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जन्मदिन विशेष: नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में बसता है उत्तराखंड, जब इन गानों ने बदल दी थी सरकारें - Narendra Singh Negi birthday

Narendra Singh Negi birthday उत्तराखंड के अब तक के सबसे लोकप्रिय लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का आज जन्मदिन है. नेगी दा ने आज 75 साल पूरे करके 76वें साल में प्रवेश कर लिया है. नरेंद्र सिंह नेगी को उत्तराखंड की संस्कृति का वाहक कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

Narendra Singh Negi birthday
नरेंद्र सिंह नेगी का जन्मदिन (ETV Bharat Graphics)
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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Aug 12, 2024, 10:50 AM IST

Updated : Aug 12, 2024, 11:48 AM IST

देहरादून: अगर आपको किसी संस्कृति को जानना हो, समझना हो तो वहां का लोग संगीत सबसे बेहतर माध्यम होता है. लोक कलाकार किसी प्रांत और देश के संस्कृति के सच्चे वाहक होते हैं. उत्तराखंड में भी लोक संस्कृति के वाहक अपने गीतों से यहां की पहचान दर्शाते रहते हैं. इन लोकगायकों में सबसे अग्रणीय हैं नरेंद्र सिंह नेगी.

उत्तराखंड के सांस्कृतिक ध्वजवाहक हैं नरेंद्र सिंह नेगी: अगर आपको उत्तराखंड की संस्कृति को जानना और समझना है तो आप नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए. आप उनके गीतों को सुनकर उत्तराखंड, खासकर राज्य के पहाड़ी अंचल को काफी कुछ समझ जाएंगे. पहाड़ के तीज-त्यौहार, पहाड़ के रीति-रिवाज, मौसम, फसल, जल-जंगल और जमीन सभी के बारे में आपको नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में जानने-समझने को मिल जाएगा.

बॉब डिलन से होती है नरेंद्र सिंह नेगी की तुलना: उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की प्रसिद्धि इतनी है कि उनकी तुलना अमेरिका के प्रसिद्ध गायक-गीतकार बॉब डिलन से की जाती है. डिलन के 60 साल के सांस्कृतिक करियर ने उन्हें दुनिया के लोकप्रियक संस्कृति वाहकों में स्थान दिलाया था. इससे आप समझ सकते हैं कि लोक गायकी के क्षेत्र में नरेंद्र सिंह नेगी ने कितना अविस्मरणीय कार्य किया है.

1949 में पौड़ी में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी: उत्तराखंड रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पौड़ी गांव में हुआ था. मां समुद्रा देवी और पिता उमराव सिंह नेगी के घर में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी की संगीत यात्रा को 50 साल पूरे हो चुके हैं. इन 50 सालों में उन्होंने ऐसे-ऐसे गीत लिखे और गाए कि उनके प्रशंसकों ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया. उन्होंने जीवन और प्रकृति के साथ लोक व्यवहार, तीज-त्यौहार और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए ऐसे-ऐसे गीत गाए कि वो लोगों की जुबान पर चढ़ गए.

नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है खास बात: बहुत कम लोगों की हिम्मत होती है कि वो सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर कलम चला सकें. नरेंद्र सिंह नेगी ने इन दोनों कुरीतियों को समाप्त करने के लिए अपनी गीतों का सहारा लिया. पहाड़ों में मंदिरों में होने वाली पशु बली पर उनका मार्मिक गीत लोगों को इतना पसंद आया कि उत्तराखंड में मंदिरों में अब पशुबलि लगभग बंद ही हो गई है. इस गीत के बोल जो सुन लेता है, उसकी आंखें भर आती हैं.

नि होणू रे नि होणू तेरा, देबि-द्यब्तौंल दैणू भेरा

बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी, बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी

नि होणी रे नि होणी भलि, देकि निरदोषू की बलि

मंदिरों में ल्वेई चारिकी, मंदिरों में ल्वेई चारिकी

सोनु-चांदी रुप्या नी चांदा, द्यब्ता ल्वे-मांसू नि खांदा

द्यब्ता सच्ची श्रद्धा का भूखा, हाथ जोड़ि परसन्न ह्वे जांदा

इतने सरल और सहज शब्दों में बलि प्रथा का विरोध और समझाइश आपने कहीं नहीं सुनी होगी.

नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है प्रकृति प्रेम: प्रकृति को नरेंद्र सिंह नेगी ने अलग ही अंदाज में अपने गीत में प्रस्तुत किया. उत्तराखंड के हिमालय और वहां के पर्वत पहाड़ पर जब धूप की किरणें पड़ती हैं तो कैसा दृश्य होता है, वो उनके इस गीत से पता चलता है.

चम-चमा, चम चमा, चम्म चमकी घाम डांड्यूं मा

हिमाली कांठी चांदी की बणि गेनी

शिवा का कैलाशु गाय पैलि-पैलि घाम

सेवा लगाणु आयु बदरी का धाम

आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सूर्योदय और धूप के खिलने का वर्णन कितनी सुंदरता से किया जा सकता है.

गीतों से पौधरोपण को किया प्रेरित: पहाड़ में अभी हरेला पर्व पर सरकार ने महा वृक्षारोपण अभियान चलाया. नरेंद्र सिंह नेगी आधा दशक पहले ही इसका संदेश दे चुके थे. उनके इस गीत से बढ़कर वृक्षारोपण का संदेश और क्या हो सकता है.

आवा दिदा भुलों आवा

नांगि धरती की ढकावा

डालि वन-वनी लगावा

डालि द्यवतों का नौ की

डालि रोप पुन्य कमावा

नेगी जी के इस गीत ने पहाड़ के लोगों को पौधरोपण कि लिए प्रेरित किया. इसीलिए उत्तराखंड अपने वनों के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड की वन संपदा राज्य के लिए धरोहर बन गई.

वनों के कटान के खिलाफ गीत: एक ओर जहां नरेंद्र सिंह नेगी ने पौधरोपण के लिए प्रेरित किया, वहीं उन्होंने लोगों को पेड़ नहीं काटने का संदेश भी दिया. पेड़ नहीं काटने का अनुरोध करता नरेंद्र सिंह नेगी का ये गीत हमेशा प्रेरणादायी रहेगा.

ना काटा तौं डाल्यूं

तौं डाल्यूं न काटा दिदौं, डाल्यूं न काटा

डालि कटेलि त माटि बगेली

न कूड़ि, न पुंगड़ी, न डोखरी बचली

घास-लखड़ा न खेति ही राली

भोल तेरी आस-औलाद क्य खाली

पेड़ काटने का दंश आज उत्तराखंड भुगत रहा है. राज्य भर में जहां-तहां भूस्खलन हो रहा है. अगर इस गीत के संदेश को अपना लिया जाए तो भूस्खलन की बहुत बड़ी समस्या ही हल जो जाएगी.

उत्तराखंड आंदोलन का बैनर गीत: 90 के दशक में जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन चल रहा था तो एक तरफ गिरीश तिवारी 'गिर्दा' तो दूसरी तरफ नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने गीतों से राज्य आंदोलनकारियों का जोश हाई रखा था. राज्य आंदोलन के दौरान नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ये गीत आज भी आंदोलनकारियों का टाइटल गीत होता है.

मथि पहाड़ बटि, निस गंगाड़ु बटि

इस्कुल-दफ्तर, गौं-बजारू बटि

मनख्यूंकि डार, धार-धारू बटि

हिटण लग्यां छन, बैठणा को लगा नी

बाटा भर्यां छन, सड़क्यूं मा जगा नी

बोला कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा

पलायन का दर्द गीतों से छलका: पलायन उत्तराखंड की बहुत बड़ी समस्या रहा है. उत्तराखंड में बड़ी संख्या में गांव पूरे खाली हो चुके हैं. इन गांवों को भूतिया गांव यानी घोस्ट विलेज कहा जाने लगा है. नरेंद्र सिंह नेगी पिछली सदी में ही पलायन रोकने के लिए गीत गा चुके थे. उनके इस गीत को सुनकर आज भी पहाड़ से मैदान की तरफ जा रहा व्यक्ति भावुक हो जाता है.

न दौड़-न दौड़ ते उंदारी का बाटा, उंदारी का बाटा

उंदारिकु सुख द्वी चार घड़ी कू

उकालिकु दुख सदानिकु सुख लाटा

पलायन पर उन्होंने एक और भावुक गीत लिखा, जो सोचने पर मजबूर कर देता है.

