दमोह: पंजाब के जलियांवाला बाग हत्याकांड को इतिहास के पन्नों पर खूब जगह मिली, लेकिन बुंदेलखंड के प्रसिद्ध फंसया नाला कांड को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला. जिसका वह असल में हकदार था. बुंदेलखंड के जलियांवाला के नाम से प्रसिद्ध फंसाया नाला हत्याकांड केवल इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया है. हम आपको बताते हैं बुंदेलखंड के फंसाया नाला कांड के बारे में
महाराजा छत्रसाल ने मांगी मदद
'जो गति भई ग्राह गजेन्द्र की सो गति भई है आज. बाजी जात बुन्देल की बाजी राखो लाज.' बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल जब मुगलों की सेना से चारों तरफ से घिर गए, तब उन्होंने यह पंक्तियां एक पत्र में लिखकर मराठा छत्रपति पंडित बाजीराव पेशवा से मदद की गुहार लगाई थी. पत्र मिलते ही बिना समय गवाए बाजीराव पेशवा ने आकर महाराजा छत्रसाल की न केवल मदद की बल्कि मुगलों को भी खदेड़ दिया था.
नरसिंहगढ़ का शाब्दिक अर्थ
छतरपुर से लौटते समय जब बाजीराव पेशवा नसरतगढ़ पहुंचे, तब उन्होंने अपने खास पांडुरंग राव करमरकर को यह आदेश दिया कि नसरतगढ़ का नाम बदलकर नरसिंहगढ़ कर दें, वहीं पर अपना शासन भी चलाएं. (नरसिंहगढ़ का शाब्दिक अर्थ- नर के रूप में सिंघों का गढ़ होता है)
जान बचाने किले में ली शरण
1727 से 1730 के मध्य घटित इस घटना के करीब 130 वर्ष बाद शाहगढ़ के राजा और महाराजा छत्रसाल के वंशज महाराजा वखतबली को जब ब्रिटिश सेना ने उनके विद्रोही स्वभाव के कारण खत्म करने के लिए उन्हें किले सहित घेर लिया, तब वह अपने विश्वस्त अंग रक्षकों व कुछ सैनिकों के साथ अंग्रेजों को चकमा देकर वहां से भाग निकले. राजा वखतबली तो जंगलों के रास्ते भागने में कामयाब हो गए, लेकिन उनके सैनिकों को नरसिंहगढ़ में तत्कालीन मराठा सूबेदार पंडित रघुनाथ राव करमरकर के यहां शरण लेना पड़ी.
पैदल सेना लेकर आया मेजर किंकिनी
जब इस बात की जानकारी ब्रिटिश फौज को लगी तो 17 सितंबर 1857 की रात जबलपुर से मेजर किंकिनी कई तोपों के साथ एक विशालकाय पैदल सेना लेकर नरसिंहगढ़ पहुंच गया. उसने वहां पर किले को चारों तरफ से घेर लिया. साथ ही मराठा सूबेदार पंडित रघुनाथ राव करमरकर को यह संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को उनके हवाले कर दे.
शरणागत की रक्षा हमारा धर्म
इस दौरान सूबेदार के दीवान पंडित अजबदास तिवारी जुझौतिया ने मराठा सूबेदार रघुनाथ राव को नीति और शास्त्रों के अनुसार यह सलाह दी की शरण में आए हुए की रक्षा करना हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी है. चाहे भले ही प्राणोत्सर्ग करना पड़े. तब सूबेदार रघुनाथ राव ने सभी सैनिकों को किले की एक गुप्त सुरंग से उन्हें सुरक्षित बाहर निकाल दिया व ब्रिटिश फौज को शरणागत सैनिक देने से इंकार कर दिया.
