कोरबा: गोंडवाना टाइम्स या छत्तीसगढ़ बेरा का विस्तार देश के 18 राज्यों तक हो चुका है. यह घड़ी बेहद खास है. क्योंकि इस घड़ी की सुई दाएं से बाएं घूमती है. जबकि इसके उलट आम लोग जो घड़ी का प्रयोग करते हैं वह बाएं से दाएं घूमती है. इस घड़ी की शुरुआत कोरबा के मानिकपुर से हुई है. अब तक प्रदेश के 18 जिलों में यह घड़ी का प्रसार हो गया है. यह कमाल जिले के आदिवासी वर्ग से आने वाले गणेश मरपच्ची ने किया है. जीवन के एक पड़ाव पर जब समय ने उन्हें धोखा दिया था. तब उन्होंने तय किया की क्यों न समय की दिशा को ही बदल दिया जाए. सामान्य जीवन और दुनिया के अनुसार आदिवासियों की यह घड़ी उल्टी है. लेकिन समय सही बताती है.
घड़ी को तैयार करने का विचार ऐसे आया
आप यह जानकर और हैरान होंगे कि उल्टी दिशा में घूमने के बावजूद दाएं से बाएं (right to left) घूमने वाली यह घड़ी बिल्कुल ठीक समय बताती है. ठीक उसी तरह, जैसा कि समय देखने के लिए किसी भी सामान्य घड़ी का उपयोग किया जाता है. दुनिया की नजर में आदिवासियों की यह घड़ी समय का फासला उल्टी दिशा में घूमकर तय करती है. लेकिन आदिवासी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. उनके अनुसार दुनिया जिस घड़ी को फॉलो कर रही है. वह उल्टी हो सकती है, लेकिन दाएं से बाएं चलने वाली आदिवासियों की घड़ी की दिशा ही वास्तव में सही है. जोकि शाश्वत और प्रकृति के चलने की दिशा भी है. मरपच्ची आगे बताते हैं कि इसके लिए उन्होंने गहरा रिसर्च किया. प्रकृति के नियमों को सूक्ष्मता से जांचने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि प्रकृति कि दिशा वास्तव में 'दाएं से बाएं' हैं ना कि अंग्रेजी घड़ी की दिशा 'बाएं से दाएं' के मुताबिक. मरपच्ची कहते हैं जब किसान हल चलाता है, तब वह खेतों की जुताई दाएं से बाएं करता है. नार वाले पौधों की बेल भी दाएं से बाएं की ओर घूमती है. सनातन काल से महिलाएं चक्की पीसने का काम भी दाएं से बाएं करती हैं. यहां तक कि सांप के कुंडली मारकर बैठने की दिशा भी दाएं से बाएं हैं. नदी में जब बाढ़ आती है तब भंवर के घूमने की दिशा भी दाएं से बाएं हैं. यहां तक कि पृथ्वी जब सूर्य की परिक्रमा करता है. यह दिशा भी दाएं से बाएं है. शादी के फेरे भी दाएं से बाएं ही होते हैं. इसलिए हमने सन 2000 में एक ऐसी घड़ी का आविष्कार किया जिसकी सुइयां दाएं से बाएं घूमे, जो प्रकृति की सही दिशा है.
प्रकृति से मेल खाती है यह सोच
इसी सोच के साथ इस घड़ी का आविष्कार किया. जिसे अब 21 साल हो चुके हैं. जोकि किसी भी सामान में घड़ी की तरह बिल्कुल ठीक समय बताती हैं. आज इस घड़ी की ख्याति पूरे देश में है. देश के 18 राज्यों में इस घड़ी का इस्तेमाल हो रहा है. आदिवासी वर्ग के ज्यादातर लोग अब किसी घड़ी का इस्तेमाल करते हैं. बांकी लोग भी लगातार इस घड़ी के बारे में पूछते हैं. मैं उन्हें उपहार भी देता हूं. जिस घड़ी का उपयोग दुनिया करती है. जो बाएं से दाएं चलती है, वह प्रकृति के दिशा से उल्टी है. इसलिए मेरे लिए वह घड़ी उल्टी है, जबकि हमारे द्वारा बनाई गई घड़ी जो दाएं से बाएं की ओर सफर करती है. वास्तव में यही सीधी और सही दिशा है. जो प्रकृति की दिशा भी है.
