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उत्तराखंड की राजनीति में खास हैं मिथकों के मायने, ये हैं रोचक MYTH, कुछ टूटे, कुछ बरकरार

Myths of Uttarakhand Politics, Uttarakhand Lok Sabha Election Myth उत्तराखंड की राजनीति और चुनाव से जुड़े कुछ दिलचस्प मिथक हैं. इनमें से कई मिथक ऐसे हैं जो समय के साथ टूट गये. वहीं, कुछ ऐसे मिथक हैं जो आज भी बरकरार हैं. ये मिथक लोकसभा और विधानसभा चुनावों से जुड़े हैं. आइये ऐसे ही कुछ मिथकों पर एक नजर डालते हैं.

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उत्तराखंड राजनीति मेंमिथक (Etv Bharat)
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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Mar 8, 2024, 4:58 PM IST

Updated : Jun 2, 2024, 7:10 PM IST

देहरादून(उत्तराखंड): देश में लोकसभा चुनाव के लिए वोटिंग पूरी हो गई है. 4 जून को काउंटिंग होनी है. उससे पहले सभी सियासी दलों की सांसें अटकी हुई हैं. सभी राजनीतिक दल अपनी जीत हार का मंथन कर रहे हैं. क्षेत्र, जाति, मिथकों पर चर्चा की जा रही है. राजनीति में मिथकों के बहुत से मायने होते हैं. आज की खबर में ईटीवी भारत अपने पाठकों को उत्तराखंड की राजनीति और चुनाव से जुड़े ऐसे ही कुछ अनोखे मिथकों के बारे में बताने जा रहा है.

उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीटों पर होने वाला चुनाव बेहद रोमांचक रहा. 2014 और 2019 में बीजेपी ने उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर क्लीन स्वीप किया है. अभी पांचों लोकसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. 2024 लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा. वहीं, कांग्रेस ने भी बीजेपी को टक्कर देने की कोशिश की.

जिसकी केंद्र में सरकार, उसकी हार का था मिथक, बीजेपी ने तोड़ा: उत्तराखंड में एक मिथक ये रहा है कि राज्य में जिस पार्टी की सरकार रही है उसकी लोकसभा में हार हुई है. यानी राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार अगर रही हो तो इसका फायदा लोकसभा में कांग्रेस को मिला. अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार रही हो तो इसका फायदा बीजेपी को मिलता रहा है. ऐसा तब भी देखने के लिए मिला जब साल 2004 और साल 2009 के साथ-साथ साल 2014 में भी यही परिणाम देखने को मिले. इस दौरान राज्य में जिस पार्टी की सत्ता थी उस पार्टी के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा. साल 2019 में यह मिथक टूटा. इस साल राज्य में बीजेपी की सरकार थी. इस बार लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पांचों सीटे जीती.

बदरीनाथ और टिहरी राजपरिवार की हार का मिथक:टिहरी लोकसभा क्षेत्र से भी एक मिथक जुड़ा है. मिथक था कि टिहरी लोकसभा सीट से राजपरिवार की हमेशा जीत होती है. मात्र दो बार चुनाव हारने के अलावा कभी भी यहां टिहरी राजपरिवार की हार नहीं हुई. यह हार भी तब हुई जब राज्य में लोकसभा चुनाव हो रहे थे, तब बदरीनाथ धाम के कपाट बंद थे. 1971 और साल 2007 में दोनों दफा ऐसा ही हुआ. तब राज्य में लोकसभा चुनाव और उपचुनाव के दौरान बदरीनाथ के कपाट बंद थे. इन दोनों चुनाव में राजपरिवार की हार हुई. मगर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में यह मिथक भी टूट गया. जिस वक्त साल 2019 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे तब बदरीनाथ के कपाट बंद थे. मगर इसके बाद भी टिहरी से माला राज्य लक्ष्मी बड़े मार्जिन से जीतकर संसद पहुंची.

