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कारगिल विजय दिवसः जानिए शौर्य की कहानी तोपची प्रेमचंद की जुबानी

कारगिल विजय दिवस के मौके पर ईटीवी भारत आपको मिलाने जा रहा है उस वीर जवान से जिसने दुनिया के सबसे बड़े युद्ध में शामिल होकर पाकिस्तान को धूल चटाई. जानिए शौर्य की कहानी तोपची प्रेमचंद की जुबानी.

जानिए शौर्य की कहानी
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Published : Jul 25, 2020, 1:53 PM IST

कोरबा: इतिहास के सबसे कठिन और दुर्गम युद्ध क्षेत्रों में शामिल कारगिल और यहां मिली जीत पर हर भारतीय नागरिक को आज भी गर्व है. इस युद्ध में भारतीय सेना द्वारा प्रदर्शित अदम्य शौर्य और पराक्रम को याद करने के लिए हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है. इस युद्ध में कोरबा के लाल ने भी अपना अहम योगदान दिया है, जिनका नाम है तोपची प्रेमचंद पांडे. ईटीवी भारत विजय कारगिल दिवस के अवसर पर युद्ध में शामिल हुए सैनिक की जुबानी पूरे कारगिल युद्ध पर विजय की कहानी बताएगा.

भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल में युद्ध शुरू हुआ था. जिसका कारण पाकिस्तानी सैनिकों के साथ ही पाक समर्थित आतंकवादियों का लाइन ऑफ कंट्रोल की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर प्रवेश करना था. पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के कई महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्जा कर लिया था और वह लेह लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली सड़क पर नियंत्रण हासिल कर लेना चाहते थे. सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमजोर कर राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना ही पाकिस्तान का मकसद था. यह युद्ध पूरे 52 दिन चला था, जो कि इतिहास के सबसे लंबे समय तक चले युद्धों में से एक है. इस युद्ध में भारत के 527 से अधिक जवान शहीद हुए थे. वहीं 1300 से ज्यादा घायल हो गए थे.

जानिए शौर्य की कहानी

दिया था फायरिंग सपोर्ट

तोपची प्रेमचंद ने कारगिल युद्ध को याद करते हुए बताया कि उस वक्त वह दो-तीन रेजिमेंट के साथ मास्को घाटी और टाइगर पॉइन्ट पर फायरिंग कर रहे थे. आगे बढ़ने वाले रेजिमेंट को वे फायरिंग सपोर्ट दे रहे थे. यह युद्ध क्षेत्र लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर था. मास्को घाटी और टाइगर हिल में गुमरी पुल पर पाकिस्तानी सेना कब्जा कर लेना चाहती थी. इस पर आर्मी की कई रेजिमेंट ने मिलकर फतह पाई. गुमरी पुल पर कब्जा करना पाकिस्तानी सेना की बड़ी जीत होती. यही एक पुल था जो भारत के लेह लद्दाख को कश्मीर से जोड़ता था, लेकिन भारतीय सेना ने ऐसा नहीं होने दिया था.

जब साथी का शरीर बिखर गया टुकड़ों में

प्रेमचंद आगे कहते हैं कि वह तोप भी चलाया करते थे, इसलिए वह अपने नाम के आगे तोपची शब्द का उपयोग करते हैं. उन्हें उस वक्त बेहद दुख हुआ था, जब उनके तोप के पास एक गोला आकर गिरा और एक साथी हताहत हो गया. गोला गिरने से उनके साथी का शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गया. मैदान में युद्ध कर रहे प्रेमचंद तब महज 19 साल के थे.

पढ़ें-कारगिल विजय दिवसः हंसते-हंसते मर मिटे लांस नायक गणेश प्रसाद

ऐसा युद्ध कभी नहीं हुआ और न कभी होगा

प्रेमचंद कहते हैं कि कारगिल युद्ध दुनिया की सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र के साथ ही सबसे ठंडे वातावरण में लड़ा गया था. ऐसा युद्ध इतिहास में कभी नहीं हुआ. भविष्य में भी ऐसे युद्ध के होने की कोई संभावना नहीं है. उन्होंने बताया कि यह युद्ध मई में शुरू हुआ था, जो लगातार 52 दिनों तक चला. पहले 4 दिन तक तो अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ. पहले 4 दिन बिना खाए-पिए युद्ध लड़ते रहे, जिसके बाद राशन का सामान धीरे-धीरे आना शुरू हुआ. बाद में परिस्थितियां सामान्य होती चली गईं.