ये उंच्ची-उंच्ची डांडी कांठी

ये गैरि-गैरि रौंत्येलि घाटी

न जा, न जा, न जावा छोड़िकी

अपणि जल्म भूमि माटि

बोल्यूं माना, बोल्यूं माना, बोल्यूं माना

खाली पड़े घरों की व्यथा: पलायन के बाद खाली पड़े मकानों का दर्द भी नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में सुनाई देता है. शायद की किसी गायक ने पलायन से वीरान पड़े घरों-मकानों की दर्द बयां किया हो.

कख लगाणि छ्वीं, कैमा लगाणि छ्वीं

ये पहाड़ै की, कुमौं गढ़वाल की

रीता कूड़ों की, तीसा भांडों की

बगदा मनख्यूं की, रड़दा डांडों की

राजनीतिक गड़बड़ियों पर भी गाए गीत: जब-जब उत्तराखंड में राजनीति का पतन हुआ, नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी सांस्कृतिक जागरूकता को समझते हुए उस पर भी गीत लिखे. उत्तराखंड के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी (अब स्वर्गीय) के शासन में अनियमितताओं पर गाए गीत 'नौ छमी नारैणा' उस समय लोगों की जुबान पर ऐसा चढ़ा कि अगले चुनाव में तिवारी जी और उनकी पार्टी को को हारकर सत्ता से हाथ धोना पड़ा.

इसी तरह एक और मुख्यमंत्री के शासनकाल की घटनाओं की जब चारों तरफ निंदा होने लगी, तो फिर से नरेंद्र सिंह नेगी के सुर फूटे और

'अब कतगा खैल्यो' गीत उनकी जुबां से निकला. इस गीत ने भी उस मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका निभाई थी.

उत्तराखंड की संस्कृति के ध्वजवाहक नरेंद्र सिंह नेगी आज अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे करके 76वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं. उम्मीद है कि उनकी गीतों की स्वर्णिम यात्रा अनवरत जारी रहेगी. वो आगे भी व्यक्ति, समाज और राज्य को अपने गीतों से दिशा दिखाते रहेंगे. ईटीवी भारत उत्तराखंड के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं देते हुए उनकी स्वस्थ और सुखी जीवन की कामना करता है.
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देहरादून: अगर आपको किसी संस्कृति को जानना हो, समझना हो तो वहां का लोग संगीत सबसे बेहतर माध्यम होता है. लोक कलाकार किसी प्रांत और देश के संस्कृति के सच्चे वाहक होते हैं. उत्तराखंड में भी लोक संस्कृति के वाहक अपने गीतों से यहां की पहचान दर्शाते रहते हैं. इन लोकगायकों में सबसे अग्रणीय हैं नरेंद्र सिंह नेगी.

उत्तराखंड के सांस्कृतिक ध्वजवाहक हैं नरेंद्र सिंह नेगी: अगर आपको उत्तराखंड की संस्कृति को जानना और समझना है तो आप नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए. आप उनके गीतों को सुनकर उत्तराखंड, खासकर राज्य के पहाड़ी अंचल को काफी कुछ समझ जाएंगे. पहाड़ के तीज-त्यौहार, पहाड़ के रीति-रिवाज, मौसम, फसल, जल-जंगल और जमीन सभी के बारे में आपको नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में जानने-समझने को मिल जाएगा.

बॉब डिलन से होती है नरेंद्र सिंह नेगी की तुलना: उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की प्रसिद्धि इतनी है कि उनकी तुलना अमेरिका के प्रसिद्ध गायक-गीतकार बॉब डिलन से की जाती है. डिलन के 60 साल के सांस्कृतिक करियर ने उन्हें दुनिया के लोकप्रियक संस्कृति वाहकों में स्थान दिलाया था. इससे आप समझ सकते हैं कि लोक गायकी के क्षेत्र में नरेंद्र सिंह नेगी ने कितना अविस्मरणीय कार्य किया है.

