नई दिल्ली: श्रीलंका के नए राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके के देश की संसद को भंग करने और 14 नवंबर को नए संसदीय चुनावों का आह्वान करने के साथ, सभी की निगाहें इस बात पर होंगी कि आने वाले समय में द्वीप राष्ट्र किस संवैधानिक मार्ग पर चलेगा.
यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि नौवें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में चुने गए दिसानायके ने श्रीलंका में कार्यकारी राष्ट्रपति सिस्टम को समाप्त करने और संसद की प्रधानता को बहाल करने का वादा किया है. नेशनल पीपुल्स पावर (NPP) गठबंधन के राष्ट्रपति चुनाव घोषणापत्र के अनुसार, जिसके प्रतिनिधित्व से दिसानायके राष्ट्रपति बने हैं, कार्यकारी राष्ट्रपति पद को समाप्त कर दिया जाएगा और संसद बिना किसी कार्यकारी शक्तियों के देश के राष्ट्रपति की नियुक्ति करेगी.
NPP के घोषणापत्र में यह भी कहा गया है कि एक नया संविधान तैयार किया जाएगा और इसे आवश्यक परिवर्तनों के साथ, अगर कोई हो तो सार्वजनिक चर्चा करके जनमत संग्रह के माध्यम से पारित किया जाएगा.
1948 में ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता
बता दें कि सीलोन (श्रीलंका का पुराना नाम) ने 1948 में ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त की थी. सोलबरी संविधान के तहत, जिसमें 1947 का सीलोन स्वतंत्रता अधिनियम और 1947 में सीलोन (संविधान और स्वतंत्रता) आदेश शामिल थे. सीलोन एक संवैधानिक राजतंत्र बन गया, जिसमें सरकार का वेस्टमिंस्टर संसदीय स्वरूप था.
सीलोन के राजा (ब्रिटिश सम्राट) राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करते थे, जिसका प्रतिनिधित्व गवर्नर-जनरल द्वारा किया जाता था, जबकि प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करते थे. गवर्नर-जनरल ने ब्रिटिश सीलोन के गवर्नर के पद की जगह ली, जिन्होंने पहले 1815 से पूरे द्वीप पर कार्यकारी नियंत्रण का प्रयोग किया था.
1972 में एक नया गणतंत्रात्मक संविधान अपनाया गया, जिसने देश का नाम सीलोन से बदलकर श्रीलंका करने के अलावा, द्वीप राष्ट्र को संसदीय गणराज्य घोषित किया, जिसमें राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है. राष्ट्रपति काफी हद तक औपचारिक व्यक्ति था. वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री के पास ही रही. विलियम गोपालवा, जो सीलोन के अंतिम गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यरत थे, श्रीलंका के पहले राष्ट्रपति बने.
1978 में संविधान के दूसरे संशोधन ने वेस्टमिंस्टर सिस्टम को सेमी- प्रेजिडेंट सिस्टम से बदल दिया और राष्ट्रपति पद फ्रांसीसी मॉडल पर आधारित एक कार्यकारी पद बन गया और अब यह राज्य का प्रमुख और सरकार का प्रमुख दोनों था, जिसका कार्यकाल लंबा था और यह संसद से स्वतंत्र था. राष्ट्रपति सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ, मंत्रियों के मंत्रिमंडल के प्रमुख थे, और उनके पास संसद को भंग करने और बुलाने की शक्ति थी. प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के सहायक और उप-प्रधान और राष्ट्रपति के उत्तराधिकारी दोनों के रूप में काम करता था.
कार्यकारी राष्ट्रपति पद की शुरुआत 1978 में यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) के अध्यक्ष जेआर जयवर्धने के नेतृत्व में की गई थी. इसका उद्देश्य कार्यकारी नेतृत्व में निरंतरता सुनिश्चित करके देश के शासन को स्थिर करना था, विशेष रूप से संकट के समय में और 1970 के दशक की आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का समाधान करने के लिए अधिक केंद्रीकृत निर्णय लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा देना था.
जयवर्धने का मानना था कि यह सिस्टम तेजी से निर्णय लेने की अनुमति देगी, जिससे संसदीय प्रणालियों से जुड़े विधायी गतिरोध और गुटबाजी से बचा जा सकेगा. यह विशेष रूप से प्रासंगिक था, क्योंकि श्रीलंका को आर्थिक कठिनाइयों और सिंहली और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच जातीय संघर्ष के शुरुआती संकेतों का सामना करना पड़ा था.