किले के अंदर हुआ रक्तपात
मेजर किंकिनी के आदेश पर तोपों से प्रहार करके किले की एक दीवार को क्षतिग्रस्त कर ब्रिटिश सेना दाखिल हो गई. ब्रिटिश गजेटियर के लेखक आर व्ही रसल ने अपने लेख में इस घटना के बारे में विस्तृत वर्णन किया है. साथ ही अन्य इतिहासकार बताते हैं कि मराठा सैनिक बहुत ही वीरता के साथ अंग्रेजों से लोहा लेते रहे. जिसमें 70 से अधिक सैनिक अंग्रेजों के हाथों मारे गए. उसी रात अंग्रेजों ने किले के अंदर ही सूबेदार रघुनाथ राव करमरकर और उनके फडणवीस रामचंद्र राव को बंदी बनाकर फांसी पर लटका दिया.
सरेआम फांसी पर लटका दिया
जबकि उनके दीवान अजबदास तिवारी से वह इतना क्रुद्ध हो गए कि उन्हें उनके भाईयों और नाती पोतों सहित बंदी बना लिया. घटना के दूसरे दिन 18 सितंबर 1857 को किले से करीब 1 किलोमीटर दूर एक नाले के किनारे लगे अर्जुन के विशालकाय वृक्षों से सरेआम फांसी पर लटका दिया. जिन 18 लोगों को फांसी दी गई थी, उसमें दीवान अजबदास तिवारी का एक 6 महीने का मासूम भी शामिल था.
70 से 90 लोगों को उतारा मौत के घाट
आर व्ही रसल आगे लिखते हैं कि किले के अंदर हुआ, यह संग्राम इतना वीभत्स था कि करीब 70 से 90 लोगों को मौत के घाट उतारा गया था. जीवित रहने वालों में केवल कुछ स्त्रियां व सूबेदार रघुनाथराव करमरकर की दोनों पत्नियां अन्नपूर्णा बाई, राधाबाई और उनका एक नाबालिग बेटा नारायण राव भर बचा था. जिस स्थान पर पंडित अजबदास तिवारी और उनके पूरे वंश को फांसी दी गई थी. वह क्षेत्र आज भी फंसया नाला के नाम से प्रसिद्ध है. स्वतंत्रता के दीवानों के लिए श्रद्धा और आस्था का केंद्र बना हुआ है.
नरसिंहगढ़ को पूरी तरह कर दिया वीरान
रघुनाथ राव की सातवीं पीढ़ी के वंशज पंडित दिवाकर विजय करमरकर बताते हैं कि हालांकि नाले का बहुत सारा हिस्सा माइसेम सीमेंट फैक्ट्री की बाउंड्रीवाल में दब गया है. अर्जुन के उन विशालकाय पेड़ों को भी काट दिया गया है, जिन पर अजबदास तिवारी को फांसी दी गई थी. मराठा शासन खत्म करने के बाद अंग्रेजों ने नरसिंहगढ़ को पूरी तरह वीरान कर दिया था. रघुनाथराव के एकमात्र जिंदा वारिस नारायणराव को रियासत से बेदखल कर दिया था.
इस घटनाक्रम के बाद रघुनाथराव के जीवित एकमात्र वारिस बचे नारायण राव ने आगरा की ब्रिटिश अदालत में अपनी रियासत को रिस्टोर करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन अंग्रेजों ने उस रियासत को पुनः बहाल न करने का फैसला सुनाया. बाद में 1890 में नारायण राव की भी मृत्यु हो गई, जिसके बाद किला लगातार खंडहर होता रहा. आजादी के बाद किले की देखरेख का जिम्मा पुरातत्व विभाग ने उठा तो लिया, लेकिन अब वहां पर भी वीरानी और खंडहर के अलावा कुछ भी नहीं है.
किले की हालत देख वंशज दिवाकर ने जताया दुख
लोग पत्थर तक उखाड़ कर ले गए. किले के चारों ओर करीब 3 मीटर चौड़ी और 10 मीटर गहरी खाई थी, जिसे लोगों ने पाट दिया. वहां पर पक्के मकान बना लिए हैं. सूबेदार के वंशज दिवाकर करमरकर कहते हैं कि 'देश के लिए जान न्यौछावर करने वालों की विरासत का आज यह हाल है. कोई देखने वाला नहीं है और सरकार भी कुछ नहीं कर रही है. यह बहुत ही निंदनीय और दु:खद पहलू है.'