नई दिल्ली: रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के चीनी दौरे ने पश्चिमी देशों की भौंहें चढ़ा दी हैं. अपेक्षित रूप से व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जिम किर्बी ने दोनों पड़ोसियों के बीच हालिया मित्रता पर संदेह जताया और भविष्यवाणी की कि उनकी दोस्ती लंबे समय तक नहीं टिकेगी, क्योंकि रूस और चीन का इतिहास एक-दूसरे पर भरोसा न करने का रहा है.
16 मई को खत्म हुई पुतिन की चीनी यात्रा के दौरान दोनों पड़ोसियों ने राजनयिक संबंधों के 75 साल पूरे होने का जश्न मनाया. हेइलोंगजियांग प्रांत के हार्बिन में रूस-चीन एक्सपो में मीडिया से बात करते हुए पुतिन ने शी जिनपिंग के साथ अपनी चर्चा को सार्थक बताया और बढ़ते द्विपक्षीय व्यापार पर संतोष व्यक्त किया.
गौरतलब है कि दोनों देशों के बीच 2023 में व्यापार 26.3 फीसदी बढ़कर 240 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया. यह काफी हद तक रूस के पक्ष में है, जो चीन को लगभग आधे कच्चे तेल की सप्लाई करता है.
रूस से कुछ ही देश खरीदते हैं तेल
रूस कच्चे तेल का एक बड़ा प्रोड्यूसर है, लेकिन पश्चिम के लगाए गए गंभीर प्रतिबंधों के कारण उससे कुछ ही देश तेल खरीदते हैं. चीन और भारत रूसी कच्चे तेल के दो सबसे बड़े आयातक हैं. दोनों देश रूस से इतना कच्चा तेल की खरीदते हैं, जिससे यूक्रेन में रूसी ओपरेशन की लागत की लगभग पूरी भरपाई हो जाती है.
हार्बिन में बोलते हुए पुतिन ने कहा कि दुनिया का मानना है कि रूस और चीन के बीच साझेदारी का उद्देश्य हमारे देशों के विकास के लिए बेहतर स्थितियां बनाना और चीन और रूस के लोगों की भलाई में सुधार करना है.
पश्चिमी देशों पर निशाना
पश्चिमी देशों पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि मल्टी-पोलर दुनिया हमारी आंखों के सामने आकार ले रही है और जो लोग दुनिया में सभी मुद्दों पर निर्णय लेने पर अपना एकाधिकार बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं. वे अपनी पावर सुनिश्चित करने के लिए सब कुछ कर रहे हैं.
बातचीत के अंत में दोनों नेताओं ने नए युग में व्यापक रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करने के लिए चौदह पैराग्राफ वाले एक ज्वाइंट स्टेटमेंट जारी किया. इससे यह स्पष्ट होता है कि चीन-रूस के बीच कोई टकराव नहीं है और इसमें किसी तीसरे पक्ष को टारगेट नहीं किया गया है.
ताइवान को चीन का हिस्सा मानता है रूस
एक ओर बयान में दावा किया गया है कि अलग-अलग देशों को अपने अलग-अलग इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण अपने अलग-अलग रास्ते चुनने का अधिकार है और सुपीरियर डेमोक्रेसी जैसी कोई चीज नहीं है. दूसरी ओर रूस, स्पष्ट रूप से चीन को खुश करने के लिए ताइवान को चीनी क्षेत्र का एक अविभाज्य हिस्सा मानता है और 'ताइवान की स्वतंत्रता' के किसी भी रूप का विरोध करता है.
एनर्जी के लिए घनिष्ठ साझेदारी बनाना, संयुक्त रूप से इंटरनेशनल एनर्जी सिक्योरिटी की रक्षा करना (चीन को निर्बाध सप्लाई सुनिश्चित करना और नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन से बचना जिसके लिए निष्पक्ष जांच की भी मांग की गई थी), नाटो से अपनी प्रतिबद्धता का पालन करने का आग्रह करना बयान की अन्य प्रमुख विशेषताएं हैं. इसके अलावा इसमें कई मुद्दों पर गंभीर चिंता भी व्यक्त की गई है, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका की जैविक सैन्य गतिविधियां, नाटो का पूर्व की ओर विस्तार और AUKUS को खतरा मानना शामिल है.