लोकसभा चुनाव में परिवार की पावर ने नहीं आई काम: परिवारवाद की लाइन पर आज कई पॉलिटिकल पार्टीज आगे बढ़ रही हैं. उत्तराखंड में परिवारवाद से जुड़ा मिथक है. मिथक है कि अगर लोकसभा चुनाव में पिता, पुत्र या कोई व्यक्ति परिवार के भरोसे चुनावी मैदान में उतरा तो उसे हार का सामना करना पड़ा है. इसमें सबसे पहला नाम साकेत बहुगुणा का है. साकेत, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे हैं. वे लोकसभा उपचुनाव में टिहरी लोकसभा सीट से पिता के भरोसे खड़े हुए. यहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा. निशानेबाज जसपाल राणा भी इस मिथक का शिकार हुए. उन्होंने भी परिवार के दम पर चुनाव लड़ने की सोची. जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके साथ भुवन चंद खंडूरी के बेटे मनीष खंडूरी भी पौड़ी से लोकसभा चुनाव हार चुके हैं. राज परिवार की अगर बात करें तो मनुजेंद्र शाह और विजय बहुगुणा भी इसका उदाहरण हैं. कहा जाता है की यह मिथक आज तक नहीं टूटा है.

निशंक ने तोड़ा हरिद्वार से लगातार जीतने का मिथक: उत्तराखंड में हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र से भी मिथक जुड़ा है. राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं उसमें यह देखा गया है कि कोई भी एक बार जीता हुआ उम्मीदवार दोबारा से इस सीट से जीत दर्ज नहीं कर पाया है. हरिद्वार लोकसभा सीट से जुड़े इस मिथक को भी बीजेपी के पूर्व सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने तोड़ा. बीजेपी सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने साल 2014 में हरिद्वार से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा. जिसमें उन्होंने बंपर जीत हासिल की. इसके बाद उन्होंने साल 2019 में भी हरिद्वार लोकसभा सीट से जीत हासिल की.

गंगोत्री विधानसभा सीट से जुड़ा रोचक मिथक: उत्तराखंड की राजनीति में कुछ और मिथक भी बेहद प्रबल माने जाते हैं. इसमें गढ़वाल रीजन में आने वाली गंगोत्री विधानसभा सीट से जुड़ा मिथक खास है. उत्तराखंड की राजनीति में इस सीट को लेकर कांग्रेस और बीजेपी हमेशा से डरे रहते हैं. इस सीट के बारे में कहा जाता है विधानसभा चुनाव में गंगोत्री से जिस पार्टी का विधायक बनता है राज्य में उसकी सरकार बनती है. इस बार भी यह मिथक कायम है. राज्य में बीजेपी की सरकार है. विधायक भी सुरेंद्र चौहान बीजेपी से जीते हैं. यह मिथक आज तक नहीं टूट नहीं पाया.

शिक्षा और पेयजल मंत्री वाला मिथक टूटा: उत्तराखंड की राजनीति में मिथक यह भी है कि आज तक राज्य सरकार में जो भी शिक्षा मंत्री और पेयजल मंत्री रहा वह दोबारा चुनाव नहीं जीता. इसमें मंत्री रहते हुए नरेंद्र सिंह भंडारी, गोविंद सिंह बिष्ट, मंत्री प्रसाद, खजान दास ऐसे हैं जो शिक्षा मंत्री रहे. इसके बाद जब चुनाव हुआ तो ये सभी चुनाव हार गये. उत्तराखंड में ये मिथक सालों बना रहा. इसके बाद साल साल 2022 विधानसभा में ये मिथक भी टूट गया. विधानसभा चुनाव में पेयजल मंत्री बिशन सिंह चुफाल और शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे दोनों ही चुनाव जीते.

सरकारी बंगले वाला मिथक टूटा : उत्तराखंड की राजनीति में मुख्यमंत्री आवास को लेकर भी एक मिथक है. ये मिथक आज तक नहीं टूटा है. कहा जाता है सरकारी मुख्यमंत्री आवास में जो भी मुख्यमंत्री रहा वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. साथ ही वह अगला चुनाव भी हारता है, या फिर उसके दल को सत्ता से बेदखल होना पड़ता है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह ने इस मिथक को कुछ हद तक तोड़ा. सीएम धामी इस आवास में रहने बाद चुनाव भले हार गये हों, मगर इसके बाद भी वे दोबारा मुख्यमंत्री बने. 2002 में भगत सिंह कोश्यारी भी मुख्यमंत्री के बाद चुनाव लड़े. उन्होंने भी जीत दर्जकर इस मिथक को तोड़ा.