यशवंत सिन्हा ने मिलवाया पीएम अटल से

26 जुलाई को युद्ध के समाप्त होने के बाद पाकिस्तानी बंकरों पर भारत का कब्जा हो चुका था. प्रेमचंद आगे बताते हैं कि इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बेहद खुश हुए थे. वह सेना से मिले थे. आगे प्रेमचंद कहते हैं कि तब केंद्रीय मंत्री बाबा यशवंत सिन्हा ने उन्हें अटल जी से मिलवाया था. अटल बिहारी वाजपेयी ने गर्मजोशी से सेना के जवानों का स्वागत किया और उन्हें शाबाशी दी थी.

पढ़ें- कारगिल : 31 वर्ष के प्रभुराम चोटिया ने दिया सर्वोच्च बलिदान, बेटे का ख्वाब- आईएएस

भारत माता की सेवा का यही बड़ा सम्मान

प्रेमचंद कहते हैं कि एक सैनिक हमेशा सैनिक ही होता है. उन्होंने बताया कि वह 2013 में हवलदार के पोस्ट से सेना से रिटायर हुए थे. इसके बाद से वह कोरबा में रहते हैं. इसी दरम्यान उनकी जिले में ही पदस्थ एक कलेक्टर से तल्खियों ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं. इसका कारण बताते हुए प्रेमचंद ने कहा कि कलेक्टर ने राज्यपाल के पत्र की अवमानना की थी, जो उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. बात भावना और सम्मान की थी, इसलिए अनशन पर बैठ गए थे. आगे प्रेमचंद ने कहा कि सैनिक किसी से कोई मांग नहीं करता. देश सेवा ही सर्वोपरि होती है. मुझे भारत माता की सेवा करने का अवसर मिला है यही मेरे लिए बड़ा सम्मान है.

कोरबा: इतिहास के सबसे कठिन और दुर्गम युद्ध क्षेत्रों में शामिल कारगिल और यहां मिली जीत पर हर भारतीय नागरिक को आज भी गर्व है. इस युद्ध में भारतीय सेना द्वारा प्रदर्शित अदम्य शौर्य और पराक्रम को याद करने के लिए हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है. इस युद्ध में कोरबा के लाल ने भी अपना अहम योगदान दिया है, जिनका नाम है तोपची प्रेमचंद पांडे. ईटीवी भारत विजय कारगिल दिवस के अवसर पर युद्ध में शामिल हुए सैनिक की जुबानी पूरे कारगिल युद्ध पर विजय की कहानी बताएगा.

भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 में मई के महीने में कश्मीर के कारगिल में युद्ध शुरू हुआ था. जिसका कारण पाकिस्तानी सैनिकों के साथ ही पाक समर्थित आतंकवादियों का लाइन ऑफ कंट्रोल की वास्तविक नियंत्रण रेखा के भीतर प्रवेश करना था. पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के कई महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्जा कर लिया था और वह लेह लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली सड़क पर नियंत्रण हासिल कर लेना चाहते थे. सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की स्थिति को कमजोर कर राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा करना ही पाकिस्तान का मकसद था. यह युद्ध पूरे 52 दिन चला था, जो कि इतिहास के सबसे लंबे समय तक चले युद्धों में से एक है. इस युद्ध में भारत के 527 से अधिक जवान शहीद हुए थे. वहीं 1300 से ज्यादा घायल हो गए थे.

