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HC ने खारिज की गर्भपात की अर्जी, कहा- गर्भ में पल रहे बच्चे का भी जीवन होता है - केरल हाई कोर्ट

केरल हाई कोर्ट ने एक गर्भवती महिला की 31 सप्ताह की गर्भावस्था को खत्म करने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया. साथ ही कोर्ट ने कहा कि गर्भ में पल रहे बच्चे से मां के जीवन या स्वास्थ्य के लिए कोई खतरा नहीं है तो मां को अजन्मे बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के लिए रास्ता देना होगा.

केरल हाई कोर्ट
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Published : Sep 4, 2021, 4:02 PM IST

तिरुवनंतपुरम : केरल हाई कोर्ट ने 31 सप्ताह की गर्भावस्था को खत्म करने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए कहा कि गर्भ में पल रहे बच्चे का जीवन उस अवस्था से है जब वह भ्रूण में बदला था और एक अजन्मे बच्चे के साथ जन्म लेने वाले बच्चे से अलग व्यवहार करने का कोई कारण नहीं है.

अदालत ने कहा कि कि मेडिकल बोर्ड के अनुसार अगर भ्रूण में पाई गई असामान्यताएं घातक नहीं हैं और मां के जीवन या स्वास्थ्य के लिए कोई खतरा नहीं है तो मां को अजन्मे बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के लिए रास्ता देना होगा.

न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि एक अजन्मे बच्चे के अपने अधिकार होते हैं और अजन्मे के अधिकारों को कानून द्वारा मान्यता दी जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं है, अगर एक अजन्मे बच्चे को एक व्यक्ति के रूप में माना जा सकता है, तो अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की बराबरी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मां के मौलिक अधिकार से की जा सकती है.

दरअसल, 31 सप्ताह की गर्भवती महिला ने अदालत से अनुरोध किया था कि उसे गर्भपात कराने की अनुमति दी जाए.

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट की योजना यह है कि गर्भावस्था को 20 सप्ताह के बाद चिकित्सकीय रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता है, भले ही धारा 3 (2) में उल्लिखित परिस्थितियां मौजूद हों.

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताएं पाई गई हैं, लेकिन प्रतिवादियों ने गर्भावस्था को समाप्त करने से इनकार कर दिया, क्योंकि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 के प्रावधानों के संदर्भ में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए निर्धारित अधिकतम सीमा समाप्त हो गई है.

तिरुवनंतपुरम : केरल हाई कोर्ट ने 31 सप्ताह की गर्भावस्था को खत्म करने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए कहा कि गर्भ में पल रहे बच्चे का जीवन उस अवस्था से है जब वह भ्रूण में बदला था और एक अजन्मे बच्चे के साथ जन्म लेने वाले बच्चे से अलग व्यवहार करने का कोई कारण नहीं है.

अदालत ने कहा कि कि मेडिकल बोर्ड के अनुसार अगर भ्रूण में पाई गई असामान्यताएं घातक नहीं हैं और मां के जीवन या स्वास्थ्य के लिए कोई खतरा नहीं है तो मां को अजन्मे बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के लिए रास्ता देना होगा.

न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि एक अजन्मे बच्चे के अपने अधिकार होते हैं और अजन्मे के अधिकारों को कानून द्वारा मान्यता दी जाती है. इसमें कोई संदेह नहीं है, अगर एक अजन्मे बच्चे को एक व्यक्ति के रूप में माना जा सकता है, तो अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की बराबरी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मां के मौलिक अधिकार से की जा सकती है.

दरअसल, 31 सप्ताह की गर्भवती महिला ने अदालत से अनुरोध किया था कि उसे गर्भपात कराने की अनुमति दी जाए.

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट की योजना यह है कि गर्भावस्था को 20 सप्ताह के बाद चिकित्सकीय रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता है, भले ही धारा 3 (2) में उल्लिखित परिस्थितियां मौजूद हों.

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताएं पाई गई हैं, लेकिन प्रतिवादियों ने गर्भावस्था को समाप्त करने से इनकार कर दिया, क्योंकि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 के प्रावधानों के संदर्भ में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए निर्धारित अधिकतम सीमा समाप्त हो गई है.

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