देहरादून(उत्तराखंड): देश में लोकसभा चुनाव के लिए वोटिंग पूरी हो गई है. 4 जून को काउंटिंग होनी है. उससे पहले सभी सियासी दलों की सांसें अटकी हुई हैं. सभी राजनीतिक दल अपनी जीत हार का मंथन कर रहे हैं. क्षेत्र, जाति, मिथकों पर चर्चा की जा रही है. राजनीति में मिथकों के बहुत से मायने होते हैं. आज की खबर में ईटीवी भारत अपने पाठकों को उत्तराखंड की राजनीति और चुनाव से जुड़े ऐसे ही कुछ अनोखे मिथकों के बारे में बताने जा रहा है.

उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीटों पर होने वाला चुनाव बेहद रोमांचक रहा. 2014 और 2019 में बीजेपी ने उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर क्लीन स्वीप किया है. अभी पांचों लोकसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. 2024 लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा. वहीं, कांग्रेस ने भी बीजेपी को टक्कर देने की कोशिश की.

जिसकी केंद्र में सरकार, उसकी हार का था मिथक, बीजेपी ने तोड़ा: उत्तराखंड में एक मिथक ये रहा है कि राज्य में जिस पार्टी की सरकार रही है उसकी लोकसभा में हार हुई है. यानी राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार अगर रही हो तो इसका फायदा लोकसभा में कांग्रेस को मिला. अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार रही हो तो इसका फायदा बीजेपी को मिलता रहा है. ऐसा तब भी देखने के लिए मिला जब साल 2004 और साल 2009 के साथ-साथ साल 2014 में भी यही परिणाम देखने को मिले. इस दौरान राज्य में जिस पार्टी की सत्ता थी उस पार्टी के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा. साल 2019 में यह मिथक टूटा. इस साल राज्य में बीजेपी की सरकार थी. इस बार लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पांचों सीटे जीती.

बदरीनाथ और टिहरी राजपरिवार की हार का मिथक:टिहरी लोकसभा क्षेत्र से भी एक मिथक जुड़ा है. मिथक था कि टिहरी लोकसभा सीट से राजपरिवार की हमेशा जीत होती है. मात्र दो बार चुनाव हारने के अलावा कभी भी यहां टिहरी राजपरिवार की हार नहीं हुई. यह हार भी तब हुई जब राज्य में लोकसभा चुनाव हो रहे थे, तब बदरीनाथ धाम के कपाट बंद थे. 1971 और साल 2007 में दोनों दफा ऐसा ही हुआ. तब राज्य में लोकसभा चुनाव और उपचुनाव के दौरान बदरीनाथ के कपाट बंद थे. इन दोनों चुनाव में राजपरिवार की हार हुई. मगर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में यह मिथक भी टूट गया. जिस वक्त साल 2019 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे तब बदरीनाथ के कपाट बंद थे. मगर इसके बाद भी टिहरी से माला राज्य लक्ष्मी बड़े मार्जिन से जीतकर संसद पहुंची.

लोकसभा चुनाव में परिवार की पावर ने नहीं आई काम: परिवारवाद की लाइन पर आज कई पॉलिटिकल पार्टीज आगे बढ़ रही हैं. उत्तराखंड में परिवारवाद से जुड़ा मिथक है. मिथक है कि अगर लोकसभा चुनाव में पिता, पुत्र या कोई व्यक्ति परिवार के भरोसे चुनावी मैदान में उतरा तो उसे हार का सामना करना पड़ा है. इसमें सबसे पहला नाम साकेत बहुगुणा का है. साकेत, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बेटे हैं. वे लोकसभा उपचुनाव में टिहरी लोकसभा सीट से पिता के भरोसे खड़े हुए. यहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा. निशानेबाज जसपाल राणा भी इस मिथक का शिकार हुए. उन्होंने भी परिवार के दम पर चुनाव लड़ने की सोची. जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके साथ भुवन चंद खंडूरी के बेटे मनीष खंडूरी भी पौड़ी से लोकसभा चुनाव हार चुके हैं. राज परिवार की अगर बात करें तो मनुजेंद्र शाह और विजय बहुगुणा भी इसका उदाहरण हैं. कहा जाता है की यह मिथक आज तक नहीं टूटा है.

