अंबिकापुर: सरगुजा संभाग की 14 सीटों के लिए दूसरे चरण में 17 नवंबर को मतदान है. सरगुजा संभाग की 14 सीटों पर सभी सियासी दलों ने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं. आइए जानते हैं कि हर विधानसभा में क्या समीकरण बन रहे हैं. किस आधार पर प्रत्याशियों को टिकट दिया गया है.
1. भरतपुर सोनहत विधानसभा सीट: गुलाब कमरो वर्तमान में इसी सीट से विधायक हैं. एक बार फिर कांग्रेस ने उन्हें मौका दिया है. गुबाल कमरो आदिवासी समाज से हैं, लेकिन भाजपा ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दी है. यहां से भाजपा ने केन्द्रीय राज्य मंत्री और सांसद रेणुका सिंह को मैदान में उतार दिया है. रेणुका सिंह भी आदिवासी समाज से हैं. पूर्व में विधायक और राज्य सरकार में मंत्री रह चुकी हैं. रेणुका सिंह अनुभवी होने के साथ ही बेहद तेज तर्रार महिला नेता हैं.
गुलाब कमरो भी परिसीमन से पहले मनेन्द्रगढ़ सीट से 2 बार विधायक रह चुके हैं. उनके पास भी अच्छा अनुभव है. परिसीमन के बाद 2008 में अस्तित्व में आई भरतपुर सोनहत सीट पर भाजपा ने कब्जा कर लिया था. यहां 2008 में भाजपा के फूल सिंह, 2013 में भाजपा की चम्पा देवी पावले ने जीत दर्ज की थी, लेकिन साल 2018 में कांग्रेस की आंधी में सभी सीट भाजपा हार गई. यह क्षेत्र मध्यप्रदेश के शहडोल जिले की सीमा से लगता है. यहां की ग्रामीण संस्कृति पर मध्यप्रदेश का खासा प्रभाव देखा जाता है.
बड़ी बात यह है कि इस विधानसभा में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और बसपा का भी अच्छा जनाधार है. साल 2018 में यहां गोंडवाना को 26 हजार और बसपा को 10 हजार के करीब वोट मिले थे, जबकि गुलाब कमरो 51 हजार वोट पाकर महज 16 हजार वोट से ही जीत दर्ज सक सके थे. इस बार भाजपा ने एक गोंड समाज की महिला उम्मीदवार रेणुका सिंह को मैदान में उतार कर गोंडवाना के वोट में भी सेंध लगाने का प्रयास किया है.
2. मनेन्द्रगढ़ विधानसभा सीट: यहां डॉ विनय जायसवाल विधायक हैं, लेकिन कांग्रेस ने इस बार उनकी टिकट काट दी है. कांग्रेस ने नए चेहरे को मौका दिया है. सीनियर एडवोकेट रमेश सिंह को कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया है. रमेश सिंह चरण दास महंत के करीबी माने जाते हैं. काफी सीनियर एडवोकेट हैं, लेकिन सत्ता के खेल में अभी बिल्कुल नए हैं. इधर भाजपा ने इनके खिलाफ पूर्व विधायक श्याम बिहारी जायसवाल को टिकट दी है. श्याम बिहारी जायसवाल को विनय जायसवाल ने 2018 के चुनाव में करीब 4 हजार वोट के अंतर से हाराया था. इस चुनाव में यहां गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जनता कांग्रेस जोगी ने मिलकर करीब 24 हजार वोट पाया था. जबकि साल 2013 में श्याम बिहारी 4 हजार वोट से ही चुनाव जीते थे. उन्होंने कांग्रेस के गुलाब सिंह को हराया था.