रणसिंघे प्रेमदासा, डिंगिरी बांदा विजेतुंगा, चंद्रिका कुमारतुंगा, महिंदा राजपक्षे, मैत्रीपाला सिरिसेना, गोटाबाया राजपक्षे, रानिल विक्रमसिंघे और अब दिसानायके ने जयवर्धने के बाद कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाला है.
श्रीलंका में संसदीय चुनाव प्रक्रिया क्या है?
श्रीलंका में पिछला संसदीय चुनाव 2020 में हुआ था. 2024 के संसदीय चुनावों के लिए नामांकन 4 से 11 अक्टूबर तक स्वीकार किए जाएंगे. चुनाव के बाद, नव निर्वाचित संसद 21 नवंबर को बुलाई जाने की उम्मीद है.
श्रीलंका की संसद एक सदनीय विधायिका है, और इसमें 225 सदस्य होते हैं. इनमें से 196 सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का उपयोग करके बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों से लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं. शेष 29 सीटें चुनाव में राजनीतिक दलों के समग्र प्रदर्शन के आधार पर एक राष्ट्रीय सूची के माध्यम से आवंटित की जाती हैं.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि छोटे दलों सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की संसद में आवाज़ हो. यह प्रणाली सिंहली, तमिल और मुसलमानों सहित श्रीलंका की बहु-जातीय, बहु-धार्मिक आबादी का विविध प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देती है.
संसद आमतौर पर पांच साल के कार्यकाल के लिए चुनी जाती है. हालांकि, अभी तक, श्रीलंका के राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने और नए चुनाव कराने की शक्ति है, बशर्ते कि पिछले चुनाव को कम से कम साढ़े चार साल बीत चुके हों.18 साल या उससे अधिक आयु के सभी श्रीलंकाई नागरिक मतदान करने के पात्र हैं. मतदाताओं को अपना वोट डालने के लिए उस निर्वाचन क्षेत्र में पंजीकृत होना चाहिए जहां वे रहते हैं.
इस साल श्रीलंका में होने वाले संसदीय चुनावों का क्या महत्व है?
राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद, दिसानायके ने अपनी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) पार्टी के सदस्य हरिनी अमरसूर्या को प्रधानमंत्री नियुक्त किया है, जो एनपीपी गठबंधन का हिस्सा है. दिसानायके के पूर्ववर्ती रानिल विक्रमसिंघे ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वह अब चुनाव नहीं लड़ेंगे और इसके बजाय, अपनी पार्टी, यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) को मजबूत करने के लिए अपना समय समर्पित करेंगे. विक्रमसिंघे इससे पहले 1993 से 1994 तक, 2001 से 2004 तक, 2015 से 2019 तक और 2022 में प्रधानमंत्री रह चुके हैं.
इस बीच, राष्ट्रपति चुनाव में दिसानायके के निकटतम प्रतिद्वंद्वी, समागी जन बालावेगया (एसजेबी) के सजित प्रेमदासा ने घोषणा की है कि वह संसदीय चुनावों में अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. प्रेमदासा निवर्तमान संसद में विपक्ष के नेता थे. वह राष्ट्रपति चुनाव में दिसानायके से दस लाख से अधिक मतों के अंतर से हार गए थे.
श्रीलंका की राजनीति में दूसरी बड़ी पार्टी श्रीलंका पोडुजना पेरामुना (SLPP) ने अभी तक ऐसी कोई योजना घोषित नहीं की है. एसएलपीपी नेता महिंदा राजपक्षे, जो श्रीलंका के छठे राष्ट्रपति थे, ने 2004 से 2005 तक, 2018 में और 2019 से 2022 तक देश के प्रधानमंत्री के रूप में भी काम किया था. अब, अगर एनपीपी गठबंधन संसदीय चुनावों में बहुमत हासिल करता है, तो अमरसूर्या प्रधानमंत्री बने रहेंगे.
एनपीपी गठबंधन के लिए एक नया संविधान तैयार करने और कार्यकारी राष्ट्रपति पद को खत्म करने का रास्ता भी साफ हो जाएगा. हालांकि, अगर कोई अन्य पार्टी बहुमत हासिल करती है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि कार्यकारी राष्ट्रपति पद का क्या हश्र होता है.
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