जोधपुर. राजस्थान में लोकसभा चुनावों में परिवार और विरासत का बोलबाला रहा है. एक ही सीट से पति-पत्नी के बाद बेटा-बेटी चुनाव जीत कर देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचे हैं और यह क्रम लगातार चलता रहा है. हर चुनाव में किसी न किसी सीट पर पारिवारिक प्रत्याशी मिल ही जाता है. सक्रिय राजनीतिक विरासत को आगे बढाने वाले परिवारों की प्रमुख लोकसभा सीटों में भरतपुर, दौसा, जोधपुर, नागौर प्रमुख हैं.
इसके अलावा पाली, जालौर, बाड़मेर और झुंझुनू ऐसी लोकसभा सीटें हैं, जहां पर पति-पत्नी, पिता-पुत्री व पिता-पुत्र ने अलग-अलग समय में चुनाव लड़ा, लेकिन दोनों को जीत नहीं मिल सकी. वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण धींगरा का कहना है कि राजनीतिक विरासत आगे बढ़ने के कई कारण होते हैं. इनमें जाति प्रमुख है. इसके अलावा पुराने नेताओं ने काम कर जनता में जो पैठ बनाई उसके आधार पर उनके परिवार के अन्य सदस्यों को लोग मौका देते रहे हैं. जिसकी वजह से एक ही परिवार के कई लोग चुनाव जीते, लेकिन एक दशक से इसमें बदलाव हुआ है. लोगों ने राजनेताओं की दूसरी तीसरी पीढ़ी को नकारा भी है.
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जोधपुर से पति-पत्नी और बेटी ने लडा चुनाव : इस सीट पर पहले आम चुनाव में 1952 में तत्कालीन महाराज हनवंत सिंह ने स्वंत्रत प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था, लेकिन चुनाव परिणाम आने से पहले उनका निधन हो गया. परिणाम में वे विजयी रहे थे, लेकिन फिर उपचुनाव करवाए गए. 1971 में लंबे अंतराल के बाद फिर राजपरिवार से राज माता कृष्णाकुमारी ने निर्दलीय चुनाव जीता. इसके बाद तीन दशक बाद 2009 में उनकी पुत्री चंद्रेश कुमारी ने कांगेस से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की थीं. 2014 में वे गजेंद्र सिंह से हार गईं थीं.
नागौर से पिता-पुत्र व पौत्री बनी सांसद : मारवाड़ की राजनीति में नागौर हमेशा केंद्र में रहा है. यहां धारा से विपरित चुनाव लड़ा जाता रहा है. जाट लैंड का लोकसभा चुनाव का इतिहास रोचक है. दिग्गज जाट नेता नाथूराम मिर्धा कांग्रेस व जनता दल से 1971 से लेकर 1996 के बीच छह बार यहां से सांसद रहे थे. उनके बाद 1997 में उनके निधन के बाद उनके बेटे भानूप्रकाश मिर्धा भाजपा से सांसद निर्वाचित हुए. 2009 में नाथूराम मिर्धा की पौत्री ज्योति मिर्धा फिर कांग्रेस से मैदान में उतरीं और जीत दर्ज की थीं. उसके बाद वह लगातार दो चुनाव हार गईं. 2024 में ज्योति मिर्धा भाजपा की प्रत्याशी बनकर वापस मैदान में उतरी हैं.
भरतपुर से पिता-पुत्र, बेटी व पुत्रवधू बनी सांसद : आजादी के बाद सक्रिय राजनीति में भरतपुर का पूर्व राजपरिवार सक्रिय रहा है. 1967 पूर्व महाराज बृजेंद्र सिंह ने निर्दलीय चुनाव जीता था. उसके बाद बेटे विश्वेंद्र सिंह 1989 में जनता दल से चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंचे थे. 1991 में उनकी विश्वेंद्र सिंह की बहन कृष्णेंद्र कौर और 1996 में पत्नी दिव्या सिंह भाजपा से चुनाव जीत कर संसद गई थीं. 1999 में विश्वेंद्र सिंह ने भी भाजपा का हाथ थाम और लगातार दो बार चुनाव जीत कर सांसद बने थे.