इस बार यहां कांग्रेस के बागी विधायक डॉ विनय जायसवाल खेल बिगाड सकते हैं. कांग्रेस के बागी विनय से कांग्रेस को खतरा होना था, लेकिन यहां उल्टा ही समीकरण बन रहा है. दरअसल विनय का जनाधार भाजपा के गढ़ चिरमिरी क्षेत्र में है. उनकी पत्नी यहां से मेयर भी हैं, लिहाजा अगर ये चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा के वोट काटेंगे और इसका फायदा कांग्रेस को हो सकता है. विनय गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से चुनाव लड़ने के मूड में हैं. पिछले आंकड़ों को देखा जाए तो इस विधानसभा में गोंडवाना के करीब 10 से 15 हजार वोट हैं. इसमें अगर डॉ विनय चुनाव लड़ गए तो वो जीतें या हारें लेकिन भाजपा की नैया जरूर डूबा सकते हैं.
3. बैकुंठपुर विधानसभा सीट: 1962 में यह सीट अस्तित्व में आई. यहां से पहला चुनाव प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार ज्वाला प्रसाद ने जीता. 1967 से लगातार दो बार यहां कांग्रेस ने जीत दर्ज की और कोरिया कुमार राम चंद्र सिंहदेव विधायक बने. इस विधानसभा में राजपरिवार का दबदबा रहने के कारण ज्यादातर यहां से कांग्रेस ने जीत दर्ज की है, लेकिन 2018 और 2013 में भाजपा के भैया लाल राजवाड़े ने यहां जीत दर्ज की. इस विधानसभा में राजवार वोट अधिक हैं. बड़ी बात यह है कि यह समाज संगठित होकर मतदान करता है, लेकिन 2018 में राजपरिवार की बेटी अंबिका सिंहदेव ने यह सीट अपने नाम कर ली. प्रदेश में कांग्रेस की लहर थी, लिहाजा भाजपा को हार का सामना करना पड़ा लेकिन इस बार फिर से भाजपा ने भैया लाल राजवाड़े को टिकट दी है और सामने कांग्रेस की अंबिका सिंह हैं.
अब देखना है कि क्या राजपरिवार का वर्चश्व कायम रहेगा या फिर रजवार मतदाता भैया लाल की नौका पार लगाएंगे. दरअसल साल 2013 में भैया लाल महज एक हजार वोट के अंतर से ही चुनाव जीत सके थे और 2018 में कांग्रेस की अंबिका सिंह ने उन्हे करीब साढ़े तीन हजार वोट से चुनाव हराया था, जबकि 17 हजार वोट गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के प्रत्याशी को मिले थे.
4. प्रेमनगर विधानसभा सीट: यह एक अनारक्षित विधानसभा सीट है. लेकिन यहां से राजनैतिक दल आरक्षित वर्ग से प्रत्याशी उतारते रहे हैं और वह जीतते भी आ रहे हैं. यहां एसटी आबादी महज 60 हजार के करीब ही है. लेकिन संगठित मतदान की वजह से अब तक यहां कोई भी सामान्य वर्ग का उम्मीदवार जीत नहीं सका है. इस बार समीकरण त्रिकोणीय बनने की उम्मीद है. डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव के चचेरे भाई विंध्यश्वर शरण सिंहदेव निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं. क्षेत्र के लोग लगातार ओबीसी या जनरल कैंडिडेट की मांग करते रहे हैं. लेकिन इस बार फिर भाजपा और कांग्रेस ने आदिवासी प्रत्याशी को टिकट दिया है.
