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उत्तराखंड में नये जिलों की घोषणा पर जमकर हुई पॉलिटिक्स, आजतक धरातल पर नहीं उतरे वादे

उत्तराखंड में सिर्फ चुनावी जुमला साबित हुआ नए जिलों का गठन मुद्दा, कई मुख्यमंत्रियों ने की घोषणा, धरातल पर नहीं उतरे वादे

UTTARAKHAND NEW DISTRICT POLITICS
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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : 3 hours ago

Updated : 1 hours ago

देहरादून: उत्तराखंड की राजनीति हमेशा जन भावनाओं के इर्द गिर्द घूमती रही है. इसी के तहत राजनीतिक नफा नुकसान के लिहाज से ही प्रदेश में कई बड़े निर्णय लिए गए. ये निर्णय केवल लिये गये इन पर कोई काम वास्तव में हुआ ही नहीं है. उत्तराखंड में नए जिलों का मामला भी कुछ ऐसा ही है. राज्य स्थापना दिवस के मौके पर 24 सालों में अधर में लटके नए जिलों का मुद्दा खास है. आइये इसे विस्तार से जानते हैं.

उत्तराखंड के इतिहास में जिस तरह गैरसैंण हमेशा ही एक राजनीतिक शिगुफा बनकर रहा, उसी तरह नए जिलों का मुद्दा भी राजनेताओं के लिए सिर्फ वोट बैंक की चाबी तक ही सीमित रहा. राज्य स्थापना के बाद से ही उत्तराखंड के तमाम क्षेत्रों में नए जिले गठित करने की मांग उठती रही. इसके लिए जनता सड़कों पर भी उतरी. बड़ी बात यह है कि तमाम राजनीतिक दल और सत्ता में बैठे लोग भी छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्ष में दिखाई दिए. लोगों की नए जिले गठन की मांग का भी समर्थन करते रहे, लेकिन कभी भी किसी सरकार ने इस पर ठोस कदम नहीं उठाया.

सबसे पहले निशंक ने की नये जिलों की घोषणा: उत्तराखंड में सबसे पहले 15 अगस्त 2011 को स्वतंत्रता दिवस के दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने चार जिलों के गठन की घोषणा की थी. इसके बाद तो मानों लोगों की नए जिले बनने की उम्मीदें सातवें आसमान पर पहुंच गई. लोगों की यह खुशी ज्यादा समय तक नहीं टिकी. यह घोषणा सिर्फ घोषणा तक ही सीमित रही. तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने दो नए जिले गढ़वाल मंडल और दो कुमाऊं मंडल में गठित करने की घोषणा की थी. इसमें उत्तरकाशी जिले के यमुनोत्री, पौड़ी जिले के कोटद्वार, पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट और अल्मोड़ा जिले के रानीखेत को नया जिला बनाने की घोषणा की गई थी.

UTTARAKHAND NEW DISTRICT POLITICS
सबसे पहले बीजेपी ने छोड़ा शिगूफा (ETV BHARAT)

2011 में बीसी खूंडूरी ने जारी किया शासनादेश: तत्कालीन मुख्यमंत्री की इस घोषणा के फौरन बाद उधम सिंह नगर जिले के काशीपुर में भी नए जिले के लिए मांग तेज हो गई. नए जिलों की सूची में काशीपुर को भी शामिल करने का आंदोलन शुरू हो गया. इसे देखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने काशीपुर को नया जिला घोषित करने की सहमति दी. बात यहीं तक नहीं ठहरी, राजनीतिक उठापटक में निशंक अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी को बैठे. इसके बाद भुवन चंद्र खंडूरी मुख्यमंत्री बन गए. उन्होंने अपनी ही सरकार में हुई घोषणा पर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 2011 में नए जिलों को लेकर शासनादेश जारी कर दिया. हालांकि, इसके बाद भी नए जिलों के गठन के लिए बजट की कोई व्यवस्था नहीं की गई.

2012 में विजय बहुगुणा ने गठित किया जिला पुनर्गठन आयोग: इसके बाद सत्ता भाजपा के हाथ से निकलकर कांग्रेस के हाथ में आ गई. कांग्रेस में विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. कांग्रेस की सरकार आने के बाद भी नए जिलों के गठन का मुद्दा ठंडा नहीं हुआ. विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद साल 2012 में जिला पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया. यह बात अलग है कि इससे आगे नए जिलों को लेकर काम कभी आगे ही नहीं बढ़ पाया.

