कोरबा : जिले का एकमात्र कोरबा मेडिकल कॉलेज अस्पताल खून की किल्लत से जूझ रहा है. यहां के ब्लड बैंक में हर महीने जितने ब्लड की जरूरत होती है, उसका आधा ब्लड ही अस्पताल में उपलब्ध हो पाता है. खासतौर पर सिकलिंग और थैलेसीमिया के मरीजों के लिए यह परिस्थितियां बेहद घातक हैं. जिन्हें हफ्ते, 15 दिन या महीने में नियमित तौर पर ब्लड चढ़ाना पड़ता है. यदि इन मरीजों को समय पर खून नहीं दिया गया, तो उनकी मौत भी हो सकती है.
कैंप से भी नहीं मिल पाता पर्याप्त मात्रा में खून : शहर का मेडिकल कॉलेज अस्पताल हो या फिर अन्य अस्पताल सभी ब्लड के लिए ब्लड बैंक पर ही आश्रित रहते हैं. मेडिकल कॉलेज अस्पताल में यदि कोई ब्लड डोनेशन कैंप लगे तो भी बमुश्किल 50-60 यूनिट ही ब्लड एक बार में मिलता है. जरूरत के हिसाब से यह बेहद कम है. जानकारों की मानें तो इस दिशा में लोगों में पर्याप्त जागरूकता नहीं है. लगातार कैंपेनिंग के बाद भी लोग उतनी तादाद में रक्तदान करने सामने नहीं आते, जितनी की अस्पतालों को जरूरत है. खास तौर पर थैलेसीमिया और सिकलिंग के मरीज इससे बेहद परेशान रहते हैं.
एक यूनिट ब्लड प्रोसेस करने में लगते हैं लगभग ₹1400 : मेडिकल कॉलेज अस्पताल जैसे सरकारी संस्था में मरीजों को ब्लड लगभग निशुल्क दिया जाता है. बाध्यता यह है कि जरूरतमंद को अपने साथ एक डोनर को लाना पड़ता है. हालांकि इमरजेंसी के मामले में यह बाध्यता समाप्त कर दी जाती है और आयुष्मान कार्ड से यह राशि वसूल कर ली जाती है. मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरीजों को नि:शुल्क ब्लड प्राप्त हो जाता है। लेकिन निजी ब्लड बैंक में डोनर और ₹1400 देने होते हैं. एक तरह से यह डोनेटेड ब्लड का हैंडलिंग चार्ज कहा जा सकता है.
सामाजिक संस्थाओं के भरोसे चल रहा ब्लड बैंक : आचार संहिता के प्रभाव के कारण ब्लड डोनेशन के बड़े कैंप नहीं हो रहे हैं. जिसके कारण ब्लड बैंक में खून की किल्लत है. सामान्य दिनों में भी खून की कमी बनी रहती है. लेकिन वर्तमान परिवेश में किल्लत ज्यादा ही विकराल हो चुकी है, ऐसे में मेडिकल कॉलेज अस्पताल के ब्लड बैंक में जब कोई जरूरत मरीज़ पहुंच जाए या इमरजेंसी में किसी को ब्लड की जरूरत हो. तो वह सीजी हेल्प वेलफेयर सोसाइटी जैसे संस्थानों से संपर्क करते हैं. ऐसे संस्था से जुड़े सदस्य और उत्साही लोग ब्लड डोनेट करते हैं. जिससे कि ब्लड बैंक का काम चलता है. नियमित तौर पर ब्लड डोनेट करने वाले युवा यदि यह कामना करें, तो परिस्थितियों और भी कठिन हो सकती हैं.
2 महीने से खुद ही कर रहे खून का इंतजाम : थैलेसीमिया से पीड़ित 6 साल की बच्ची की मां आशा ने है अपना दर्द बयां किया. आशा कहती हैं "बच्ची जब 3 महीने की थी तभी हमें पता चला कि वह थैलेसीमिया से पीड़ित है. उसे हर महीने ब्लड चढ़ाना पड़ता है. कभी खून मिलता है, तो कभी नहीं मिलता. पिछले दो-तीन महीने से हम खुद ही खून का इंतजाम कर रहे हैं. समय पर यदि खून नहीं मिलता तो बच्चे का चेहरा सफेद पड़ जाता है. वह सुस्त हो जाती है.खाना पीना भी ठीक से नहीं खाती. हम रोजी मजदूरी करते हैं.
मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जब खून रहता है तो ब्लड फ्री में मिल जाता है. लेकिन जब निजी ब्लड बैंक से खरीदना हो तो पैसे भी खर्च करना पड़ते है." - थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे की मां
रोज देते हैं 5 यूनिट ब्लड : छत्तीसगढ़ हेल्थ वेलफेयर सोसाइटी के राणा मुखर्जी ने बताया, "लगभग 250 से ज्यादा सिकलिंग और थैलेसीमिया के मरीज जिला अस्पताल आते हैं, जो हमारे टच में हैं. यहां खून नि:शुल्क मिलता है. सरकार की अच्छी सुविधा है, लेकिन दिक्कत यह है कि अस्पतलाल में हमेशा ही ब्लड की कमी बनी रहती है. दूसरे जरूरतमंद मरीजों को भी खून चढ़ाना होता है. यहां के ब्लड बैंक वाले जरूरत पड़ने पर हमसे संपर्क करते हैं. हम मरीजों के संपर्क में भी रहते हैं."
