिलता एक बार कराया गया है जहां से लाल पानी निकलता है जो कि पीने योग्य नहीं है और हमें गंभीर बीमारी के घेरे में ले सकता है जहां इन्हें फिल्टर प्लांट लगवाने की आवश्यकता है इसके साथ ही एक अन्य बोर की आवश्यकता है और गलियों में सीमेंट करंट मार्ग की भी आवश्यकता है।


Conclusion:कुछ इस तरह पिछड़ी है इस गांव की कहानी जो कि जीना है तो संघर्ष तो करना ही पड़ेगा 21वी सदी की जब हम कल्पना करते हैं तो हमारे बीच मूलभूत सुविधाओं से भरा पूरा एक गांव नजर आता है परंतु जब इस गांव में पहुंचते हैं तो इस स्थिति ठीक उलट लगती है खुद पर विश्वास ही नहीं होता कि आज के जमाने में भी कुछ ऐसे गांव हैं जो जीवन से संघर्ष कर रहे हैं इस बस्तियों में नियमित जांच के लिए डॉक्टर भी नहीं पहुंचते क्योंकि रिश्ते ही सही नहीं हैं।

बाइट - राजेश कुमार, ग्रामीण

बाइट - राजकुमार मंडावी, ग्रामीण

बाइट - अनुसुइया बेसरा, सरपंच ग्राम पंचायत नारागांव

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