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शिगूफा छोड़ने में कांग्रेस भी नहीं पीछे (ETV BHARAT)

हरीश रावत ने की 9 नये जिलों की घोषणा: उत्तराखंड में कांग्रेस के साथ भाजपा भी नए जिलों के गठन पर राजनीति करती रही है. सियासत के शतरंज में नए जिले चुनाव से पहले सत्ता पाने का सहारा बनते रहे. इसके बाद हरीश रावत कांग्रेस की सरकार में मुख्यमंत्री बने. उन्होंने पांच की जगह 9 जिलों के गठन का नया शिगूफा छोड़ा. हालांकि, इस बार उन्होंने नए जिलों के पुनर्गठन के लिए 100 करोड़ की व्यवस्था की. इस तरह राज्य स्थापना के बाद से ही नए जिलों की मांग के साथ राजनीतिक दलों के वायदे और इस पर नई-नई घोषणाएं भी होती रही. ये घोषणाएं कभी भी धरातल पर नहीं उतरी.

इस मामले में उत्तराखंड कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता शीशपाल बिष्ट क्या कहते हैं, आइये आपको बताते हैं. 'नए जिलों के गठन को लेकर कांग्रेस ने पहल तो की लेकिन इससे पहले कि वह इस पर कोई निर्णय ले पाते उन्हें सत्ता से बाहर जाना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रही. उन्होंने नए जिलों के नाम पर केवल लोगों को सपना दिखाने की कोशिश की'.

जिलों की मांग, भारी भरकम खर्च बना मुसीबत: उत्तराखंड में नए जिलों के गठन को लेकर सबसे बड़ी मुसीबत जिलों के गठन में लगने वाले भारी भरकम खर्च की रही है. नए जिले के गठन की स्थिति में सैकड़ो करोड़ के खर्च का बोझ राज्य उठाने की स्थिति में नहीं है. उत्तराखंड पहले ही वित्तीय रूप से बेहद कमजोर स्थिति में है. ऐसे में नए जिलों के गठन में लगने वाले करोड़ों के खर्च का बजट राज्य कहां से लेगा इस पर कभी भी कोई खाका तैयार नहीं हो पाया.

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क्या कहती है कांग्रेस (ETV BHARAT)

उत्तराखंड में नए जिलों की मांग कभी किसी एक क्षेत्र से नहीं निकली बल्कि राज्य के तमाम शहरों में नए जिलों की मांग होती रही है. ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए बड़ी समस्या यह भी है कि यदि किसी क्षेत्र को नए जिले के रूप में गठित किया जाता है तो बाकी तमाम क्षेत्रों से भी इसी तरह की आवाज उठने लगेगी. जिस क्षेत्र को नए जिले के रूप में स्थापित नहीं किया जाएगा वहां राजनीतिक रूप से फैसला लेने वाले दल को नुकसान झेलना पड़ेगा.

नये जिलों पर क्या है भाजपा का रुख:उत्तराखंड के भाजपा नेता भी इस बात को मानते हैं. उनका मानना है कि किसी भी नई प्रशासनिक इकाई के गठन से पहले संसाधन जुटाना बेहद जरूरी है. ऐसे में संसाधनों के आधार पर ही नए जिलों के गठन का निर्णय लिया जा सकता है. भाजपा नेता जोत सिंह बिष्ट कहते हैं कि भाजपा सरकार इस दिशा में विचार कर रही है. पूरी कार्य योजना के साथ भाजपा की सरकार इस पर कोई अंतिम निर्णय लेगी.

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क्या कहती है बीजेपी (ETV BHARAT)


नए जिलों की तरह गैरसैंण का वादा भी अधूरा: नए जिलों के गठन को लेकर जिस तरह उत्तराखंड के इतिहास में कभी राजनीतिक दलों का वादा पूरा नहीं हुआ इस तरह गैरसैंण पर भी हमेशा ही राजनीतिक रोटियां सेकी गई. जन भावनाओं से जुड़े स मुद्दे को आजतक पूरा नहीं किया गया. दुर्भाग्य यह है कि उत्तराखंड देश का एक ऐसा अकेला राज्य है जो 24 साल बीतने के बाद भी अब तक अपनी स्थाई राजधानी तय नहीं कर पाया है.

परिसीमन के बाद बदल जाएंगे हालात:उत्तराखंड में परिसीमन के बाद मैदानी जिलों में विधानसभा की सीटें बढ़ जाएंगी. पर्वतीय क्षेत्रों में सीटों की संख्या कम होगी. इसके बाद बाद राजनीतिक दलों के नफा नुकसान का पैमाना भी बदलने लगा है. शायद यही कारण रहा की स्थाई राजधानी पर कभी गैरसैंण को पूरे मन से स्वीकार ही नहीं किया गया.

