जयपुर. अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के मायनों को अगर समझा जाए तो कहा जा सकता है कि हम रिश्तों के महत्व को समझें, अपने प्रियजनों के साथ अधिक समय बिताएं और हर दुख-सुख की घड़ी में उनके लिए मौजूद रहें. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक आज हमारे देश में 30 करोड़ से ज्यादा परिवार रह रहे हैं, जिनमें से 18 फीसदी परिवारों में महिलाएं मुखिया की भूमिका में हैं. देश में सर्वाधिक परिवार 13 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में हैं. इसी तरह आंकड़े बताते हैं कि देश में 50% परिवार न्यूक्लियर तो 17% संयुक्त परिवार हैं.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार देश में औसत परिवारों का आकार छोटा होता जा रहा है. मौजूदा वक्त में देश के हर परिवार में औसत 4.4 सदस्य हैं, जबकि साल 2010 में भारतीय परिवारों का आकार 4.86 सदस्य का था. सर्वे के मुताबिक साल दर साल इस आधार पर इसमें 0.9 फीसदी की कमी आई है. मानसिक शक्ति को समझने वाले विषय विशेषज्ञों के मुताबिक यह बदलती तस्वीर आज समाज की दशा और दिशा को निर्धारित कर रही है.
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परिवार और मानसिक स्वास्थ्य : डॉ. मनस्वी गौतम कहते हैं कि परिवार और मानसिक स्वास्थ्य एक-दूसरे से जुड़े हैं. हमें अपने परिवार के सदस्यों से जो प्यार मिलता है, वो हमें एक व्यक्ति के रूप में विकसित होने और हमारे भावनात्मक संबंधों को मजबूत करने में मदद करता है. खास तौर पर संयुक्त परिवारों में इस भावना को बल मिलता है. डॉ. मनस्वी गौतम के मुताबिक इंडियन सोशल सिस्टम परिवार के कारण ही दूसरे मुल्कों से बेहतर है. यहां रिश्तो को लेकर दिन विशेष का अभिप्राय परिवारों के बीच रोजमर्रा ही सार्थक होता है.
क्या सयुंक्त परिवार के सदस्य एकल परिवार से ज्यादा मजबूत होते हैं : संयुक्त परिवारों में आम दिनचर्या परिवार के सदस्यों के बीच पूरी होती थी. इस दौरान एक साथ भोजन करना और अपने दिन की बातों को चर्चा में शामिल करना, संयुक्त परिवार के सदस्यों की मजबूत मानसिक सेहत का बड़ा आधार रहा है. डॉ. गौतम के मुताबिक जब हम सब चीजों को जोड़कर देखते हैं तो पता चलता है कि जिस व्यक्ति में सभी चीजों को देखने की क्षमता, अपनी विषमताओं को दूर करने की क्षमता के साथ ही सामाजिक परिवेश के मुताबिक खुद को उन्नत करने की क्षमता अगर बेहतर है तो ऐसे व्यक्ति संयुक्त परिवारों में ज्यादा मिलेंगे.
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उनके मुताबिक ऐसे परिवारों में जिम्मेदारियों का सामूहिक निर्वहन और चुनौतियों से लड़ने की सामूहिक क्षमता अधिक होती है. इसके उलट एकाकी मिजाज के लोग एकल परिवारों में ज्यादा मिलते हैं, क्योंकि उनमें परवरिश के दौर में खुद को एकांत में बड़े होते हुए देखने का अनुभव होता है. उन्होंने कहा कि एकल परिवार के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव और संयुक्त परिवार का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव नजर आता है.
अवसाद वाली सोच किस तरह के परिवार में ज्यादा : डॉ गौतम ने कहा कि आजकल देखने में आता है कि लोगों में अवसाद ज़्यादा है, क्या परिवार को लेकर बदल रही सोच इसकी जिम्मेदार होती है. एकल परिवार के सदस्यों के मुकाबले में संयुक्त परिवार के सदस्यों में चुनौतियों और विपरित हालात से निपटने की क्षमता बेहतर होती है. इसलिए वहां अवसाद आसानी से किसी व्यक्ति पर हावी नहीं होते हैं. जबकि एकल परिवार के सदस्यों के बीच परेशानियों का सामना करने के लिए और साझा करने के लिए आप्शन नहीं होते हैं, ऐसे में उनकी परेशानी बढ़ जाती है.