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पर्यावरण अनुकूल कृषि की ओर बढ़ें, सिंथेटिक फर्टिलाइजर से हो रहा नुकसान - Environment Friendly Agriculture

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By C P Rajendran

Published : Jun 28, 2024, 5:01 AM IST

Environment Friendly Sustainable Agriculture: 1960 के दशक में आई हरित क्रांति के बाद भारत ने भी विकासशील देशों की तरह कृषि क्षेत्र में काफी विकास किया. हालांकि, इस दौरान पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा.

environment friendly agriculture
पर्यावरण अनुकूल कृषि (सांकेतिक तस्वीर ANI)

नई दिल्ली: विकासशील देशों की तरह भारत में भी कृषि विकास में तेजी से वृद्धि हुई है. खासकर 1960 के दशक में आई हरित क्रांति के बाद. आंकड़े बताते हैं कि 1970 से 2015 के बीच हंगर रेट 33 फीसदी से घटकर 12 प्रतिशत रह गया, जिसका क्रेडिट कृषि प्रौद्योगिकियों को जाता है. हालांकि, इसके लिए पर्यावरणीय को काफी नुकसान उठानी पड़ा, क्योंकि यह विकास फर्टिलाइजर के अत्यधिक इस्तेमाल, भूजल और सतही जल के अत्यधिक दोहन पर आधारित था.

ऐसे में अगर 20वीं शताब्दी में कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए कोई एक क्रांतिकारी विकास था, तो वह है ‘हैबर-बॉश’ प्रक्रिया, जिसका उपयोग एटमोस्फेरिक नाइट्रोजन से सिंथेटिक फर्टिलाइजर बनाने के लिए किया गया था. इसके अलावा एग्रीकल्चर प्रोडक्शन में बढ़ोतरी के चलते मिट्टी की नेचुरल फर्टिलाइजेशन में कमी और जलमार्गों के प्रदूषण भी हुआ है. इसके चलते किसानों को कृषि उत्पादन की कीमतों में वृद्धि और पर्यावरण संबंधी मुद्दों की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है. इसमें सतही और भूजल उपलब्धता में कमी शामिल है.

महामारी के बाद से भूख की दर बढ़ रही है
उत्पादकता संकट ने भूख से निपटने की प्रगति को प्रभावित किया है और महामारी के बाद से भूख की दर बढ़ रही है. एक बड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए 2050 तक कृषि उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत की वृद्धि होनी चाहिए. हम इस लक्ष्य तक बिना किसी बड़े पर्यावरणीय नुकसान के कैसे पहुच सकते हैं, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर अकादमिक जगत में चर्चा हो रही है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार जलवायु परिवर्तन मानव समाज को भुखमरी के कगार पर ला रहा है, जहां लगभग 800 मिलियन लोग भूखे हैं. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन खाद्य सुरक्षा में कमी का एक प्रमुख कारण है - बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा पैटर्न और मौसम के कारण किसानों के लिए पहले जितना भोजन उगाना मुश्किल हो रहा है.

विशेषज्ञों ने सूखा और रोग प्रतिरोधी फसलें विकसित करने के लिए जीन एडिटिंग के एप्लीकेशन सहित कई रणनीतियां सामने रखीं. नई प्रजनन तकनीक जेनेटिक म्यूटेशन या पारंपरिक प्रजनन के माध्यम से पौधों को बदल देती है जो उन्हें जेनेटिक रूप से संशोधित फसलों से अलग करती है. फिलहाल यह तकनीक विवादास्पद बनी हुई है.

सॉल्ट-टोलरेंट चावल विकसित कर रहा स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन
एक्स्पर्ट्स एडवांस पौध प्रजनन तकनीक के बारे में बात करते हैं, जो CRISPR जीन एडीटिंग का उपयोग करती है. इससे पौधे अपने सभी डीएनए (जीनोम) को अपने ऑफ स्प्रिंग (संतानों) में स्थानांतरित कर सकते हैं न कि प्रत्येक पेरेंट्स के आधे जीन को, जिससे आनुवंशिक विविधता आएगी.

मानव समाज की तरह, जेनेटिक डायवर्सिटी पौधों को स्वस्थ और लंबे जीवन के साथ तेजी से बढ़ने में मदद करती है. भारत में स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन सॉल्ट- टोलरेंट चावल विकसित कर रहा है, ताकि समुद्र के स्तर में वृद्धि और परिणामस्वरूप मिट्टी की सैलिनिटी में वृद्धि के कारण चुनौतियों का सामना करने वाले किसानों की मदद की जा सके.