पढ़ें- CM धामी की घोषणा से फिर गरमाया नए जिलों का मुद्दा, कब शुरू हुआ मामला, जानिए सबकुछ




देहरादून: उत्तराखंड की राजनीति हमेशा जन भावनाओं के इर्द गिर्द घूमती रही है. इसी के तहत राजनीतिक नफा नुकसान के लिहाज से ही प्रदेश में कई बड़े निर्णय लिए गए. ये निर्णय केवल लिये गये इन पर कोई काम वास्तव में हुआ ही नहीं है. उत्तराखंड में नए जिलों का मामला भी कुछ ऐसा ही है. राज्य स्थापना दिवस के मौके पर 24 सालों में अधर में लटके नए जिलों का मुद्दा खास है. आइये इसे विस्तार से जानते हैं.

उत्तराखंड के इतिहास में जिस तरह गैरसैंण हमेशा ही एक राजनीतिक शिगुफा बनकर रहा, उसी तरह नए जिलों का मुद्दा भी राजनेताओं के लिए सिर्फ वोट बैंक की चाबी तक ही सीमित रहा. राज्य स्थापना के बाद से ही उत्तराखंड के तमाम क्षेत्रों में नए जिले गठित करने की मांग उठती रही. इसके लिए जनता सड़कों पर भी उतरी. बड़ी बात यह है कि तमाम राजनीतिक दल और सत्ता में बैठे लोग भी छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्ष में दिखाई दिए. लोगों की नए जिले गठन की मांग का भी समर्थन करते रहे, लेकिन कभी भी किसी सरकार ने इस पर ठोस कदम नहीं उठाया.

सबसे पहले निशंक ने की नये जिलों की घोषणा: उत्तराखंड में सबसे पहले 15 अगस्त 2011 को स्वतंत्रता दिवस के दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने चार जिलों के गठन की घोषणा की थी. इसके बाद तो मानों लोगों की नए जिले बनने की उम्मीदें सातवें आसमान पर पहुंच गई. लोगों की यह खुशी ज्यादा समय तक नहीं टिकी. यह घोषणा सिर्फ घोषणा तक ही सीमित रही. तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने दो नए जिले गढ़वाल मंडल और दो कुमाऊं मंडल में गठित करने की घोषणा की थी. इसमें उत्तरकाशी जिले के यमुनोत्री, पौड़ी जिले के कोटद्वार, पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट और अल्मोड़ा जिले के रानीखेत को नया जिला बनाने की घोषणा की गई थी.

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सबसे पहले बीजेपी ने छोड़ा शिगूफा (ETV BHARAT)

2011 में बीसी खूंडूरी ने जारी किया शासनादेश: तत्कालीन मुख्यमंत्री की इस घोषणा के फौरन बाद उधम सिंह नगर जिले के काशीपुर में भी नए जिले के लिए मांग तेज हो गई. नए जिलों की सूची में काशीपुर को भी शामिल करने का आंदोलन शुरू हो गया. इसे देखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने काशीपुर को नया जिला घोषित करने की सहमति दी. बात यहीं तक नहीं ठहरी, राजनीतिक उठापटक में निशंक अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी को बैठे. इसके बाद भुवन चंद्र खंडूरी मुख्यमंत्री बन गए. उन्होंने अपनी ही सरकार में हुई घोषणा पर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 2011 में नए जिलों को लेकर शासनादेश जारी कर दिया. हालांकि, इसके बाद भी नए जिलों के गठन के लिए बजट की कोई व्यवस्था नहीं की गई.

2012 में विजय बहुगुणा ने गठित किया जिला पुनर्गठन आयोग: इसके बाद सत्ता भाजपा के हाथ से निकलकर कांग्रेस के हाथ में आ गई. कांग्रेस में विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. कांग्रेस की सरकार आने के बाद भी नए जिलों के गठन का मुद्दा ठंडा नहीं हुआ. विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद साल 2012 में जिला पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया. यह बात अलग है कि इससे आगे नए जिलों को लेकर काम कभी आगे ही नहीं बढ़ पाया.

