नई दिल्ली: आपने बचपन में दादा दादी की कहानी और बाल पत्रिकाएं जरूर पढ़ी होंगी. इनमें चाचा चौधरी, नंदन, चम्पक, पंचतंत्र की कहानियां आदि मुख्य बाल साहित्य रहे हैं. लेकिन आजकल बच्चों के हाथ में किताबों के बजाय मोबाइल और टैब आ गए हैं. इसकी लत बच्चों को उलझा रही है. यहां फंस कर बच्चे उस साहित्य को तो तकरीबन हाथ भी नहीं लगा रहे जो उनका भविष्य संवारने की दिशा की रोशनी थी. लिहाजा ऐसा बाल साहित्य रचा जाना और बेचा जाना भी अब कम हो गया है.
मशहूर बाल साहित्यकार डॉ. मधु पंत (Dr Madhu Pant) का कहना है कि बच्चे अपने खाली और पढ़ने वाले समय में से एक हिस्सा डिजिटल डिवाइस पर स्वाहा कर रहे हैं. बता दें कि मधु पंत दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय बाल भवन में करीब 17 वर्षों तक निदेशक रही. इस दौरान उन्होंने बच्चों में सृजनशीलता और नवाचारी शिक्षण के विकास को ध्यान में रख कर अनेक विशेष योजनाओं का सूत्रपात किया. साहित्य अकादमी में आयोजित साहित्योत्सव के दौरान मधु पंत से किए गए विशेष बातचीत के अंश
सवाल: आजकल बच्चों के हाथ में किताबों के बजाय मोबाइल और टैब आ गए हैं. इससे बाल साहित्य को कितान नुक्सान?जवाब: चुनौतियां तो अनेक हैं, वर्तमान में बच्चों का बड़ा समूह मोबाइल के मोह से पीड़ित है. उनको लगने लगा है कि पूरी दुनिया इसके इर्द गिर्द है और कहीं नहीं. यह बच्चों के भविष्य के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन उससे बड़ी चुनौती बाल साहित्यकारों, प्रकाशकों, माता-पिता, शिक्षकों, विद्यालयों और नीति निर्धारकों के लिए है. इसमें विशेष रूप से पॉलिसी मेकर्स को ध्यान देने की जरुरत है. उनको विचार करना चाहिए कि वह स्कूली किताबों के साथ बच्चों को साहित्यिक किताबों से किस तरह जोड़ सकते हैं? इससे बच्चों के अंदर संज्ञान, भाषा की स्पष्टता, रचनात्मकता, साहित्यकार के गुण आदि का विकास होगा.
बच्चों को दोष देना बिल्कुल निरर्थक है. बल्कि माता पिता और बड़ों को विचार करने की जरुरत है. बच्चे तो वही करेंगे, जो वह अपने आसपास देखेंगे. बच्चों को इस प्रलोभन से मुक्त करते की जिम्मेदारी माता पिता और एक अच्छे साहित्यकार की है. अगर बच्चों के लिए आकर्षक साहित्य प्रकाशिक नहीं होंगे, या स्टोरी टेलिंग के माध्यम से बच्चों को साहित्य के प्रति आकर्षित नहीं किया जाएगा, तब तक बच्चों के ऊपर मोबाइल का जाल मंडराता रहेगा। इसमें सुधार लाने की प्रमुख जिम्मेदारी बड़ों की है.
सवाल: बाल साहित्य लिखने से पहले उनकी भाषा और जज्बातों को अपनी कहानियों और कविताओं में कैसे उतारती हैं?
जवाब: मैं अपने हर बाल साहित्य को लिखने से पहले बच्चों से मिलती हूं. इसमें विषय चयन से लेकर साहित्य पूरा होने के बाद उसको बच्चों के साथ बैठ कर पढ़ती भी हूं. उनके मनोभावों को देखने के बाद उसमे संशोधन और परिवर्तन भी करती हूं. ये प्रक्रिया लगातार जारी रहती है क्योंकि जब तक हम खुद को बच्चा नहीं बनाएंगे या बच्चों और बाल साहित्यकारों के बीच एक मजबूत सेतु का निर्माण नहीं होगा, तब तक हम बच्चों के लिए अच्छे साहित्य को नहीं लिख पाएंगे.
एक बाल साहित्यकार को बच्चों के मनोविज्ञान, मनोस्थिति, समस्याओं और उनकी चुनौतियों से रुबरु होना बेहद जरुरी है.कॉम्पिटिशन के दौड़ में बच्चों के ऊपर सब से ज्यादा दबाव है. उनके ऊपर आगे बढ़ने का दबाव है, माता पिता की उमीदों का दबाव है, पर्यावरण का दबाव है, स्कूल का दबाव है, आगे बढ़कर कुछ बनने और पैसा कमाने का दबाव है. ऐसे में बच्चों को इन सभी दबाव से निकाल कर उसके बचपन को विद्यमान करने की जरुरत है. इन सभी बातों को ध्यान में रखकर मैं लिखना शुरू करती हूं. कोशिश करती हूं उनको पसंद आने वाले साहित्य को ही लिखूं.
सवाल: आज कल हर क्षेत्र में अंग्रेजी का चलन ज्यादा है. ऐसे में हिंदी बाल साहित्य को किस तरह के बदलाव की जरुरत है? या अंग्रेजी के सामने हिंदी बाल साहित्य अपने आप को कहां खड़ा देखता है?