"समय-समय पर हम कैंप लगाते हैं और व्यक्तिगत रूप से भी रक्तदान करवाते हैं. हर रोज हमारी संस्था के पांच लड़के जरूरतमंद को ब्लड डोनेट करते हैं. हम सभी को इस दिशा में जागरूक होना पड़ेगा. खास तौर पर गर्मी में खून की ज्यादा किल्लत रहती है." - राणा मुखर्जी, छत्तीसगढ़ हेल्थ वेलफेयर सोसाइटी
10 फीसदी लोग सिकलिंग से पीड़ित : सिकलिंग और एनीमिया के एक्सपर्ट डॉ प्रदीप देवांगन इस बीमारी से पिछले 15 साल से लड़ रहे हैं. जिनका अपना रिसर्च है और वह कहते हैं कि किसी क्षेत्र के कुल जनसंख्या में से 10 फीसदी लोग सिकलिंग से पीड़ित हैं. इसलिए सिकलिंग जैसी घातक बीमारी को रोकने के लिए विवाह के पहले युवक और युवती के सिकलिंग कुंडली मिलाना बेहद जरूरी है.
"मैंने बहुत सारे सिकलसेल रोगियों को देखा है. उन्हें जागरूक करने का प्रयास भी कर रहा हूं. थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया दोनों हीमोग्लोबिन को प्रभावित करने वाली बीमारी है, जो जेनेटिक बीमारी हैं. सिकल सेल एनीमिया छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा और कर्नाटक राज्य में बहुत ज्यादा है, लेकिन थैलेसीमिया राजस्थान और गुजरात में ज्यादा है." - डॉ प्रदीप देवांगन, सिकलिंग और एनीमिया के एक्सपर्ट
"लोग अभी भी जागरूक नहीं हो रहे": डॉ प्रदीप देवांगन कहते हैं, "वास्तव में देखा जाए तो सिकल सेल एनीमिया एक बेहद खतरनाक बीमारी के रूप में उभरी है. छत्तीसगढ़ की आबादी 3 करोड़ है, तो इसमें से लगभग 10 फीसदी लोग अर्थात कम से कम 30 लाख लोग इससे प्रभावित हैं. शासन प्रशासन भी प्रयास कर रही है, लेकिन लोग अभी जागरूक नहीं हो रहे हैं. जब सिकल सेल से लोग पीड़ित होते हैं, तब लोगों का ध्यान इस पर जाता है.
विवाह के पहले सिकलिंग कुंडली मिलान जरूरी: दो प्रकार के सिकल सेल से लोग प्रभावित होते हैं. एक सिकल सेल वाहक होता है और दूसरा सिकल सेल रोगी है. रोगी को 10-12 साल में बीमारी का पता चल जाता है. लेकिन जो वाहक होते हैं, वह बेहद खतरनाक हैं. वही इस बीमारी को पैदा करने में कारक बन रहे हैं. इसका पता लगाना बेहद जरूरी है. इसलिए विवाह के पहले सिकलिंग कुंडली का मिलान करना बेहद जरूरी है. इनकी जांच होनी चाहिए. जिससे यह पता चल जाता है. जो सिकल सेल वाहक है, उन्हें शादी नहीं करनी चाहिए.
ब्लड की खपत अधिक, उपलब्धता कम : कोरबा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ गोपाल सिंह कंवर ने बताया, "हमारे अस्पताल में प्रतिदिन की खपत 30 से 40 यूनिट है. इसका मतलब हुआ कि महीने में हमें 800 से 900 यूनिट ब्लड की जरूरत होती है. जबकि हमारे पास 400 से 500 यूनिट ही है. अलग-अलग डिपार्टमेंट में इमरजेंसी हो या प्रसव के मामले भी चल रहे हैं. सभी को ब्लड की जरूरत है. हमारे यहां व्यवस्था पूरी तरह से निशुल्क रहती है. कुछ ब्लड को हम एक्सचेंज में भी देते हैं. लेकिन इमरजेंसी में तो हमें बिना एक्सचेंज के भी ब्लड देना ही पड़ता है."
सिकल सेल और थैलेसीमिया के मरीजों का डॉक्टर लगातार फॉलो अप लेकर दवा दे रहे हैं. इससे सिकल सेल मरीजों को खून चढ़ाने की मात्रा में कुछ कमी आती है. लेकिन इन मरीजों को जल्द खून नहीं चढ़ाया गया, तो इनका सर्वाइवल मुश्किल हो जाता है. ब्लड कैंप हो या इंडिविजुअल डोनर सभी को अधिक से अधिक संख्या में सामने आना चाहिए ब्लड डोनेट करना चाहिए. जहां भी ब्लड कैंप लगाना हो, अस्पताल कैंप लगा कर ब्लड का इंतजाम करते हैं. ताकि हर जरूरतमंद को ठीक समय पर ब्लड उपलब्ध कराया जाए.