गोरखपुर: 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को अपने में समेटे, गोरखपुर के तरकुलहा मंदिर का इतिहास बड़ा ही अनोखा है. इसकी जो कहानी है उससे प्रभावित होकर लोग माता के इस मंदिर तक खिंचे चले आते हैं. बताया जाता है, कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान पूर्वांचल में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ाने का कार्य, शहीद बंधू सिंह किया करते थे, जो मौजूदा समय के तरकुलहा माता मंदिर के स्थान पर पिंडी रूप में विराजमान है.
सात बार टूटा फांसी का फंदा: शहीद बंधू सिंह मां की स्थापना कर घने जंगल के बीच उनकी कठोर तपस्या करते थे. यहां से गुजरने वाले अंग्रेज सिपाहियों के ऊपर गोरिल्ला युद्ध जैसा हमला करके, उन्हें पकड़ते और बलि दे देते थे. अपने सैनिकों की संख्या को कम होते देख तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने इसकी जांच पड़ताल जब शुरू की, तो मुखबीर के इशारे पर, बंधू सिंह के गिरफ्तारी का प्रयास अंग्रेजों ने किया. जिसमें वह सफल भी हो गए. बंधू सिंह पर मुकदमा चलाया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. लेकिन, फांसी की सजा देने में अंग्रेजों के पसीने छूट गए.
इसी घटनाक्रम से शहीद बंधू सिंह की मां भगवती के प्रति अटूट श्रद्धा हुई. अंग्रेजों द्वारा उनके गले में लटकाया गया फांसी का फंदा सात बार टूट गया. अंग्रेज उन्हे फांसी नहीं दे सके.अंत में बंधू सिंह ने खुद मां को पुकारा और अपनी शरण में लेने का आह्वान किया. इस पर आठवीं बार वह फांसी के फंदे से झूले.
शहीद बंधू सिंह की तपस्या और पूजा स्थल, तरकुलहा के स्थान पर पिंडी रूप के पास स्थित तरकुल के पेड़ की गर्दन भी टूट गई. उससे रक्तस्राव होने लगा. ऐसे सच्चे घटनाक्रम को मां भगवती के प्रति अटूट आस्था मानकर लोगों ने अपनी पूजा अर्चना शुरू की. जंगल का यह स्थान धीरे-धीरे लोगों की आस्था का केंद्र बनता चला गया. मौजूदा समय में तो यह स्थान देश प्रदेश में चर्चित है. मंदिर का स्वरूप भले ही छोटा है, लेकिन श्रद्धालुओं की तादाद इतनी बड़ी है कि, उसे देखते हुए प्रदेश की योगी सरकार इसे शक्तिपीठ जैसे मंदिरों की श्रेणी में रखते हुए इसके कायाकल्प में सरकारी धन को भी खर्च करती है. इस स्थान पर बड़ा मेला जहां शारदीय और चैत्र नवरात्र में लगता है तो, यहां हर दिन भक्तों की भीड़ मां के दर्शन और पूजन के लिए उमड़ती है.
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गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर हिमांशु चतुर्वेदी कहते हैं कि, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बंधू सिंह गुरिल्ला युद्ध में माहिर थे. उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पूर्वांचल में क्रांति के अग्रदूत रहे बंधू सिंह उनकी वीरता की गाथा आज भी हर किसी की जुबान पर है. यही वजह है, कि देश में सिर्फ स्वतंत्रता दिवस समारोह की तैयारियों में ही नहीं नवरात्र में भी लोग उन्हे याद करते हैं. देश के स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में जिले के इस वीर योद्धा को हमेशा याद किया जाएगा.
मंदिर के पुजारी हों या फिर यहां आने वाले कोई भी श्रद्धालु, सबकी अटूट आस्था मां तरकुलही में दिखाई देती है. मां सभी की मुरादे पूरी करती हैं. जब इनमें से किसी भी श्रद्धालु से यहां से जुड़ी आस्था पर सवाल किया जाता है तो, सभी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से ही इसको जोड़ते हैं और अपने ऊपर भी मां की अपार श्रद्धा का जिक्र करते हैं. बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष और विधान परिषद सदस्य डॉक्टर धर्मेंद्र सिंह भी यहां दर्शन के लिए अक्सर पहुंचते हैं. वह भी बंधू सिंह और इससे जुड़ी इतिहास की चर्चा करते हैं.
(नोट: यह खबर धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है)
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