दौसा से पति-पत्नी और बेटा बना सांसद : कांग्रेस नेता राजेश पायलट ने पहला चुनाव भरतपुर से जीता था, लेकिन बाद में वे दौसा आ गए. 1984 में कांगेस से दौसा से पहली बार सांसद चुने गए. 1989 में फिर भरतपुर गए, लेकिन वहां विश्वेंद्र सिंह हार गए. 1991 में दौसा लौटे 1999 तक सांसद रहे. उनके निधन के बाद 2000 में उनकी पत्नी रमा पायलट को लोगों ने चुनाव जीता कर दिल्ली भेजा. 2004 में सचिन पायलट ने अपना पहला चुनाव लड़ा और यहां से सांसद चुने गए. बाद में वे 2009 में अजमेर चले गए.
जालोर से पति हारे, पत्नी जीती : राजस्थान की जालोर सिरोही सीट जब अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी उस समय भाजपा व कांग्रेस बाहरी उम्मीदवार को यहां से चुनाव लड़ाती रही. कांग्रेस नेेता बूटा सिंह के लगातार चुनाव जीतने पर 1999 में भाजपा ने दक्षिण भारत के बंगारू लक्ष्मण को यहां से उतारा. कड़ी टक्कर हुई, लेकिन लक्ष्मण चुनाव हार गए. 2004 में भाजपा ने फिर बूटा सिंह के सामने लक्ष्मण की पत्नी बी. सुशीला को उतारा. इस चुनाव में बूटा सिंह को हार का सामना करना पड़ा था. जनता ने सुशीला को जीता कर दिल्ली भेजा.
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पाली पिता सांसद बने, बेटी की हुई बुरी हार : मारवाड़ में पाली संसदीय क्षेत्र में 2009 से पहले तक महाजन वर्ग का दबदबा रहा. पुष्प जैन भाजपा से पांच बार सांसद बने. नए परिसीमन के बाद 2009 में कांग्रेस ने बद्रीराम जाखड़ को उतारा. जाखड़ पहली बार में ही सांसद निर्वाचित हो गए, लेकिन 2014 में पार्टी ने उनकी बेटी मुन्नी देवी गोदारा को टिकट देकर उतारा, लेकिन उन्हें भाजपा के पीपी चौधरी से चार लाख मतों से हार का सामना करना पड़ा. 2019 में फिर बद्रीराम जाखड़ मैदान में उतरे, लेकिन वे हार गए.
पिता पांच बार सांसद बने, बेटा हारा : पूर्व सीएम अशोक गहलोत ने जोधपुर लोकसभा का पांच बार प्रतिनिधित्व किया. वे केंद्रीय मंत्री भी बने. उनके 1998 में राज्य की राजनीति में आने के बाद कांग्रेस का जोधपुर सीट से हार का सिलसिला शुरू हो गया. 1998 से 2019 तक कांग्रेस ने सिर्फ 2009 में ही जीत दर्ज की. 2019 में बतौर सीएम रहते हुए अशोक गहलोत ने अपने बेटे वैभव गहलोत को जोधपुर से सांसद का चुनाव लड़ाया, लेकिन वैभव गहलोत को गजेंद्र सिंह शेखावत से हार का सामना करना पड़ा. इस बार वैभव गहलोत जालोर-सिरोही से भाग्य आजमा रहे हैं.
बेटा सांसद बना, पिता हारे : बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा सीट से कर्नल मानवेंद्र सिंह जसोल ने 1999, 2004, 2009 व 2019 तक चार बार सांसद का चुनाव लड़ा. 2004 में ही सिर्फ एक बार भाजपा से वे सांसद निर्वाचित हुए थे. 2014 में उनके पिता पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह जसोल ने अपने गृह जिले से भाजपा से पहली बार टिकट मांगा, लेकिन उनको टिकट नहीं मिला. बगावत कर वे निर्दलीय चुनाव में लड़े, लेकिन उनको हार का मुंह देखना पड़ा था. इसके बाद मानवेंद्र ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली. चौथा चुनाव 2019 में कांग्रेस से सांसद का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए.