लखनऊः लोकसभा चुनाव के पहले चरण में उत्तर प्रदेश की 8 सीटों पर 19 अप्रैल शुक्रवार को वोटिंग होगी. इस लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों में एक नई चीज देखने को मिली है. इस बार राजनीतिक दलों ने किसी भी राजघरानों को तवज्जो नहीं दी है. अमेठी राजघराने के पूर्व सांसद संजय सिंह, कालाकांकर की राजकुमारी रत्ना सिंह, कुंवर अक्षय प्रताप सिंह गोपाल जी और रामपुर की बेगम नूर बानो इस बार चुनावी संग्राम से गायब हैं. भदावर राजघराने (आगरा) कपूर विधायक अरिदमन सिंह और नूर बानो के बेटे नवाब काजिम अली का भी लोकसभा चुनाव 2024 में कहीं नाम नहीं दिख रहा है.
संजय सिंह को भाजपा में शामिल होने का भी नहीं मिला फायदाः राजनीतिक विशेषज्ञ का मानना है कि कई पूर्व राजाओं और राजकुमारों ने अपने राज्यों के विलय के बाद राजनीति में कदम रखा. लेकिन इस चुनाव में कुछ पूर्व राजाओं और राजकुमारों को चुनाव लड़ने का मौका नहीं दिया गया है. कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए अमेठी राजघराने के पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय सिंह भी इस बार चुनावी मैदान में नहीं है. हालांकि उनके करीबी लोगों का कहना है कि संजय सिंह भले ही राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं है लेकिन वह भाजपा के लिए खड़े हैं. बता दें कि पूर्व राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने 1998 भाजपा के टिकट पर अमेठी और 2009 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में सुलतानपुर सीट जीती थी. 2019 की लोकसभा चुनाव में सुल्तानपुर में मेनका गांधी से हार गए थे.
राजकुमारी रत्ना सिंह को भी टिकट मिलने की उम्मीद खत्मः वहीं, कालाकांकर राजघराने की राजकुमारी रत्ना सिंह के भाजपा उम्मीदवार के रूप में प्रतापगढ़ से चुनाव लड़ने की संभावना खत्म हो गई है. क्योंकि पार्टी ने मौजूदा सांसद संगम लाल गुप्ता को मैदान में उतारा है. राजकुमारी रत्ना सिंह 1996, 1999 और 2009 में कांग्रेस सांसद के रूप में प्रतापगढ़ का लोकसभा चुनाव में प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं. रत्ना सिंह 2019 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो चुकी हैं. लेकिन इस चुनाव में उनका कोई भी प्रभाव देखने को नहीं मिल रहा है. वहीं, जामो अमेठी राजघराने के कुंवर अक्षय प्रताप सिंह उर्फ़ "गोपाल जी" ने 2004 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव जीता था. वह 2019 में इस सीट के लिए जनसत्ता दल (डेमोक्रेटिक) के उम्मीदवार थे. लेकिन वह तीसरे स्थान पर रहे थे. इस बार उनके चुनाव लड़ने पर अभी कोई संकेत नहीं है.
नवाब काजिम को भी नहीं मिला मौकाः रामपुर लोकसभा क्षेत्र से पूर्व सांसद और शाही परिवार की बेगम नूर बानो (84) को कांग्रेस से दावेदार माना जा रहा था. हालांकि इंडी गठबंधन के तहत रामपुर सीट समाजवादी पार्टी के खाते में चली गई. सपा ने यहां से दिल्ली पार्लियामेंट स्टेट स्थित जामा मस्जिद के इमाम मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को अपना उम्मीदवार बनाया है. वहीं, कांग्रेस से निष्कासित बेगम नूर बानो के बेटे नवाब काजिम आजम अली भी इस बार चुनावी रण से दूर है. भाजपा के सहयोगी अपना दल एस में शामिल काजिक अली के बेटे नवाब हैदर अली खान हमजा मियां को भी इस बार मौका नहीं मिला है. साल 2014 में नवाब काजिम अली ने कांग्रेस के टिकट पर रामपुर से चुनाव लड़ा था, लेकिन वह हार गए थे.
राजा अजीत प्रताप के पोते के प्रयास भी हुए विफलः इसी तरह आगरा के भदावर राजघराने के राजा अरिदमन सिंह बाह विधानसभा सीट से 6 बार विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं. उन्होंने साल 2009 के लोकसभा चुनाव भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर लड़ा था लेकिन वह चुनाव हार गए थे. उनकी पत्नी रानी पक्षालिका सिंह अब भी वहां से भाजपा विधायक है. पक्षालिका सिंह 2014 का लोकसभा चुनाव सपा के टिकट पर फतेहपुर सीकरी से लड़ा था लेकिन हार गई थी. इसी तरह प्रतापगढ़ के राजा अजीत प्रताप सिंह और मांडा के पूर्व राजघराने के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह दोनों के राजवंश अब राजनीति में सक्रिय नहीं है. राजा अजीत प्रताप सिंह ने 1962 और 1980 में प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव जीता था. उनके बेटे अभय प्रताप सिंह ने 1991 में यह सीट जीती थी, लेकिन पोते अनिल प्रताप सिंह कई प्रयासों के बाद यहां पर असफल रहे हैं.
मौजूदा समय में देश की पूरी राजनीति के व्यक्ति विशेष की तरफ है. भाजपा जहां परिवारवाद को लेकर सबसे अधिक मुखर होकर विपक्षियों पर हमला कर रही है. वहीं विपक्ष के लगातार औसत प्रदर्शन में राजघरानों को इन से दूर किया है. देश में 2014 के बाद से जिस तरह से राजनीतिक पृष्ठभूमि में बदलाव आया है. उसने बड़े-बड़े नेताओं के साथ इन राजघरानों के राजनीतिक जमीन को भी कमजोर किया है. जनता अब ऐसे नेता को चुनना चाहती है जो उनके लिए विकास की बात करें और जो उनके लिए हर समय उपलब्ध हो. इन सब चीजों ने राजघरानों के लिए मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक वेक्यूम क्रिएट किया है. प्रो. संजय गुप्ता, विभागाध्यक्ष- राजनीतिक शास्त्र विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय
इसे भी पढ़ें-2009 में 21 सीटें जीतने वाली बसपा कैसे शून्य पर आई, चुनाव दर चुनाव बदलता रहा जीत का आंकड़ा