कांग्रेस ने सिटिंग विधायक खेल साय सिंह को उतारा है, तो भाजपा ने भूलन सिंह मरावी को टिकट दिया है. अब अगर विंध्यश्वर शरण सिंहदेव निर्दलीय मैदान में उतरते हैं, तो उन्हें सवा लाख से अधिक आबादी वाले ओबीसी और जनरल मतदाताओं का साथ मिल सकता है. विंध्यश्वर शरण सिंहदेव सूरजपुर जिले में लगातार कांग्रेस का काम करते रहे हैं. वो और उनके पिता स्वर्गीय यूएस सिंहदेव सूरजपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं. साल 2003 और 2008 में भाजपा की रेणुका सिंह ने 18 हजार और 16 हजार मतों से कांग्रेस को पराजित किया था. लेकिन तब उनके सामने खेल साय सिंह नहीं थे. साल 2018 में कांग्रेस ने दोबारा खेल साय सिंह को मैदान में उतारा और वो भाजपा से 20 हजार वोट से चुनाव जीते. इससे पहले 1990 में खेल साय सिंह यहां से विधायक और 3 बार सरगुजा लोकसभा के सांसद रह चुके हैं.
5. भटगांव विधानसभा सीट: सरगुजा की सबसे नई सीट है भटगांव. यह 2008 से अस्तित्व में आई. पिलखा विधानसभा को परिसीमन में खत्म किया गया और इसका कुछ हिस्सा प्रतापपुर विधानसभा में शामिल हुआ. भटगांव, अम्बिकापुर और सूरजपुर शहर से लगी हुई विधानसभा है. इसका क्षेत्रफल काफी बड़ा है. इसकी सीमाएं मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश से लगती है. क्षेत्र में कोयले की खदाने हैं, इसलिए बाहरी राज्यों के मतदाता भी यहां हैं. मुख्य रूप से इस विधानसभा में राजवार वोट ही भाग्य विधाता होते हैं. इनकी संख्या बेहद अधिक है और ये संगठित मतदान करते हैं. इसके बाद यहां गोंड, कंवर और ओबीसी मतदाता भी हैं.
साल 2008 में अम्बिकापुर शहर के निवासी भाजपा के रवि शंकर त्रिपाठी यहां से पहले विधायक चुने गए. सड़क दुर्घटना में इनकी मौत के बाद उपचुनाव हुआ. इनकी पत्नी रजनी त्रिपाठी उपचुनाव जीत गई. लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहां जातिगत समीकरण को साध लिया और राजवार समाज के पारसनाथ राजवाड़े को मैदान में उतार दिया. पारसनाथ तब से यहां के विधायक हैं. इस बार फिर कांग्रेस ने पारसनाथ को ही उम्मीदवार बनाया है.
इधर भाजपा ने भी जातिगत समीकरण साधने के लिए राजवार समाज से महिला प्रत्याशी उतार दिया है. भाजपा ने लक्ष्मी रजवाड़े को टिकट दी है. इनको टिकट मिलते ही भाजपा संगठन में विरोध के स्वर बुलंद हो चुके हैं. संगठन के लोग काम नहीं कर रहे हैं. अम्बिकापुर शहर के लोगों का इस विधानसभा में खासा प्रभाव रहता है. लेकिन भाग्य विधाता यहां राजवार वोट ही है. अब देखना यह होगा की राजवार समाज किसके साथ खड़ा होता है.
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6. अम्बिकापुर विधानसभा सीट: इस सीट पर कांग्रेस या सरगुजा राजपरिवार या उनके समर्थित लोगों का ही कब्जा रहा है. भाजपा यहां सिर्फ एक बार 2003 में ही जीत दर्ज कर पाई थी. इससे पहले 1977 में इंदिरा विरोधी लहर में जनता पार्टी के उम्मीदवार ने यहां जीत दर्ज की थी. आजादी के बाद सरगुजा महाराज रामानुज शरण सिंहदेव विधायक बनाए गए. यह सीट राजपरिवार या उनके लोगों के पास ही रही. राजमाता देवेन्द्र कुमारी भी अम्बिकापुर से विधायक रहीं और 2008 से अब तक तीन बार टीएस सिंहदेव अम्बिकापुर से विधायक हैं. एक बार फिर कांग्रेस ने टीएस सिंहदेव को ही यहां से उम्मीदवार बनाया है.