भारत-चीन किसके साथ रूस?
इसमें अमेरिका, नाटो, जापान, डीपीआरके, यूके, ऑस्ट्रेलिया (AUKUS) का उल्लेख था. हालांकि भारत का उल्लेख सावधानी से टाल दिया गया. ऐसे में भारत के लिए इसका क्या मतलब है? सवाल यह है कि भारत और चीन के बीच सीमा तनाव के युद्ध में बदलने की स्थिति में, रूस किसका पक्ष लेगा?
कुछ विश्लेषक यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत को बढ़ती चीन-रूस दोस्ती से चिंतित होना चाहिए, क्योंकि ऐसे परिदृश्य में, रूस संभवतः चीन का पक्ष लेगा या तटस्थ हो जाएगा. हालांकि, उनके दोषपूर्ण अनुमान दो धारणाओं पर आधारित हैं. पहला यह कि एक कि भारत और ड्रैगन के बीच युद्ध की बहुत संभावना है और दूसरा यह है कि रुस भारत के साथ भू-रणनीतिक, कमर्शियल और रक्षा संबंधी हितों को त्यागते हुए अपने संबंधों को तुरंत समाप्त कर दे.
चीन वर्तमान में दक्षिण चीन सागर में तनाव में शामिल है. वह बीआरओ और विशेष रूप से सीपीईसी के निराशाजनक प्रदर्शन के अलावा डोमेस्टिक इकॉनोमिक अकाउंटिबलिटी के मुद्दों से जूझ रहा है. ऐसे में वह भारत के साथ कोई मोर्चा खोलने के बारे में नहीं सोचेगा, खासकर ऐसे वक्त में जब अन्य बड़ी शक्तिया कहीं ओर इन्वॉल्व हैं. वहीं, चीन के लिए 1962 को दोहराना संभव नहीं होगा, क्योंकि भारत ऐसी किसी भी स्थिति के लिए बेहतर तरीके से तैयार है और 1962 के विपरीत पश्चिमी शक्तियां हमारी तरफ आ जाएंगी.
रूस का भारत में बड़ा हित
भले ही भारत और चीन के बीच तनाव कितना ही बढ़ जाए, लेकिन रूस का भारत में बड़ा हित है. भारत रूसी हथियारों का एक महत्वपूर्ण खरीदार रहा है और अब भी, भारत की लगभग 47 फीसदी रक्षा जरूरतें रूस से ही पूरी की जाती हैं. हमने रूस से एक एस-400 एंटी-मिसाइल सिस्टम भी हासिल किया था.
अमेरिका के लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद रूस अपने निर्यात राजस्व का एक बड़ा हिस्सा भारत को कच्चे तेल की सप्लाई से अर्जित करता है जो दोनों के लिए एक जीत की स्थिति है. इसके अलावा, एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव को रोकने के लिए रूस को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आवश्यकता है.
शायद इसीलिए बयान में भारत का जिक्र नहीं किया गया. जहां तक चीन-रूस संबंधों का सवाल है, हां- वे तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन यह विकास केवल अस्थायी है. रूस को प्रतिबंधों से बचने के लिए हथियारों और सामानों की जरूरत है और चीन को ईंधन की जरूरत है, लेकिन उनके संबंध लगातार अच्छे नहीं रहे जैसे भारत के रूस के साथ थे.
इसके अलावा, पुतिन पहले ही देश के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत चुके हैं और मोदी के भी ऐसा करने की संभावना है. इस प्रकार, दोनों नेताओं के बीच व्यक्तिगत केमिस्ट्री निकट भविष्य में भी जारी रहने की संभावना है, जिससे दोनों देशों के बीच संबंध और मजबूत होंगे. पुतिन निश्चित रूप से भारत के साथ उन संबंधों को खत्म करना पसंद नहीं करेंगे जो चीन के मुकाबले ज्यादा पुराने और अधिक निरंतर हैं.
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