जवाब: देखिए, बच्चों की आंखों पर अंग्रेजी का चश्मा लगाने का श्रेय भी हम सभी को जाता है और हम में कौन आते हैं माता-पिता, शिक्षक, स्कूल, पॉलिसी मेकर्स और सरकार. अगर हर क्षेत्र में अंग्रेजी की संभावनाओं को विशाल रूप देंगे और हिंदी को गौण सिद्ध करेंगे, तो बच्चों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह हिंदी पढ़ेगा. मैंने कई विद्यालयों की दीवारों पर पढ़ा है कि हिंदी में बात करना मना है. इसको देख कर मैं बहुत आहत होती हूं. कई बड़े बड़े विद्यालयों में जहां हिंदी को प्राथमिकता दी जाती है, वह अंग्रेजी को तो अंग्रजी में पढ़ाया ही जाता है लेकिन हिंदी को भी अंग्रेजी में पढ़ाया जाता हैं. ये त्रासदी है हमारी मातृ भाषा की.
इस त्रासदी का निवारण भी बड़े ही कर सकते हैं. अगर इसका निवारण हो जाएगा, तो हिंदी बाल साहित्य अपने आप बच्चों के मन में जगह बना लेगा. जहां तक बात है हिंदी बाल साहित्य को किस तरह के बदलाव की तो वह अपने आप में ठीक है. बस इसको बच्चों तक पहुंचाने की जरूरत है. इसका श्रेय भी बड़ों को ही जाता है. अगर माता पिता और शिक्षक बच्चों को हिंदी साहित्य और भाषा से जोड़ेंगे, तो हिंदी बाल साहित्य के भविष्य को कोई खतरा नहीं होगा.
सवाल: हम लोगों ने बचपन में चम्पक, चाचा चौधरी, नंदन जैसी पत्रिकाओं को बड़े चाव से पढ़ा. वर्तमान के आधुनिक दौर को देखते हुए अब किस तरह का बाल साहित्य लिखा जाना चाहिए?
जवाब: बाल साहित्य तो लगातार लिखा जा रहा है, लेकिन पहले जो बाल पत्रिकाएं आती थी उनमें से बहुत तो छपनी ही बंद हो गयी है. जहां तक मुझे जानकारी है वर्तमान में सरकार की बाल भारती और नंदन ये दो पत्रिकाएं अभी भी प्रकाशित हो रही हैं. इसके अलावा अंग्रेजी की कई पत्रिकाएं आती हैं। पहले अखबारों और पत्रिकाओं में बच्चों के लिए एक विशेष कॉलम आता था वह भी बंद हो गया. वर्तमान समय के बच्चों के लिए किस तरह का साहित्य लिखा जाये इसके लिए बच्चों तक पहुंचने की जरुरत है. मैं खुद इस बात से परेशान हूं कि बच्चों तक कैसे पहुंचा जाये? क्योंकि सूचना क्रांति के दौर ने बच्चों को लेखकों से बहुत दूर कर दिया है. इसको देखते हुए सभी बाल साहित्यकार अत्यंत शोकाकुल हैं.
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सवाल: आपके मन में यह विचार कहां से आया कि एक बाल साहित्यकार बनना है?
जवाब: मैंने अपने जीवन के कई वर्ष तक बच्चों के साथ और उनके लिए काम किया. ऐसे में बाल साहित्यकार बनाना स्वभाविक है. लिखने की रूचि तो बचपन से थी कई अन्य साहित्य भी लिखे. ये रुचि तब जागृत हुई, जब मैं दिल्ली के राष्ट्रीय बाल भवन में करीब 17 वर्षों तक निदेशक के पद पर रही. इस दौरान मैं बच्चों से काफी रूबरू हुई. बच्चों के लिए नई योजनाएं बनाई. इस काम के दौरान बहुत अच्छे अनुभव किये और बेहद आनंद आया. कहें तो जीवन का सारा सुख वहीं पाया.
उस दौरान बच्चों ने मेरे अंदर एक नई ऊर्जा जागृत की. उस दौरान बच्चों ने मुझसे अनगिनत विषयों पर सवाल किये और उन्ही सवालों पर मैंने अपनी रचनाओं को लिखा. बच्चों के सवाल हैरान कर देने वाले होते थे. वह मुझसे पूछते थे उल्लू को काला चश्मा क्यों चाहिए? सांप को चप्पल क्यों चाहिए? मछली को छाता क्यों चाहिए? सुई की शादी क्यों हो गयी? अगर गाय अंडे देगी तो क्या होगा? अगर घरों में पहिये लग जाएं तो क्या होगा? तो ये सवाल जो बिलकुल निराले और अचंबित करने वाले थे. सवालों ने मेरे अंदर बाल साहित्य लिखने की कला का सर्जन किया.
बता दें कि डॉ. मधु पंत को बाल-केंद्रित विज्ञान लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया है. उनकी प्रेरणादायी फिल्म ‘विज्ञान क्या है?’ के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय एन.एच.के. अवार्ड तथा नार्वे के पर्यावरण सम्मेलन में उनकी कविता ‘पानी की कहानी’ के लिए पहला पुरस्कार प्रदान किया गया.