टीएस सिंहदेव के खिलाफ प्रत्याशी उतारने में भाजपा को काफी समय लग गया. आखिरकार 25 अक्टूबर को भाजपा ने लखनपुर नगर पंचायत के पूर्व अध्यक्ष राजेश अग्रवाल को टिकट दिया है. राजेश 2017 तक कांग्रेस में ही थे और ट एस सिंहदेव के काफी करीबी माने जाते थे. साल 2017 में उन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली थी.
अम्बिकापुर विधानसभा में शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा शामिल है. जिसमें उरांव मतदाता सहित ओबीसी और जनरल मतदाताओं के साथ मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अधिक है. ग्रामीण क्षेत्र में गोंड, कंवर और राजवार मतदाता भी काफी संख्या में हैं.
अम्बिकापुर विधानसभा में भाजपा मजबूत स्थिति में होने के बाद भी चुनाव नहीं जीत पाती है. इसका कारण यह है कि टीएस सिंहदेव सरगुजा राजपरिवार के हैं और लोगों से उनके व्यक्तिगत पुराने संबंधों के आधार पर लोग उनको वोट करते हैं. लेकिन इस बार भाजपा ने सिंहदेव को उनके गढ़ में ही घेरने का प्रयास किया है.
लखनपुर और उदयपुर का क्षेत्र चुनाव में सिंहदेव को बढ़त दिलाता है. भाजपा ने उनके गढ़ से ही प्रत्याशी मैदान में उतार दिया है. अब अगर राजेश अग्रवाल भाजपा के कोर वोट के साथ लखनपुर क्षेत्र के मतदाताओं को अपनी तरफ लाने में सफल हो जाते हैं, तो हाई प्रोफ़ाइल सीट में डिप्टी सीएम की चिंताएं बढ़ जाएंगी. जितने भी दावेदार भाजपा से टिकट मांग रहे थे, सभी को कमजोर आंका जा रहा था. टीएस सिंहदेव के खिलाफ सबसे मजबूत उम्मीदवार राजेश अग्रवाल को ही माना जा रहा था. इसलिए भाजपा ने उन्हें टिकट भी दी है. अब यहां मामला एकतरफा नहीं होगा, बल्कि अम्बिकापुर में राजेश की एंट्री से यह चुनाव बड़ा ही रोचक होने वाला है.
साल 2013 में कांग्रेस के टी एस सिंहदेव ने 84 हजार 668 वोट हासिल कर जीत दर्ज किया था. दूसरे स्थान पर 65 हजार 110 वोटों के साथ भाजपा के अनुराग सिंह देव रहे. कांग्रेस ने यह चुनाव 19 हजार 558 मतों के अंतर से जीता. 2018 के विधानसभा चुनाव में तीसरी बार वही दोनों प्रत्याशी आमने सामने थे. कांग्रेस के टीएस सिंहदेव ने 39 हजार 624 वोटों से जीत दर्ज की. यहां कांग्रेस के उम्मीदवार को 100439 वोट, वहीं बीजेपी के अनुराग सिंहदेव को 60815 वोट मिले थे.
7. सीतापुर विधानसभा सीट: ये कांग्रेस का अपराजेय किला है. आजादी के बाद से कभी यहां भाजपा नहीं जीत सकी है. यहां उरांव मतदाताओं की संख्या काफी अधिक है और उरांव कांग्रेस के परंपरागत वोटर हैं. इस विधानसभा में कंवर और गोंड भी काफी हैं, लेकिन कांग्रेस की पकड़ ज्यादा मजबूत है. यहां से अमरजीत भगत विधायक हैं. वर्तमान में वे मंत्री हैं. अमरजीत 4 बार लगातार यहां से चुनाव जीत चुके हैं. साल 2018 विधानसभा चुनाव में सीतापुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी अमरजीत भगत को 86670 वोट मिले. जबकि उनके प्रतिद्वंदी भाजपा के प्रोफेसर गोपाल राम को 50 हजार 533 वोट मिले. जेसीसीजे के सेतराम को सिर्फ 2495 वोट मिले. अमरजीत भगत ने 36 हजार 137 वोट के बड़े अंतर से चुनाव जीता था.
