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मैहर के इस गांव में आज भी चलता है बापू का चरखा, अब विरासत बचाने की चुनौती - CHARKHA WALA GAON SULAKHMA

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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : 2 hours ago

मैहर जिले सुलखमा गांव में आज भी चरखा चलाकर वस्त्र बनाया जा रहा है. लेकिन उचित लाभ और सरकार से सहयोन नहीं मिलने के कारण यह सिमटता जा रहा है. कई सालों पहले पुरा गांव चरखा चलाने में लगा था लेकिन आज यह कुछ घरों तक सिमट कर रह गया है. उनका कहना है कि चरखा चलाकर जीविका चलाना बहुत मुश्किल हो गया है.

CHARKHA WALA GAAV SULAKHMA
मैहर के इस गांव में अभी भी चलता है चरखा (ETV Bharat)

मैहर: महात्मा गांधी ने स्वदेशी अपनाने के लिए चरखा चलाया था. गांधी जी ने साबरमती आश्रम में चरखा चलाकर खादी कपड़े बनाए, जिसे उन्होंने खुद पहना और लोगों को भी पहनने का आग्रह किया. आज के समय में चरखे से कपड़ा बनाने की कला खत्म होने के कगार पर है. जिसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन तमाम चुनौतियों के बीच मध्य प्रदेश के मैहर जिले में एक गांव है. जहां के लोग आज भी चरखा चला रहे हैं. कई परिवारों के लिए चरखा जीविका का साधन बना है, लेकिन इस पर निर्भरता से उनको कई तरह की चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है.

डिमांड कम होने से बंद होने के कगार पर व्यवसाय

मैहर जिले में सुलखमा गांव स्थित है. लगभग 100 परिवारों वाला यह गांव एक समय पूरी तरह से चरखा चलाने पर ही आश्रित था. गांव वालों ने बताया कि, पहले चरखे से बने कपड़ों की काफी डिमांड थी. व्यापारी घर से आकर कपड़े ले जाते थे और नए स्टॉक के लिए आर्डर भी दे जाते थे. इससे अच्छी कमाई हो जाती थी. जिससे उनका मनोबल ऊंचा रहता था, लेकिन समय ने ऐसी करवट ली कि फैशन के इस दौर में लोगों ने चरखे से बने कपड़े को पहनना कम कर दिया. धीरे धीरे डिमांड कम होने लगी. गांव में व्यापारी आना बन्द हो गए और धीरे-धीरे उनका व्यवसाय भी मंद पड़ने लगा.

उपेक्षाओं के चलते मंद पड़ रही है चरखे की चाल (ETV Bharat)

लगातार हो रहा उपेक्षा का शिकार

गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि अब गांव में मुश्किल से 20-25 घर बचे होंगे. जिनके यहां चरखा चलता है. नई पीढ़ी के बच्चे रोजगार की तलाश में बाहर जाने लगे. ढलती उम्र के साथ जो बाहर नहीं जा सके, वे ही चंद लोग चरखा चला रहे हैं. सरकार द्वारा उनके व्यवसाय को बढ़ाने में कोई मदद मिलने के सवाल पर उन्होंने कहा, किसी सरकार या किसी अधिकारी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया. बहुत पहले गांव में एक प्रशिक्षण केन्द्र बनाया गया था, लेकिन आज वह भी खंडहर बन गया है. लगातार उपेक्षाओं की वजह से धीरे-धीरे चरखे की चकरी बंद पड़ती जा रही है. बुजुर्ग ने बताया कि, एक कंबल बनाने में करीब 8-10 दिन लग जाते हैं. इसकी प्रक्रिया काफी लंबी है. एक कंबल के लगभग 1 हजार रुपये मिलते हैं. जिससे आजिविका चलाना मुश्किल हो जाता है.

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कलेक्टर ने मदद का करने का दिया आश्वासन

मैहर कलेक्टर रानी बाटड़ ने बताया कि, "रामनगर तहसील के सुलखमा में चरखा या हतकरघा से कपड़ा बनाया जा रहा है. इसके लिए हम प्रयास करेंगे की जो भी विभागीय योजनाएं हैं जैसे, ग्रामीण विकास की योजना या हतकरघा विकास की योजना. हम उससे उन्हें लाभान्वित करेंगे. हम यह भी प्रयास करेंगे कि उनके द्वारा बनाये जा रहे कपड़ों को बाजार में उपलब्ध कराएंगे. गांधी जयंती के अवसर पर हम कोशिश करेंगे कि, वहां हम कुछ आयोजन करें और उनकी जो भी आवश्यकता है उसको हम समझने."