1949 में पौड़ी में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी: उत्तराखंड रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पौड़ी गांव में हुआ था. मां समुद्रा देवी और पिता उमराव सिंह नेगी के घर में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी की संगीत यात्रा को 50 साल पूरे हो चुके हैं. इन 50 सालों में उन्होंने ऐसे-ऐसे गीत लिखे और गाए कि उनके प्रशंसकों ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया. उन्होंने जीवन और प्रकृति के साथ लोक व्यवहार, तीज-त्यौहार और राजनीति पर व्यंग्य करते हुए ऐसे-ऐसे गीत गाए कि वो लोगों की जुबान पर चढ़ गए.

नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है खास बात: बहुत कम लोगों की हिम्मत होती है कि वो सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर कलम चला सकें. नरेंद्र सिंह नेगी ने इन दोनों कुरीतियों को समाप्त करने के लिए अपनी गीतों का सहारा लिया. पहाड़ों में मंदिरों में होने वाली पशु बली पर उनका मार्मिक गीत लोगों को इतना पसंद आया कि उत्तराखंड में मंदिरों में अब पशुबलि लगभग बंद ही हो गई है. इस गीत के बोल जो सुन लेता है, उसकी आंखें भर आती हैं.

नि होणू रे नि होणू तेरा, देबि-द्यब्तौंल दैणू भेरा

बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी, बागी-बुगठ्योंऊं मारिकी

नि होणी रे नि होणी भलि, देकि निरदोषू की बलि

मंदिरों में ल्वेई चारिकी, मंदिरों में ल्वेई चारिकी

सोनु-चांदी रुप्या नी चांदा, द्यब्ता ल्वे-मांसू नि खांदा

द्यब्ता सच्ची श्रद्धा का भूखा, हाथ जोड़ि परसन्न ह्वे जांदा

इतने सरल और सहज शब्दों में बलि प्रथा का विरोध और समझाइश आपने कहीं नहीं सुनी होगी.

नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में है प्रकृति प्रेम: प्रकृति को नरेंद्र सिंह नेगी ने अलग ही अंदाज में अपने गीत में प्रस्तुत किया. उत्तराखंड के हिमालय और वहां के पर्वत पहाड़ पर जब धूप की किरणें पड़ती हैं तो कैसा दृश्य होता है, वो उनके इस गीत से पता चलता है.

चम-चमा, चम चमा, चम्म चमकी घाम डांड्यूं मा

हिमाली कांठी चांदी की बणि गेनी

शिवा का कैलाशु गाय पैलि-पैलि घाम

सेवा लगाणु आयु बदरी का धाम

आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि सूर्योदय और धूप के खिलने का वर्णन कितनी सुंदरता से किया जा सकता है.

गीतों से पौधरोपण को किया प्रेरित: पहाड़ में अभी हरेला पर्व पर सरकार ने महा वृक्षारोपण अभियान चलाया. नरेंद्र सिंह नेगी आधा दशक पहले ही इसका संदेश दे चुके थे. उनके इस गीत से बढ़कर वृक्षारोपण का संदेश और क्या हो सकता है.

आवा दिदा भुलों आवा

नांगि धरती की ढकावा

डालि वन-वनी लगावा

डालि द्यवतों का नौ की

डालि रोप पुन्य कमावा

नेगी जी के इस गीत ने पहाड़ के लोगों को पौधरोपण कि लिए प्रेरित किया. इसीलिए उत्तराखंड अपने वनों के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड की वन संपदा राज्य के लिए धरोहर बन गई.

वनों के कटान के खिलाफ गीत: एक ओर जहां नरेंद्र सिंह नेगी ने पौधरोपण के लिए प्रेरित किया, वहीं उन्होंने लोगों को पेड़ नहीं काटने का संदेश भी दिया. पेड़ नहीं काटने का अनुरोध करता नरेंद्र सिंह नेगी का ये गीत हमेशा प्रेरणादायी रहेगा.

ना काटा तौं डाल्यूं

तौं डाल्यूं न काटा दिदौं, डाल्यूं न काटा

डालि कटेलि त माटि बगेली

न कूड़ि, न पुंगड़ी, न डोखरी बचली

घास-लखड़ा न खेति ही राली

भोल तेरी आस-औलाद क्य खाली

पेड़ काटने का दंश आज उत्तराखंड भुगत रहा है. राज्य भर में जहां-तहां भूस्खलन हो रहा है. अगर इस गीत के संदेश को अपना लिया जाए तो भूस्खलन की बहुत बड़ी समस्या ही हल जो जाएगी.