आदिवासी दिवस समारोह के प्रदर्शनी में लगाई गई यह घड़ी
जिले में आदिवासी दिवस पर समारोह आयोजित किया जाता है. कोरबा शहर स्थित आदिवासी शक्तिपीठ में हर वर्ष इस दिवस पर इस घड़ी की प्रदर्शनी लगाई जाती है और इसका व्यवसाय भी किया जाता है. कोरबा जिले से ही इस घड़ी का आविष्कार हुआ था. जोकि अब महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में भी प्रचलन में है. घड़ी की डिमांड भी दिनों दिन बढ़ रही है. कोरबा जिले के बाहर भी अभी से इसका निर्माण शुरू हो चुका है.
गोंडवाना बेरा होगा इस घड़ी का नाम !
मरपच्ची यह भी कहते हैं कि इसका नामकरण वह "गोंडवाना बेरा" करना चाहते हैं. चूंकि दुनिया के पांचों महाद्वीप में सबसे पहले गोंडवाना लैंड का ही जिक्र है. देश गोंडवाना धरती पर ही बसा हुआ है. इसलिए इस घड़ी का नाम शाश्वत पुरातन काल से जुड़ा होना चाहिए. इसका नामकरण "गोंडवाना बेरा" किया जाएगा. इसके पेटेंट कराने की प्रक्रिया भी चल रही है. वर्तमान में इस गाड़ी को छत्तीसगढ़ बेरा, गोंडवाना टाइम्स, गोंडवाना समय के नाम से जाना जाता है. आदिवासियों में खासी लोकप्रिय आदिवासी समाज से आने वाले लोगों में यह घड़ी खासी लोकप्रिय है. जिले के आदिवासी इसका उपयोग कर रहे हैं.
हॉलीवुड फिल्म में भी इस तरह की घड़ी का हुआ जिक्र
सन 2008 में रिलीज हुई ऑस्कर विनिंग फिल्म द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन में उल्टी घूमती घड़ी का ज़िक्र है. हालांकि उल्टी घड़ी फिल्म के निर्देशक की कल्पना पर आधारित थी. लेकिन कोरबा के साथ ही कई राज्यों के आदिवासी आज वास्तव में उल्टी दिशा में घूमने वाली घड़ी का उपयोग कर रहे हैं. आदिवासी नेता आम प्रचलन में मौजूदा घड़ी को यूरोप की नकल बताते हैं. जबकि दाएं से बाएं घूमने वाले आदिवासियों के इस घड़ी को वह वास्तव में भारतीय और असली घड़ी कहते हैं. सिंधु घाटी की लिपि भी दाईं से बाईं ओर लिखी जाने वाली लिपि है. ऐसे में इस घड़ी के पीछे पुराना इतिहास और वैज्ञानिक आधार को भी नकारा नहीं जा सकता.
वैज्ञानिकों ने भी आदिवासियों के तर्क को सही बताया
जिला विज्ञान सभा की उपाध्यक्ष और गवर्नमेंट स्कूल के प्रिंसिपल डॉ फरहाना अली का कहना है कि इस घड़ी के निर्माण के पीछे आदिवासी जो तर्क दे रहे हैं. उसका कहीं ना कहीं वैज्ञानिक आधार है. फिर चाहे वह पेड़ों के लताओं की दिशा हो या फिर पृथ्वी की परिक्रमा या अन्य कहीं ना कहीं यह सभी मान्यताएं वैज्ञानिक आधारों से मेल खाती हैं. कुछ समय पहले हमने एक शोध भी किया था. जिसमें पुरानी मान्यताओं और वैज्ञानिक आधारों की तुलना की गई थी. तब भी शोध में हमने पाया था कि चीटियों के अंडे, पीपल के पत्तों से लोग अनुमान लगाते थे कि मानसून कब आने वाला है. यह अनुमान सटीक होता था, तब उनके पास कोई वैज्ञानिक उपकरण नहीं थे. विज्ञान का उतना विकास नहीं हुआ था, लेकिन आज हमें दिशाओं का ज्ञान है. हमारे पास तकनीक है, इसलिए हम वैज्ञानिक तर्कों की बात करते हैं. हालांकि इन सभी बातों पर एक शोध होना चाहिए, यह एक रोचक शोध का विषय है.