इस बार भाजपा ने यहां एक ऐसे युवा को टिकट दिया है, जो क्षेत्र के लोगों के कहने पर सेना की नौकरी छोड़कर यहां आया है. युवाओं का साथ भी इनको मिल रहा है. चुनाव में देशभक्ति समाहित हो चुकी है. पूर्व सैनिक राम कुमार टोप्पो यहां भाजपा के उम्मीदवार हैं. यहां चुनाव मैनेजमेंट कौन बेहतर कर पाता है, इससे जीत और हार का फैसला होगा. दरअसल यहां वोट काटने वाले प्रत्याशियों को मैदान में उतारने का सिलसिला शुरू हो चुका है. सीतापुर क्षेत्र में उरांव समाज की अच्छी पैठ रखने वाले मुन्ना टोप्पो ने आम आदमी पार्टी से नामांकन खरीदा है. कई और चेहरे मैदान में उतारे जा रहे हैं.
8. प्रतापपुर विधानसभा सीट: संभाग की इस सीट पर मतदाता हर बार अपना मत बदल देते हैं. 1985 के चुनाव से यहां हर बार विधायक का चेहरा बदल जाता है. जनता एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा को चुनती है. प्रेम साय सिंह इस सीट से लगातार अंतराल में विधायक रहे हैं. वो कई बार मंत्री भी रहे हैं. इस बार उनके लिए बढ़ती नाराजगी के कारण कांग्रेस ने उन्हे टिकट नहीं दिया. इस बार यहां से कांग्रेस ने जिला पंचायत अध्यक्ष राज कुमारी मरावी को टिकट दी है. वहीं भाजपा ने शकुंतला पोर्ते को टिकट दिया है. शकुंतला सरपंच हैं. कांग्रेस ने रणनीति के तहत एक ऐसी महिला को मैदान में उतारा है, जिसके पास जिला पंचायत चुनाव के जरिए पहले से ही मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है. अब देखना होगा यहां कि जनता अपनी परंपरा के मुताबिक इस बार भी बदलाव करेगी या फिर कांग्रेस की रणनीति का फायदा उसे मिलेगा.
9. लुंड्रा विधानसभा सीट: यह विधानसभा अम्बिकापुर से लगी हुई है. आलम यह है कि नगर निगम अम्बिकापुर के भी कुछ हिस्से इस विधानसभा में आते हैं. यहां भी सरगुजा राजपरिवार की सीधी दखल है. यहां से कांग्रेस के विधायक डॉ प्रीतम राम हैं. एक बार फिर कांग्रेस ने उन्हें मौका दिया है. इसके पहले प्रीतम राम सामरी से विधायक थे, लेकिन 2018 में चिंतामणि सिंह और प्रीतम राम को एक दूसरे की सीट पर बदला गया. दोनों ने ही जीत दर्ज की.
पेशे से डॉक्टर प्रीतम राम आज भी लोगों का इलाज करते रहते हैं. इस विधानसभा में गोंड मतदाता ज्यादा हैं. इसके बाद कंवर और उरांव समाज की संख्या है. भाजपा ने इस बार यहां प्रबोध मींज को प्रत्याशी बनाया है. वह अम्बिकापुर नगर निगम से दो बार मेयर रह चुके हैं और उरांव समाज का होने के कारण कांग्रेस के कोर मतदाताओ में सेंध लगाने में भी सक्षम हैं. इसलिए यहां भी कांग्रेस की राह आसान नहीं है. हालांकि प्रीतम राम का इस क्षेत्र से पुराना नाता है. इनके पिता चमरू राम यहां से 2 बार विधायक रहे हैं. छोटे भाई राम देव राम भी दो बार विधायक रहे हैं और प्रीतम राम एक बार सामरी से और एक बार लुंड्रा से भी दो बार के विधायक हैं.