एनवायरनमेंटल डिग्रेडेशन से कृषि उत्पादकता में कमी का खतरा
'टू वर्ड एन एवरग्रीन रेव्यूलूशन' टाइटल वाले एक आर्टिकल में मेहा जैन और बलविंदर सिंह (इन बेटर प्लैनेट में: बिग आइडियाज फॉर ए सस्टैनेबल फ्यूचर संपादक: डैनियल सी. एस्टी - येल यूनिवर्सिटी प्रेस) ने कहा कि तापमान में वृद्धि और एनवायरनमेंटल डिग्रेडेशन से दुनिया भर में कृषि उत्पादकता में कमी आने का खतरा है. उनका कहना है कि ये समस्याएं एशिया और लैटिन अमेरिका के गरीब देशों के छोटे किसानों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करेंगी, जो वैश्विक खाद्य आपूर्ति का लगभग एक तिहाई उत्पादन करते हैं.

कृषि उत्पादन में परिवर्तनकारी चरण, एनवायरनमेंटल स्ट्रेस के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया देने वाली उच्च उपज वाली बीज की नई किस्मों सहित ग्रीन टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए, अच्छी कृषि पद्धतियों को अपनाने पर निर्भर करता है. टिकाऊ परिवर्तन जल उपयोग और बेहतर सॉइल हेल्थ को जोड़ता है. यह भारत के मुख्य अनाज बेल्ट, सिंधु-गंगा के मैदानों के छोटे किसानों की मदद करेगा. वे जो सुझाव देते हैं उसे कंजर्वेटिव एग्रीकल्चर के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो सॉइल मैनेजमेंट प्रैक्टिस का एक सेट प्रदान करता है, जो मिट्टी की संरचना और प्राकृतिक जैव विविधता के विघटन को कम करता है.

जीरो जुताई की सलाह
अपने आर्टिकल में, लेखक मिनिमम मैकेनिकल सॉइल डिस्टर्बेंस और जीरो जुताई की सलाह देते हैं. जीरो जुताई फसल अवशेषों और विविध फसल रोटेशन के साथ एक परमानेंट ओर्गेनिक सॉइल कवर विकसित करने में मदद करती है. यह विधि मिट्टी की नमी और कार्बनिक पदार्थों के संरक्षण में भी मदद करेगी. इससे सिंथेटिक फर्टिलाइजर के इस्तेमाल का अंत होगा, और परिणामस्वरूप मिट्टी के भीतर सूक्ष्म जीवों की वृद्धि होगी. जीरो जुताई पराली जलाने की प्रथा को कम करने में भी फायदेमंद है जो वायु प्रदूषण में योगदान करने वालों में से एक है. 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में जीरो जुताई विकसित हुई क्योंकि इसने 1930 के दशक के दौरान धूल के कटोरे वाले राज्यों में मिट्टी के कटाव को कम किया.

हालांकि, भारत में जीरो जुताई की तकनीक मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया के अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र की सहायता से शुरू की गई थी, फिर भी भारत में केवल 1 प्रतिशत से भी कम किसानों ने इस तकनीक को अपनाया है. इस नई पद्धति से किसानों को कम फर्टिलाइजर और पानी के उपयोग के साथ गेहूं उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि करने में मदद मिली है.

अब सवाल यह है कि उत्तरी भारत में किसानों द्वारा इसे व्यापक रूप से क्यों अपनाया जाता है, जहां गेहूं-चावल की फसल रोटेशन प्रैक्टिस की जाता है? मेहा जैन और बलविंदर सिंह के अनुसार, बीज बोने की पद्धति भारतीय इको सिस्टम के अनुकूल नहीं थी और इसकी लागत भी प्रभावी नहीं थी. वहीं, जीरो जुताई की सफलता बंजर भूमि में बीज बोने के लिए सस्ती मशीनरी पर निर्भर करती है. सरकारी सब्सिडी के बावजूद अधिकांश किसान नई सीडर मशीनें खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं. जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से जीरो-टिलेज पद्धति को भी अच्छी तरह से लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है.

प्रिया श्यामसुंदर और उनके सहयोगियों ने 9 अगस्त, 2019 में अपने लेख में इन पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की और सुझाव दिया कि भारत के पास समन्वित सार्वजनिक और निजी कार्यों के माध्यम से, पराली जलाने को कम करने, आय बढ़ाने और मौसमी वायु प्रदूषण की तत्काल समस्या का समाधान करते हुए अधिक टिकाऊ कृषि में संक्रमण के माध्यम से एक बड़ा अवसर है.