उत्तराखंड आंदोलन का बैनर गीत: 90 के दशक में जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन चल रहा था तो एक तरफ गिरीश तिवारी 'गिर्दा' तो दूसरी तरफ नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने गीतों से राज्य आंदोलनकारियों का जोश हाई रखा था. राज्य आंदोलन के दौरान नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ये गीत आज भी आंदोलनकारियों का टाइटल गीत होता है.

मथि पहाड़ बटि, निस गंगाड़ु बटि

इस्कुल-दफ्तर, गौं-बजारू बटि

मनख्यूंकि डार, धार-धारू बटि

हिटण लग्यां छन, बैठणा को लगा नी

बाटा भर्यां छन, सड़क्यूं मा जगा नी

बोला कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा

पलायन का दर्द गीतों से छलका: पलायन उत्तराखंड की बहुत बड़ी समस्या रहा है. उत्तराखंड में बड़ी संख्या में गांव पूरे खाली हो चुके हैं. इन गांवों को भूतिया गांव यानी घोस्ट विलेज कहा जाने लगा है. नरेंद्र सिंह नेगी पिछली सदी में ही पलायन रोकने के लिए गीत गा चुके थे. उनके इस गीत को सुनकर आज भी पहाड़ से मैदान की तरफ जा रहा व्यक्ति भावुक हो जाता है.

न दौड़-न दौड़ ते उंदारी का बाटा, उंदारी का बाटा

उंदारिकु सुख द्वी चार घड़ी कू

उकालिकु दुख सदानिकु सुख लाटा

पलायन पर उन्होंने एक और भावुक गीत लिखा, जो सोचने पर मजबूर कर देता है.

ये उंच्ची-उंच्ची डांडी कांठी

ये गैरि-गैरि रौंत्येलि घाटी

न जा, न जा, न जावा छोड़िकी

अपणि जल्म भूमि माटि

बोल्यूं माना, बोल्यूं माना, बोल्यूं माना

खाली पड़े घरों की व्यथा: पलायन के बाद खाली पड़े मकानों का दर्द भी नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में सुनाई देता है. शायद की किसी गायक ने पलायन से वीरान पड़े घरों-मकानों की दर्द बयां किया हो.

कख लगाणि छ्वीं, कैमा लगाणि छ्वीं

ये पहाड़ै की, कुमौं गढ़वाल की

रीता कूड़ों की, तीसा भांडों की

बगदा मनख्यूं की, रड़दा डांडों की

राजनीतिक गड़बड़ियों पर भी गाए गीत: जब-जब उत्तराखंड में राजनीति का पतन हुआ, नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी सांस्कृतिक जागरूकता को समझते हुए उस पर भी गीत लिखे. उत्तराखंड के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी (अब स्वर्गीय) के शासन में अनियमितताओं पर गाए गीत 'नौ छमी नारैणा' उस समय लोगों की जुबान पर ऐसा चढ़ा कि अगले चुनाव में तिवारी जी और उनकी पार्टी को को हारकर सत्ता से हाथ धोना पड़ा.

इसी तरह एक और मुख्यमंत्री के शासनकाल की घटनाओं की जब चारों तरफ निंदा होने लगी, तो फिर से नरेंद्र सिंह नेगी के सुर फूटे और

'अब कतगा खैल्यो' गीत उनकी जुबां से निकला. इस गीत ने भी उस मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका निभाई थी.

उत्तराखंड की संस्कृति के ध्वजवाहक नरेंद्र सिंह नेगी आज अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे करके 76वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं. उम्मीद है कि उनकी गीतों की स्वर्णिम यात्रा अनवरत जारी रहेगी. वो आगे भी व्यक्ति, समाज और राज्य को अपने गीतों से दिशा दिखाते रहेंगे. ईटीवी भारत उत्तराखंड के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं देते हुए उनकी स्वस्थ और सुखी जीवन की कामना करता है.
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Last Updated : Aug 12, 2024, 11:48 AM IST
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