10. सामरी विधानसभा सीट: यह विधानसभा पूरी तरह वनांचाल और ग्रामीण क्षेत्रों से भरी हुई है. यहां आदिवासी वर्ग में कंवर और गोंड मतदाता सबसे अधिक हैं. तीसरे नंबर पर यहां उरांव समाज के मतदाता हैं. कांग्रेस ने यहां के विधायक चिंतामणि की टिकट काट दी है. यहां से एकदम नए चेहरे विजय पैकरा को मैदान में उतारा है. विजय कंवर समाज से हैं, लिहाजा जातिगत समीकरण को साधने की कोशिश की गई है.
भाजपा ने इस सीट से 2 बार करारी शिकस्त झेल चुके सिद्धनाथ पैकरा की पत्नी उद्धेश्वरी पैकरा को भाजपा ने चेहरा बनाया है. सिद्धनाथ पैकरा 2013 में प्रीतम राम से और 2018 में चिंतामणि सिंह से चुनाव हार चुके हैं. ये भी कंवर समाज से ही हैं. जातिगत जनाधार दोनों ही प्रत्याशियों का बराबर है लेकिन चिंतामणि के बगावती तेवर कांग्रेस का खेल बिगड़ सकते हैं. कांग्रेस ने उन्हे टिकट नहीं दी है और वो बागी हो चुके हैं. उन्होंने तो अम्बिकापुर से टी एस सिंहदेव के खिलाफ भाजपा से टिकट का प्रस्ताव ही रख दिया था. हालांकि उनके मंसूबे कामयाब नहीं हुए लेकिन इसका नुकसान कहीं कांग्रेस को सामरी सीट में ना भुगतना पड़ जाए. यहीं चिंतामणी के पिता गहीरा गुरु का आश्रम है और इनके अनुयाइयों की संख्या भी यहां अधिक है.
11. रामानुजगंज विधानसभा सीट: यह सीट बेहद विवादित और रोचक है. यहां कांग्रेस के 2 बार के विधायक बृहस्पति सिंह को कांग्रेस ने टिकट नहीं दी है और बृहस्पति शुरू में तो बागी हुए लेकिन बाद में शांत बैठ गए हैं. यहां कांग्रेस ने अम्बिकापुर मेयर डॉ अजय तिर्की को टिकट दी है. ये पेशे से डाक्टर हैं और इस क्षेत्र में 15 साल तक सेवा दी है. क्षेत्र में लोगों से इनका अच्छा संबंध है. वर्षों से इन्होंने लोगों का निशुल्क इलाज किया है. स्वभाव से बेहद नर्म व्यक्ति हैं. ये भी प्रीतम राम की तरह राह चलते लोगों का इलाज करते रहते हैं. वहीं भाजपा ने यहां से एक अनुभवी चेहरा रामविचार नेताम को फिर से मैदान में उतार दिया है.
राम विचार 4 बार विधायक, 2 बार मंत्री और राज्य सभा सांसद रह चुके हैं. अच्छा राजनीतिक अनुभव है और काफी तेज तर्रार नेता माने जाते हैं. वहीं इनकी टक्कर सीधे सरल स्वभाव के डॉक्टर से होने जा रही है. इस विधानसभा में भी मामला टक्कर का है लेकिन बृहस्पति सिंह खैरवार समाज से आते हैं और यहां इस समाज की आबादी सबसे अधिक है. इसके बाद गोंड और उरांव मतदाता हैं. नेताम गोंड समाज से तो अजय तिर्की उरांव समाज से आते हैं. अगर यहां बृहस्पति ने बगावत कर दी तो यहां भी बगावत की वजह से कांग्रेस का खेल बिगड़ सकता है.