मैहर: महात्मा गांधी ने स्वदेशी अपनाने के लिए चरखा चलाया था. गांधी जी ने साबरमती आश्रम में चरखा चलाकर खादी कपड़े बनाए, जिसे उन्होंने खुद पहना और लोगों को भी पहनने का आग्रह किया. आज के समय में चरखे से कपड़ा बनाने की कला खत्म होने के कगार पर है. जिसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन तमाम चुनौतियों के बीच मध्य प्रदेश के मैहर जिले में एक गांव है. जहां के लोग आज भी चरखा चला रहे हैं. कई परिवारों के लिए चरखा जीविका का साधन बना है, लेकिन इस पर निर्भरता से उनको कई तरह की चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है.

डिमांड कम होने से बंद होने के कगार पर व्यवसाय

मैहर जिले में सुलखमा गांव स्थित है. लगभग 100 परिवारों वाला यह गांव एक समय पूरी तरह से चरखा चलाने पर ही आश्रित था. गांव वालों ने बताया कि, पहले चरखे से बने कपड़ों की काफी डिमांड थी. व्यापारी घर से आकर कपड़े ले जाते थे और नए स्टॉक के लिए आर्डर भी दे जाते थे. इससे अच्छी कमाई हो जाती थी. जिससे उनका मनोबल ऊंचा रहता था, लेकिन समय ने ऐसी करवट ली कि फैशन के इस दौर में लोगों ने चरखे से बने कपड़े को पहनना कम कर दिया. धीरे धीरे डिमांड कम होने लगी. गांव में व्यापारी आना बन्द हो गए और धीरे-धीरे उनका व्यवसाय भी मंद पड़ने लगा.

उपेक्षाओं के चलते मंद पड़ रही है चरखे की चाल (ETV Bharat)

लगातार हो रहा उपेक्षा का शिकार

गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि अब गांव में मुश्किल से 20-25 घर बचे होंगे. जिनके यहां चरखा चलता है. नई पीढ़ी के बच्चे रोजगार की तलाश में बाहर जाने लगे. ढलती उम्र के साथ जो बाहर नहीं जा सके, वे ही चंद लोग चरखा चला रहे हैं. सरकार द्वारा उनके व्यवसाय को बढ़ाने में कोई मदद मिलने के सवाल पर उन्होंने कहा, किसी सरकार या किसी अधिकारी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया. बहुत पहले गांव में एक प्रशिक्षण केन्द्र बनाया गया था, लेकिन आज वह भी खंडहर बन गया है. लगातार उपेक्षाओं की वजह से धीरे-धीरे चरखे की चकरी बंद पड़ती जा रही है. बुजुर्ग ने बताया कि, एक कंबल बनाने में करीब 8-10 दिन लग जाते हैं. इसकी प्रक्रिया काफी लंबी है. एक कंबल के लगभग 1 हजार रुपये मिलते हैं. जिससे आजिविका चलाना मुश्किल हो जाता है.

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कलेक्टर ने मदद का करने का दिया आश्वासन

मैहर कलेक्टर रानी बाटड़ ने बताया कि, "रामनगर तहसील के सुलखमा में चरखा या हतकरघा से कपड़ा बनाया जा रहा है. इसके लिए हम प्रयास करेंगे की जो भी विभागीय योजनाएं हैं जैसे, ग्रामीण विकास की योजना या हतकरघा विकास की योजना. हम उससे उन्हें लाभान्वित करेंगे. हम यह भी प्रयास करेंगे कि उनके द्वारा बनाये जा रहे कपड़ों को बाजार में उपलब्ध कराएंगे. गांधी जयंती के अवसर पर हम कोशिश करेंगे कि, वहां हम कुछ आयोजन करें और उनकी जो भी आवश्यकता है उसको हम समझने."

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