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खास होती है उत्तराखंड की दिवाली, यहां भैलों के साथ लगता है मंडाण, जमकर मनता है जश्न

चीड़ की लकड़ी से तैयार किया जाता है भैलों, रंगारग कार्यक्रमों से साथ मनाई जाती है दिवाली

BHAILO IN UTTARAKHAND
खास होती है उत्तराखंड की दिवाली (ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Oct 31, 2024, 5:43 PM IST

देहरादून: देशभर में आज दिवाली की धूम है. दिवाली रोशनी का त्योहार है. कहा जाता है कि भगवान राम के वनवास से आगमन के बाद अयोध्या में दीपोत्सव हुआ था, जिसके कारण देशभर में दीपावली मनाई जाती है. आज के दौर में दीपावली दीपोत्सव न होकर हो-हल्ले से जुड़ा त्योहार हो गया है. इस दिन का आजकल दीपोत्सव से ज्यादा बम-पटाखे फोड़ने के लिए इंतजार किया जाता है लेकिन बात अगर उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों की करें तो यहां दीपोत्सव के साथ ही जश्न का अलग तरीका है. यहां के पर्वतीय अंचलों में दीपावली (बग्वाल) के दिन भैलों खेला जाता है.

भैलों खेलने की पहाड़ों में अपनी पुरानी परंपरा है. भैलों खेलने से पर्यावरण प्रदूषण नहीं होता, न ही जानवरों को कोई नुकसान होता है. साथ ही भैलों के जरिये कोई अनावश्यक शोर भी नहीं होता. एक तौर पर कहें तो भैलों एक तरह से ईको फ्रेडली दीपावली मनाने की सही तरीका है. पहाड़ो में भैलों के साथ मंडाण लगाया जाता है. मंडाण देवी देवताओं के आह्वान से जुड़ा होता है.

क्या होता है भैलों: उत्तराखंड में पुराने समय से ही दिवाली या बग्वाल मनाने के लिए भैलों का इस्तेमाल किया जाता है. भैलों को चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है. चीड़ की लकड़ी काफी ज्वलनशील होती है. इसकी लकड़ियों के छिल्लों को जमा कर बांध दिया जाता है. दीपावली के दिन सबसे पहले भैलों की पूजा अर्चना की जाती है. इसके बाद उसका तिलक किया जाता है. भैलों की पूजा के बाद घर आए मेहमानों, आगंतुकों के साथ भोजन किया जाता है. उसके बाद सभी ग्रामीण वाद्य यंत्रों के साथ गांव में जाकर भैलों खेलते हैं. इसके बाद इसे लीसा या मिट्टी का तेल डालकर जलाया जाता है. फिर चारों ओर घुमाया जाता है. इस दौरान गीत संगीत कार्यक्रम भी होता है. पहाड़ों में भैलों खेलने की परंपरा काफी पुरानी है. हालांकि, अब ये पुरानी परंपरा खाली होते गांवों के साथ ही खत्म होती जा रही है.

पहाड़ी क्षेत्रों में भैलों का क्रेज: पहाड़ी क्षेत्रों में अलग ही अंदाज में दिवाली मनाई जाती है. यहां पटाखों से अधिक भैलों का क्रेज होता है. पहाड़ों पर दीपावली से पहले घरों की सफाई, लिपाई, पुताई की जाती है. दीपावली के दिन लोगों ने स्थानीय दाल के पकोड़े, गहत से भरी पूरी बनाई जाती है. इसके बाद घरों में पूजा अर्चना कर सुख समृद्धि की कामना की जाती है. फिर सभी एक दूसरों के घरों में जाकर पकवानों का आदान-प्रदान करते हैं. देर शाम को सभी एकत्रित होकर भैलों खेलते हैं.

पढे़ं-

  1. उत्तराखंड में यहां एक महीने बाद मनाई जाएगी दिवाली, जानिए वजह और परंपरा
  2. दिवाली पर दीयों से जगमग हुआ केदारनाथ, धूमधाम से मना दीपोत्सव, भक्ति में झूमते दिखे श्रद्धालु
  3. बदरीनाथ में मनाई गई भव्य दिवाली, दीपोत्सव के साथ जगमग हुआ धाम, भक्तों ने किये भजन कीर्तन

देहरादून: देशभर में आज दिवाली की धूम है. दिवाली रोशनी का त्योहार है. कहा जाता है कि भगवान राम के वनवास से आगमन के बाद अयोध्या में दीपोत्सव हुआ था, जिसके कारण देशभर में दीपावली मनाई जाती है. आज के दौर में दीपावली दीपोत्सव न होकर हो-हल्ले से जुड़ा त्योहार हो गया है. इस दिन का आजकल दीपोत्सव से ज्यादा बम-पटाखे फोड़ने के लिए इंतजार किया जाता है लेकिन बात अगर उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों की करें तो यहां दीपोत्सव के साथ ही जश्न का अलग तरीका है. यहां के पर्वतीय अंचलों में दीपावली (बग्वाल) के दिन भैलों खेला जाता है.

भैलों खेलने की पहाड़ों में अपनी पुरानी परंपरा है. भैलों खेलने से पर्यावरण प्रदूषण नहीं होता, न ही जानवरों को कोई नुकसान होता है. साथ ही भैलों के जरिये कोई अनावश्यक शोर भी नहीं होता. एक तौर पर कहें तो भैलों एक तरह से ईको फ्रेडली दीपावली मनाने की सही तरीका है. पहाड़ो में भैलों के साथ मंडाण लगाया जाता है. मंडाण देवी देवताओं के आह्वान से जुड़ा होता है.

क्या होता है भैलों: उत्तराखंड में पुराने समय से ही दिवाली या बग्वाल मनाने के लिए भैलों का इस्तेमाल किया जाता है. भैलों को चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है. चीड़ की लकड़ी काफी ज्वलनशील होती है. इसकी लकड़ियों के छिल्लों को जमा कर बांध दिया जाता है. दीपावली के दिन सबसे पहले भैलों की पूजा अर्चना की जाती है. इसके बाद उसका तिलक किया जाता है. भैलों की पूजा के बाद घर आए मेहमानों, आगंतुकों के साथ भोजन किया जाता है. उसके बाद सभी ग्रामीण वाद्य यंत्रों के साथ गांव में जाकर भैलों खेलते हैं. इसके बाद इसे लीसा या मिट्टी का तेल डालकर जलाया जाता है. फिर चारों ओर घुमाया जाता है. इस दौरान गीत संगीत कार्यक्रम भी होता है. पहाड़ों में भैलों खेलने की परंपरा काफी पुरानी है. हालांकि, अब ये पुरानी परंपरा खाली होते गांवों के साथ ही खत्म होती जा रही है.

पहाड़ी क्षेत्रों में भैलों का क्रेज: पहाड़ी क्षेत्रों में अलग ही अंदाज में दिवाली मनाई जाती है. यहां पटाखों से अधिक भैलों का क्रेज होता है. पहाड़ों पर दीपावली से पहले घरों की सफाई, लिपाई, पुताई की जाती है. दीपावली के दिन लोगों ने स्थानीय दाल के पकोड़े, गहत से भरी पूरी बनाई जाती है. इसके बाद घरों में पूजा अर्चना कर सुख समृद्धि की कामना की जाती है. फिर सभी एक दूसरों के घरों में जाकर पकवानों का आदान-प्रदान करते हैं. देर शाम को सभी एकत्रित होकर भैलों खेलते हैं.

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