12. जशपुर विधानसभा सीट: यह सीट जशपुर राजपरिवार के प्रभाव में रही है, लेकिन 2018 के चुनाव में यहां की तीनों सीट पर राजपरिवार का प्रभाव नहीं चल सका या यू कहें की दिलीप सिंह जूदेव के निधन के बाद भाजपा यहां कमजोर पड़ गई. जूदेव हिन्दुत्व की राजनीति करते थे और हमेशा धर्मांतरण के खिलाफ उन्होंने संघर्ष किया. प्रदेश में सबसे अधिक धर्मांतरण जशपुर जिले में ही हुए हैं.
झारखंड बार्डर होने के कारण यहां झारखंड की सियासत भी असर डालती है. इस विधानसभा में उरांव मतदाता ही भाग्य का फैसला करते हैं, जिसमें धर्मांतरण की वजह से दो फाड़ हो चुकी है. ईसाई वर्ग कांग्रेस को वोट करता है जबकि हिन्दू आदिवासी भाजपा को वोट करते हैं, लेकिन 2018 में कांग्रेस दोनों ही समुदाय का वोट लेने में सफल रही.
एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने यहां जातिगत समीकरण को साधने का प्रयास किया है. कांग्रेस ने सिटींग विधायक विनय भगत को टिकट दी है तो भाजपा ने उनके खिलाफ पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष राय मुनी भगत को टिकट दी है. दिलीप सिंह जूदेव के बाद उनके बेटों ने भी सियासत की बागडोर संभाल ली है लेकिन प्रबल प्रताप इस बार बिलासपुर की कोटा विधानसभा से भाजपा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं लिहाजा जशपुर में राजपरिवार काम नहीं कर सकेगा. एक बार फिर कांग्रेस के सामने मजबूत नेत्रत्व की कमी होगी. अब देखना यह होगा की क्या बिना जूदेव परिवार की मदद के भाजपा यहां जीत पाती है या फिर विनय भगत दोबारा विधायक बनेंगे.
13. पत्थलगांव विधानसभा सीट: इस सीट पर कांग्रेस के वयोवृद्ध विधायक राम पुकार सिंह को ही कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया है. राम पुकार सिंह 7 बार विधायक रह चुके हैं. पहला चुनाव इन्होंने 1977 में जीता था. काफी कद्दावर नेता हैं लेकिन भाजपा ने इनको टक्कर देने रायगढ़ की वर्तमान सांसद गोमती साय को मैदान में उतार दिया है. आदिवासी बाहुल्य विधानसभा है लेकिन जातिगत समीकरणों का यहां बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है. चुनाव पार्टी के सिंबल और कैंडिडेट की छवि के आधार पर भी लोग फैसला करेंगे. हालांकि रामपुकार सिंह के पास बड़ा अनुभव है. वह 7 बार विधायक चुने गए हैं. क्षेत्र में उनकी पुरानी और अच्छी पैठ है.
14. कुनकुरी: इस सीट पर भी जशपुर राजपरिवार का प्रभाव रहता था. यहां भी वही समीकरण बैठेगा, जो जशपुर में है. यहां भी उरांव मतदाता ही भाग्य विधाता है. इस जाती मे भी धर्मांतरण के बाद ईसाई बन चुके उरांव हैं, जो कांग्रेस के परंपरागत मतदाता हैं. वहीं दूसरे ओर बड़ी आबादी हिन्दू उरांव समाज की भी है. कांग्रेस से विधायक यूडी मींज को ही कांग्रेस ने चेहरा बनाया है. लेकिन इनके सामने भाजपा ने हिन्दुत्व का कार्ड खेल दिया है और सीनियर लीडर विष्णु देव साय को टिकट दे दी है. विष्णु देव साय पहले विधायक, रायगढ़ सांसद, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री भी रह चुके हैं. यहां हिन्दू बनाम ईसाई होने की उम्मीद है. अगर एसा हुआ, तो यहां भाजपा को फायदा हो सकता है.