जगदलपुरः विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व का प्रमुख आकर्षण का केंद्र रथ परिक्रमा की शुरुआत हो चुकी है. फूलों से सजे चार चक्के के रथ को जगदलपुर और तोकापाल तहसील के 36 गांवों से पहुंचे लगभग 400 ग्रामीण इस रथ को खींचकर परिक्रमा (circumambulation) लगाते हैं. करीब 40 फीट ऊंचे व कई टन वजनी इस रथ को बनाने में सैकड़ों आदिवासी जुटते हैं. महज 20 से 25 दिनों में इस विशालकाय रथ (giant chariot) को तैयार करते हैं. ऐतिहासिक रथ परिक्रमा (Historical Chariot Parikrama) के दौरान रथ पर माई दंतेश्वरी के छत्र (Chhatras of Mai Danteshwari) को विराजमान कराया जाता है.
दरअसल, बस्तर दशहरा कि इस अद्भुत रस्म की शुरुआत 1410 ईसवी में तत्कालीन महाराजा पुरुषोत्तम देव के द्वारा की गई थी. महाराजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथ पुरी जाकर रथपति की उपाधि प्राप्त की थी. जिसके बाद से अब तक यह परंपरा अनवरत इसी तरह चले आ रही है. दशहरे के दौरान देश में एकलौती इस तरह की परंपरा को देखने हर साल सैकड़ों की संख्या में लोग बस्तर पहुंचते हैं. बस्तर के विशेष जानकार हेमंत कश्यप ने बताया कि काकतीय नरेश पुरुषोत्तम देव ने एक बार जगन्नाथपुरी (Jagannathpuri) तक पैदल तीर्थ यात्रा कर मंदिर में स्वर्ण मुद्राएं (gold coins) और स्वर्ण आभूषण (gold jewelery) आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी.
यहां राजा पुरषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित किया गया था. जब राजा पुरषोत्तम देव पूरीधाम से बस्तर लौटे तब उन्होंने धूमधाम से दशहरा उत्सव (Dussehra festival) मनाने की परंपरा का शुभारंभ (start of tradition) किया. तभी से गोंचा पर्व और दशहरा पर्व में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी. बस्तर दशहरा में शारदीय नवरात्रि के दूसरे दिन से सप्तमी तक रथ को खींचने के लिए हर वर्ष बड़ी संख्या में जगदलपुर और तोकापाल तहसील के 36 गांव के ग्रामीण यहां पहुंचते हैं. 1400 ईसवी में राजा पुरुषोत्तम देव द्वारा आरंभ की गई रथ परिक्रमा (chariot circumambulation) की इस रस्म को 600 सालों बाद भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं.
पाट जात्रा रस्म है प्रमुख कार्यक्रम
जानकार हेमंत कश्यप और संजीव पचौरी बताते हैं दशहरा पर्व में रथ बनाने की प्रक्रिया का भी अलग ही महत्व है. इसको बनाने की प्रक्रिया पाट जात्रा रस्म के साथ शुरू होती है और इसके बाद से बस्तर के विशेष गांव झाड़उमर गांव और बेड़ाउमरगांव के ग्रामीण कारीगरों द्वारा ही रथ को बनाया जाता है. दरअसल, बस्तर के तत्कालीन महाराजा रहे पुरुषोत्तम देव ने दशहरा पर्व के दौरान बस्तर के सभी आदिवासियों के विशेष जन-जातियों (tribes) को इस पर्व को संपन्न कराने के लिए अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी थी और आज भी इन विशेष जातियों के आदिवासियों के द्वारा अपने-अपने दायित्व को बखूबी निभाया जाता है.
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हर साल बड़ी तैयारी करते हैं आदिवासी
रथ को बनाने के लिए लगभग 300 आदिवासी कारीगर जुटते हैं और 20 से 25 दिनो में इस विशालकाय रथ को पूरी तरह से तैयार कर लिया जाता है. रथ परिक्रमा की परंपरा भी बस्तर दशहरा में सबसे अलग है. फूल रथ परिक्रमा के दौरान 4 चक्कों का रथ चलाया जाता है. वहीं, विजयदशमी (vijayadashmi) के दिन जहां पूरे देश में रावण का पुतला दहन (Ravana's effigy burning) किया जाता है, वहीं बस्तर में 8 चक्कों का बड़ा रथ चलाया जाता है. विजयदशमी के दिन निभाए जाने वाले इस रस्म को बाहर रैनि रस्म कहा जाता है. इस रथ में मां दंतेश्वरी के छत्र व डोली को विराजमान किया जाता है और कहा जाता है कि रथ परिक्रमा के दौरान स्वयं बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सवार होती है.
बस्तर वासियों को आशीर्वाद देने के लिए और उनके सुख-दुख को सुनने के लिए रथ में बैठ परिक्रमा करती है. यही वजह है कि बस्तर दशहरा के दौरान रथ परिक्रमा का काफी महत्व है और इस रथ परिक्रमा को देखने और मा दंतेश्वरी का आशीर्वाद लेने हर साल हजारों की संख्या में श्रद्धालु देश के कोने-कोने से बस्तर पहुंचते हैं. वहीं, इस वर्ष दशहरा पर्व में रथ परिक्रमा की शुरुआत हो चुकी है और विजयदशमी के दिन 8 चक्कों का विशालकाय रथ की परिक्रमा की जाएगी.