यह भी पढ़ें- ऊर्जा क्षेत्र में टिकाऊ भविष्य के लिए महिलाओं को सशक्त बनाना जरूरी

नई दिल्ली: विकासशील देशों की तरह भारत में भी कृषि विकास में तेजी से वृद्धि हुई है. खासकर 1960 के दशक में आई हरित क्रांति के बाद. आंकड़े बताते हैं कि 1970 से 2015 के बीच हंगर रेट 33 फीसदी से घटकर 12 प्रतिशत रह गया, जिसका क्रेडिट कृषि प्रौद्योगिकियों को जाता है. हालांकि, इसके लिए पर्यावरणीय को काफी नुकसान उठानी पड़ा, क्योंकि यह विकास फर्टिलाइजर के अत्यधिक इस्तेमाल, भूजल और सतही जल के अत्यधिक दोहन पर आधारित था.

ऐसे में अगर 20वीं शताब्दी में कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए कोई एक क्रांतिकारी विकास था, तो वह है ‘हैबर-बॉश’ प्रक्रिया, जिसका उपयोग एटमोस्फेरिक नाइट्रोजन से सिंथेटिक फर्टिलाइजर बनाने के लिए किया गया था. इसके अलावा एग्रीकल्चर प्रोडक्शन में बढ़ोतरी के चलते मिट्टी की नेचुरल फर्टिलाइजेशन में कमी और जलमार्गों के प्रदूषण भी हुआ है. इसके चलते किसानों को कृषि उत्पादन की कीमतों में वृद्धि और पर्यावरण संबंधी मुद्दों की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है. इसमें सतही और भूजल उपलब्धता में कमी शामिल है.

महामारी के बाद से भूख की दर बढ़ रही है
उत्पादकता संकट ने भूख से निपटने की प्रगति को प्रभावित किया है और महामारी के बाद से भूख की दर बढ़ रही है. एक बड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए 2050 तक कृषि उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत की वृद्धि होनी चाहिए. हम इस लक्ष्य तक बिना किसी बड़े पर्यावरणीय नुकसान के कैसे पहुच सकते हैं, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर अकादमिक जगत में चर्चा हो रही है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार जलवायु परिवर्तन मानव समाज को भुखमरी के कगार पर ला रहा है, जहां लगभग 800 मिलियन लोग भूखे हैं. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन खाद्य सुरक्षा में कमी का एक प्रमुख कारण है - बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा पैटर्न और मौसम के कारण किसानों के लिए पहले जितना भोजन उगाना मुश्किल हो रहा है.

विशेषज्ञों ने सूखा और रोग प्रतिरोधी फसलें विकसित करने के लिए जीन एडिटिंग के एप्लीकेशन सहित कई रणनीतियां सामने रखीं. नई प्रजनन तकनीक जेनेटिक म्यूटेशन या पारंपरिक प्रजनन के माध्यम से पौधों को बदल देती है जो उन्हें जेनेटिक रूप से संशोधित फसलों से अलग करती है. फिलहाल यह तकनीक विवादास्पद बनी हुई है.

सॉल्ट-टोलरेंट चावल विकसित कर रहा स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन
एक्स्पर्ट्स एडवांस पौध प्रजनन तकनीक के बारे में बात करते हैं, जो CRISPR जीन एडीटिंग का उपयोग करती है. इससे पौधे अपने सभी डीएनए (जीनोम) को अपने ऑफ स्प्रिंग (संतानों) में स्थानांतरित कर सकते हैं न कि प्रत्येक पेरेंट्स के आधे जीन को, जिससे आनुवंशिक विविधता आएगी.

मानव समाज की तरह, जेनेटिक डायवर्सिटी पौधों को स्वस्थ और लंबे जीवन के साथ तेजी से बढ़ने में मदद करती है. भारत में स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन सॉल्ट- टोलरेंट चावल विकसित कर रहा है, ताकि समुद्र के स्तर में वृद्धि और परिणामस्वरूप मिट्टी की सैलिनिटी में वृद्धि के कारण चुनौतियों का सामना करने वाले किसानों की मदद की जा सके.