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शिगूफा छोड़ने में कांग्रेस भी नहीं पीछे (ETV BHARAT)

हरीश रावत ने की 9 नये जिलों की घोषणा: उत्तराखंड में कांग्रेस के साथ भाजपा भी नए जिलों के गठन पर राजनीति करती रही है. सियासत के शतरंज में नए जिले चुनाव से पहले सत्ता पाने का सहारा बनते रहे. इसके बाद हरीश रावत कांग्रेस की सरकार में मुख्यमंत्री बने. उन्होंने पांच की जगह 9 जिलों के गठन का नया शिगूफा छोड़ा. हालांकि, इस बार उन्होंने नए जिलों के पुनर्गठन के लिए 100 करोड़ की व्यवस्था की. इस तरह राज्य स्थापना के बाद से ही नए जिलों की मांग के साथ राजनीतिक दलों के वायदे और इस पर नई-नई घोषणाएं भी होती रही. ये घोषणाएं कभी भी धरातल पर नहीं उतरी.

इस मामले में उत्तराखंड कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता शीशपाल बिष्ट क्या कहते हैं, आइये आपको बताते हैं. 'नए जिलों के गठन को लेकर कांग्रेस ने पहल तो की लेकिन इससे पहले कि वह इस पर कोई निर्णय ले पाते उन्हें सत्ता से बाहर जाना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रही. उन्होंने नए जिलों के नाम पर केवल लोगों को सपना दिखाने की कोशिश की'.

जिलों की मांग, भारी भरकम खर्च बना मुसीबत: उत्तराखंड में नए जिलों के गठन को लेकर सबसे बड़ी मुसीबत जिलों के गठन में लगने वाले भारी भरकम खर्च की रही है. नए जिले के गठन की स्थिति में सैकड़ो करोड़ के खर्च का बोझ राज्य उठाने की स्थिति में नहीं है. उत्तराखंड पहले ही वित्तीय रूप से बेहद कमजोर स्थिति में है. ऐसे में नए जिलों के गठन में लगने वाले करोड़ों के खर्च का बजट राज्य कहां से लेगा इस पर कभी भी कोई खाका तैयार नहीं हो पाया.

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क्या कहती है कांग्रेस (ETV BHARAT)

उत्तराखंड में नए जिलों की मांग कभी किसी एक क्षेत्र से नहीं निकली बल्कि राज्य के तमाम शहरों में नए जिलों की मांग होती रही है. ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए बड़ी समस्या यह भी है कि यदि किसी क्षेत्र को नए जिले के रूप में गठित किया जाता है तो बाकी तमाम क्षेत्रों से भी इसी तरह की आवाज उठने लगेगी. जिस क्षेत्र को नए जिले के रूप में स्थापित नहीं किया जाएगा वहां राजनीतिक रूप से फैसला लेने वाले दल को नुकसान झेलना पड़ेगा.

नये जिलों पर क्या है भाजपा का रुख:उत्तराखंड के भाजपा नेता भी इस बात को मानते हैं. उनका मानना है कि किसी भी नई प्रशासनिक इकाई के गठन से पहले संसाधन जुटाना बेहद जरूरी है. ऐसे में संसाधनों के आधार पर ही नए जिलों के गठन का निर्णय लिया जा सकता है. भाजपा नेता जोत सिंह बिष्ट कहते हैं कि भाजपा सरकार इस दिशा में विचार कर रही है. पूरी कार्य योजना के साथ भाजपा की सरकार इस पर कोई अंतिम निर्णय लेगी.

UTTARAKHAND NEW DISTRICT POLITICS
क्या कहती है बीजेपी (ETV BHARAT)


नए जिलों की तरह गैरसैंण का वादा भी अधूरा: नए जिलों के गठन को लेकर जिस तरह उत्तराखंड के इतिहास में कभी राजनीतिक दलों का वादा पूरा नहीं हुआ इस तरह गैरसैंण पर भी हमेशा ही राजनीतिक रोटियां सेकी गई. जन भावनाओं से जुड़े स मुद्दे को आजतक पूरा नहीं किया गया. दुर्भाग्य यह है कि उत्तराखंड देश का एक ऐसा अकेला राज्य है जो 24 साल बीतने के बाद भी अब तक अपनी स्थाई राजधानी तय नहीं कर पाया है.

परिसीमन के बाद बदल जाएंगे हालात:उत्तराखंड में परिसीमन के बाद मैदानी जिलों में विधानसभा की सीटें बढ़ जाएंगी. पर्वतीय क्षेत्रों में सीटों की संख्या कम होगी. इसके बाद बाद राजनीतिक दलों के नफा नुकसान का पैमाना भी बदलने लगा है. शायद यही कारण रहा की स्थाई राजधानी पर कभी गैरसैंण को पूरे मन से स्वीकार ही नहीं किया गया.

पढ़ें- CM धामी की घोषणा से फिर गरमाया नए जिलों का मुद्दा, कब शुरू हुआ मामला, जानिए सबकुछ




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