जानिए शौर्य की कहानी

दिया था फायरिंग सपोर्ट

तोपची प्रेमचंद ने कारगिल युद्ध को याद करते हुए बताया कि उस वक्त वह दो-तीन रेजिमेंट के साथ मास्को घाटी और टाइगर पॉइन्ट पर फायरिंग कर रहे थे. आगे बढ़ने वाले रेजिमेंट को वे फायरिंग सपोर्ट दे रहे थे. यह युद्ध क्षेत्र लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर था. मास्को घाटी और टाइगर हिल में गुमरी पुल पर पाकिस्तानी सेना कब्जा कर लेना चाहती थी. इस पर आर्मी की कई रेजिमेंट ने मिलकर फतह पाई. गुमरी पुल पर कब्जा करना पाकिस्तानी सेना की बड़ी जीत होती. यही एक पुल था जो भारत के लेह लद्दाख को कश्मीर से जोड़ता था, लेकिन भारतीय सेना ने ऐसा नहीं होने दिया था.

जब साथी का शरीर बिखर गया टुकड़ों में

प्रेमचंद आगे कहते हैं कि वह तोप भी चलाया करते थे, इसलिए वह अपने नाम के आगे तोपची शब्द का उपयोग करते हैं. उन्हें उस वक्त बेहद दुख हुआ था, जब उनके तोप के पास एक गोला आकर गिरा और एक साथी हताहत हो गया. गोला गिरने से उनके साथी का शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गया. मैदान में युद्ध कर रहे प्रेमचंद तब महज 19 साल के थे.

पढ़ें-कारगिल विजय दिवसः हंसते-हंसते मर मिटे लांस नायक गणेश प्रसाद

ऐसा युद्ध कभी नहीं हुआ और न कभी होगा

प्रेमचंद कहते हैं कि कारगिल युद्ध दुनिया की सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र के साथ ही सबसे ठंडे वातावरण में लड़ा गया था. ऐसा युद्ध इतिहास में कभी नहीं हुआ. भविष्य में भी ऐसे युद्ध के होने की कोई संभावना नहीं है. उन्होंने बताया कि यह युद्ध मई में शुरू हुआ था, जो लगातार 52 दिनों तक चला. पहले 4 दिन तक तो अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ. पहले 4 दिन बिना खाए-पिए युद्ध लड़ते रहे, जिसके बाद राशन का सामान धीरे-धीरे आना शुरू हुआ. बाद में परिस्थितियां सामान्य होती चली गईं.

यशवंत सिन्हा ने मिलवाया पीएम अटल से

26 जुलाई को युद्ध के समाप्त होने के बाद पाकिस्तानी बंकरों पर भारत का कब्जा हो चुका था. प्रेमचंद आगे बताते हैं कि इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बेहद खुश हुए थे. वह सेना से मिले थे. आगे प्रेमचंद कहते हैं कि तब केंद्रीय मंत्री बाबा यशवंत सिन्हा ने उन्हें अटल जी से मिलवाया था. अटल बिहारी वाजपेयी ने गर्मजोशी से सेना के जवानों का स्वागत किया और उन्हें शाबाशी दी थी.

पढ़ें- कारगिल : 31 वर्ष के प्रभुराम चोटिया ने दिया सर्वोच्च बलिदान, बेटे का ख्वाब- आईएएस

भारत माता की सेवा का यही बड़ा सम्मान

प्रेमचंद कहते हैं कि एक सैनिक हमेशा सैनिक ही होता है. उन्होंने बताया कि वह 2013 में हवलदार के पोस्ट से सेना से रिटायर हुए थे. इसके बाद से वह कोरबा में रहते हैं. इसी दरम्यान उनकी जिले में ही पदस्थ एक कलेक्टर से तल्खियों ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं. इसका कारण बताते हुए प्रेमचंद ने कहा कि कलेक्टर ने राज्यपाल के पत्र की अवमानना की थी, जो उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. बात भावना और सम्मान की थी, इसलिए अनशन पर बैठ गए थे. आगे प्रेमचंद ने कहा कि सैनिक किसी से कोई मांग नहीं करता. देश सेवा ही सर्वोपरि होती है. मुझे भारत माता की सेवा करने का अवसर मिला है यही मेरे लिए बड़ा सम्मान है.

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