एनवायरनमेंटल डिग्रेडेशन से कृषि उत्पादकता में कमी का खतरा
'टू वर्ड एन एवरग्रीन रेव्यूलूशन' टाइटल वाले एक आर्टिकल में मेहा जैन और बलविंदर सिंह (इन बेटर प्लैनेट में: बिग आइडियाज फॉर ए सस्टैनेबल फ्यूचर संपादक: डैनियल सी. एस्टी - येल यूनिवर्सिटी प्रेस) ने कहा कि तापमान में वृद्धि और एनवायरनमेंटल डिग्रेडेशन से दुनिया भर में कृषि उत्पादकता में कमी आने का खतरा है. उनका कहना है कि ये समस्याएं एशिया और लैटिन अमेरिका के गरीब देशों के छोटे किसानों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करेंगी, जो वैश्विक खाद्य आपूर्ति का लगभग एक तिहाई उत्पादन करते हैं.

कृषि उत्पादन में परिवर्तनकारी चरण, एनवायरनमेंटल स्ट्रेस के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया देने वाली उच्च उपज वाली बीज की नई किस्मों सहित ग्रीन टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए, अच्छी कृषि पद्धतियों को अपनाने पर निर्भर करता है. टिकाऊ परिवर्तन जल उपयोग और बेहतर सॉइल हेल्थ को जोड़ता है. यह भारत के मुख्य अनाज बेल्ट, सिंधु-गंगा के मैदानों के छोटे किसानों की मदद करेगा. वे जो सुझाव देते हैं उसे कंजर्वेटिव एग्रीकल्चर के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो सॉइल मैनेजमेंट प्रैक्टिस का एक सेट प्रदान करता है, जो मिट्टी की संरचना और प्राकृतिक जैव विविधता के विघटन को कम करता है.

जीरो जुताई की सलाह
अपने आर्टिकल में, लेखक मिनिमम मैकेनिकल सॉइल डिस्टर्बेंस और जीरो जुताई की सलाह देते हैं. जीरो जुताई फसल अवशेषों और विविध फसल रोटेशन के साथ एक परमानेंट ओर्गेनिक सॉइल कवर विकसित करने में मदद करती है. यह विधि मिट्टी की नमी और कार्बनिक पदार्थों के संरक्षण में भी मदद करेगी. इससे सिंथेटिक फर्टिलाइजर के इस्तेमाल का अंत होगा, और परिणामस्वरूप मिट्टी के भीतर सूक्ष्म जीवों की वृद्धि होगी. जीरो जुताई पराली जलाने की प्रथा को कम करने में भी फायदेमंद है जो वायु प्रदूषण में योगदान करने वालों में से एक है. 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में जीरो जुताई विकसित हुई क्योंकि इसने 1930 के दशक के दौरान धूल के कटोरे वाले राज्यों में मिट्टी के कटाव को कम किया.

हालांकि, भारत में जीरो जुताई की तकनीक मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया के अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र की सहायता से शुरू की गई थी, फिर भी भारत में केवल 1 प्रतिशत से भी कम किसानों ने इस तकनीक को अपनाया है. इस नई पद्धति से किसानों को कम फर्टिलाइजर और पानी के उपयोग के साथ गेहूं उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि करने में मदद मिली है.

अब सवाल यह है कि उत्तरी भारत में किसानों द्वारा इसे व्यापक रूप से क्यों अपनाया जाता है, जहां गेहूं-चावल की फसल रोटेशन प्रैक्टिस की जाता है? मेहा जैन और बलविंदर सिंह के अनुसार, बीज बोने की पद्धति भारतीय इको सिस्टम के अनुकूल नहीं थी और इसकी लागत भी प्रभावी नहीं थी. वहीं, जीरो जुताई की सफलता बंजर भूमि में बीज बोने के लिए सस्ती मशीनरी पर निर्भर करती है. सरकारी सब्सिडी के बावजूद अधिकांश किसान नई सीडर मशीनें खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं. जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से जीरो-टिलेज पद्धति को भी अच्छी तरह से लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है.

प्रिया श्यामसुंदर और उनके सहयोगियों ने 9 अगस्त, 2019 में अपने लेख में इन पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की और सुझाव दिया कि भारत के पास समन्वित सार्वजनिक और निजी कार्यों के माध्यम से, पराली जलाने को कम करने, आय बढ़ाने और मौसमी वायु प्रदूषण की तत्काल समस्या का समाधान करते हुए अधिक टिकाऊ कृषि में संक्रमण के माध्यम से एक बड़ा अवसर है.

यह भी पढ़ें- ऊर्जा क्षेत्र में टिकाऊ भविष्य के लिए महिलाओं को सशक्त बनाना जरूरी

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