निशंक ने तोड़ा हरिद्वार से लगातार जीतने का मिथक: उत्तराखंड में हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र से भी मिथक जुड़ा है. राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं उसमें यह देखा गया है कि कोई भी एक बार जीता हुआ उम्मीदवार दोबारा से इस सीट से जीत दर्ज नहीं कर पाया है. हरिद्वार लोकसभा सीट से जुड़े इस मिथक को भी बीजेपी के पूर्व सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने तोड़ा. बीजेपी सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने साल 2014 में हरिद्वार से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा. जिसमें उन्होंने बंपर जीत हासिल की. इसके बाद उन्होंने साल 2019 में भी हरिद्वार लोकसभा सीट से जीत हासिल की.

गंगोत्री विधानसभा सीट से जुड़ा रोचक मिथक: उत्तराखंड की राजनीति में कुछ और मिथक भी बेहद प्रबल माने जाते हैं. इसमें गढ़वाल रीजन में आने वाली गंगोत्री विधानसभा सीट से जुड़ा मिथक खास है. उत्तराखंड की राजनीति में इस सीट को लेकर कांग्रेस और बीजेपी हमेशा से डरे रहते हैं. इस सीट के बारे में कहा जाता है विधानसभा चुनाव में गंगोत्री से जिस पार्टी का विधायक बनता है राज्य में उसकी सरकार बनती है. इस बार भी यह मिथक कायम है. राज्य में बीजेपी की सरकार है. विधायक भी सुरेंद्र चौहान बीजेपी से जीते हैं. यह मिथक आज तक नहीं टूट नहीं पाया.

शिक्षा और पेयजल मंत्री वाला मिथक टूटा: उत्तराखंड की राजनीति में मिथक यह भी है कि आज तक राज्य सरकार में जो भी शिक्षा मंत्री और पेयजल मंत्री रहा वह दोबारा चुनाव नहीं जीता. इसमें मंत्री रहते हुए नरेंद्र सिंह भंडारी, गोविंद सिंह बिष्ट, मंत्री प्रसाद, खजान दास ऐसे हैं जो शिक्षा मंत्री रहे. इसके बाद जब चुनाव हुआ तो ये सभी चुनाव हार गये. उत्तराखंड में ये मिथक सालों बना रहा. इसके बाद साल साल 2022 विधानसभा में ये मिथक भी टूट गया. विधानसभा चुनाव में पेयजल मंत्री बिशन सिंह चुफाल और शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे दोनों ही चुनाव जीते.

सरकारी बंगले वाला मिथक टूटा : उत्तराखंड की राजनीति में मुख्यमंत्री आवास को लेकर भी एक मिथक है. ये मिथक आज तक नहीं टूटा है. कहा जाता है सरकारी मुख्यमंत्री आवास में जो भी मुख्यमंत्री रहा वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. साथ ही वह अगला चुनाव भी हारता है, या फिर उसके दल को सत्ता से बेदखल होना पड़ता है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह ने इस मिथक को कुछ हद तक तोड़ा. सीएम धामी इस आवास में रहने बाद चुनाव भले हार गये हों, मगर इसके बाद भी वे दोबारा मुख्यमंत्री बने. 2002 में भगत सिंह कोश्यारी भी मुख्यमंत्री के बाद चुनाव लड़े. उन्होंने भी जीत दर्जकर इस मिथक को तोड़ा.

Last Updated : Jun 2, 2024, 7:10 PM IST
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