मुंबई : श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा और केतन मेहता जैसे दिग्गजों ने समानांतर सिनेमा की ऐसी धारा प्रवाहित की थी. जिसके अंतर्गत समाज में फैली कुरीतियां, जातिगत भेदभाव और वर्ग भेद जैसी बुराइयों पर सिनेमा के माध्यम से कड़ा प्रहार किया था.
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समय के साथ-साथ यह प्रभाव खंडित होने लगा. बीच-बीच में इक्का-दुक्का फिल्में आ जाती थी मगर सही मायनों का समानांतर सिनेमा तकरीबन नहीं के बराबर रह गया था. उसी धारा को आगे बढ़ाते हुए अनुभव सिंहा आगे ले जाते हैं मगर उनका अपना अंदाज है. वह बात तो बुराइयों की ही करते हैं, उस पर प्रहार भी करते हैं मगर उनका अंदाज कमर्शियल है. उनके सिनेमा को हम कमर्शियल पैरेलल सिनेमा कह सकते हैं. शायद उनका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों तक संदेश पहुंचाना हो.
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भारतीय संविधान के तहत आर्टिकल 15 एक ऐसा कानून है, जो भारत के तमाम नागरिकों को किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाने का अधिकार देता है. इसी के इर्द-गिर्द अनुभव सिन्हा ने अपनी कहानी को बुना है. आईपीएस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) को मध्यप्रदेश के लालगांव पुलिस स्टेशन का चार्ज दिया जाता है. यूरोप से हायर स्टडीज करके लौटा अयान इस इलाके में आकर बहुत उत्सुक है, मगर अपनी प्रेमिका अदिति (ईशा तलवार) से मेसेजेस पर बात करते हुए वह बता देता है कि उस इलाके में एक अलग ही दुनिया बसती है, जो शहरी जीवन से मेल नहीं खाती.
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अभी वह वहां के माहौल को सही तरह से समझ भी नहीं पाया था कि उसे खबर मिलती है कि वहां की फैक्टरी में काम करनेवाली तीन दलित लड़कियां गायब हैं, मगर उनकी एफआरआई दर्ज नहीं की गई है. उस पुलिस स्टेशन में काम करनेवाले मनोज पाहवा और कुमुद मिश्रा उसे बताते हैं कि इन लोगों के यहां ऐसा ही होता है. लड़कियां घर से भाग जाती हैं, फिर वापस आ जाती हैं और कई बार इनके माता-पिता ऑनर किलिंग के तहत इन्हें मार कर लटका देते हैं.
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दलित लड़की गौरा (सयानी गुप्ता) और गांव वालों की हलचल और बातों से अयान को अंदाजा हो जाता है कि सच्चाई कुछ और है. वह जब उसकी तह में जाने की कोशिश करता है, तो उसे जातिवाद के नाम पर फैलाई गई एक ऐसी दलदल नजर आती है, जिसमें राज्य के मंत्री से लेकर थाने का संतरी तक शामिल है.
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अयान पर गैंग रेप के इस दिल दहला देनेवाले केस को ऑनर किलिंग का जामा पहनकर केस खोज करने के लिए दबाव डाला जाता है, मगर अयान इस सामाजिक विषमता के क्रूर और गंदे चेहरे को बेनकाब करने के लिए कटिबद्ध है. निर्देशक अनुभव सिन्हा के निर्देशन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने जातिवाद के इस घिनौने रूप को थ्रिलर अंदाज में पेश किया और जब कहानी की परतें खुलने लगती है, तो दिल दहल जाने के साथ आप बुरी तरह चौंक जाते हैं कि इन तथाकथित सभ्य, परिवारप्रेमी और सफेदपोश किरदारों का असली रूप क्या है?
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फिल्म का वह दृश्य झकझोर देनेवाला है, जब अयान को पता चलता है कि मात्र तीन रुपये ज्यादा दिहाड़ी मांगने पर लड़कियों को रेप कर मार दिया गया. फिल्म में द्रवित कर देनेवाले ऐसी कई दृश्य हैं. निर्देशक ने फिल्म को हर तरह से रियलिस्टिक रखा है. इवान मुलिगन की सिनेमटोग्राफी में फिल्माए गए कुछ दृश्य आपको विचलित कर देते हैं.
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मुंह अंधेरे फांसी देकर पेट पर लटकाई गई लड़कियों वाला दृश्य हो या फिर मजदूर द्वारा नाले के अंदर जाकर सफाई करनेवाला दृश्य. निर्देशन और सिनेमटोग्राफी की तरह दिल में घाव करनेवाले डायलॉग भी कम चुटीले नहीं हैं. दलित नेता जीशान अयूब का संवाद ' ये उस किताब को नहीं चलने देते जिसकी शपथ लेते हैं. इस पर आयुष्मान कहते हैं 'यही तो लड़ाई है उस किताब की चलानी पड़ेगी उसी से चलेगा ये देश.'
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बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं. मंगेश धाकड़े का संगीत प्रभावशाली है. समर्थ कलाकारों का अभिनय फिल्म का आधार स्तंभ है. एक हैंडसम, निर्भय और फर्ज को लेकर कटिबद्ध पुलिस अधिकारी के रूप में आयुष्मान खुराना ने करियर के इस पायदान पर बेहतरीन अभिनय किया है. उनके अभिनय की विशेषता रही है कि उन्होंने इसे कहीं भी ओवर द टॉप नहीं होने दिया.
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अपने किरदार को बहुत ही खूबसूरती से अंडरप्ले किया है. गौरा के रूप में सयानी गुप्ता ने शानदार अभिनय किया है. जीशान अयूब छोटे से रोल के बावजूद असर छोड़ जाते हैं. मनोज पाहवा और कुमुद मिश्रा का अभिनय लाजवाब है. किशोरी अमली का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री ने सहज अभिनय किया है. ईशा तलवार को स्क्रीन स्पेस कम मिला है, मगर उन्होंने अपनी भूमिका के साथ इंसाफ किया है. समाज को आईना दिखानेवाली इस रियलिस्टिक और थ्रिलर फिल्म को आप जरूर देखें.