हैदराबाद: राज्यसभा यानि उच्च सदन की इस साल अप्रैल में 15 राज्यों की करीब 56 सीटें खाली हो रही हैं. इसके लिए 27 फरवरी को चुनाव होंगे. इन राज्यों में उत्तर प्रदेश (10) के साथ-साथ महाराष्ट्र और बिहार ( प्रत्येक में 6-6) शामिल हैं. इन 56 सीटों के लिए, 59 उम्मीदवार दौड़ में हैं - कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और हिमाचल में उनकी संख्या के अनुसार एक अतिरिक्त उम्मीदवार के साथ पार्टियां जीत सकती हैं. जहां भाजपा ने उत्तर प्रदेश और हिमाचल में अतिरिक्त उम्मीदवार खड़ा किया है, वहीं उसकी सहयोगी जद (एस) ने कर्नाटक में ऐसा किया है, जिससे क्रॉस-वोटिंग की आशंका बढ़ गई है.
लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जहां मतपत्र गुप्त होते हैं. इसके उलट राज्यसभा चुनाव में 'ओपेन बैलेट' प्रक्रिया अपनायी जाती है. इसका मतलब यह है कि प्रत्येक राज्य के विधायक उच्च सदन के सदस्यों को चुनने के लिए जो वोट डालते हैं, उसे उनकी पार्टी के प्रतिनिधि देखते हैं. हालांकि, व्यवस्था शुरू से ऐसी नहीं थी. 1998 में महाराष्ट्र में एक चुनाव के बाद मतदान प्रक्रिया में बदलाव आया. उस चुनाव में ऐसा क्या हुआ था यह जानने से पहले आइये जानते हैं कि राज्यसभा सदस्य कैसे चुने जाते हैं?
राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव: राज्यसभा या राज्यों की परिषद में 245 सीटें हैं. इनमें से 12 राष्ट्रपति की ओर से नामांकित हैं और 233 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों दिल्ली और पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं. राज्यसभा सांसदों का चुनाव विधायकों की ओर से अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से किया जाता है. अनुच्छेद 80(4) में प्रावधान है कि सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों की ओर से एकल हस्तांतरणीय वोट के माध्यम से आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर) के माध्यम से किया जाएगा.
राज्यसभा चुनाव ज्यादातर निर्विरोध ही होते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि प्रत्येक पार्टी को पता है कि उनके पास अपने विधायकों के वोटों के मामले में कितनी ताकत है. वे उस संख्या के अनुसार अपेक्षित संख्या में उम्मीदवार मैदान में उतारते हैं. दरअसल यह चुनाव विधायकों की वफादारी की परीक्षा की तरह है. खासतौर से जब पार्टियां पार्टियां एक अतिरिक्त उम्मीदवार खड़ा कर दे. इस स्थिति में वोटिंग अनिवार्य हो जाता है और इसके साथ ही विधायकों के क्रॉस-वोटिंग की संभावना बढ़ जाती है.
कैसे होती है क्रॉस वोटिंग : उदाहरण के तौर पर यूपी में आगामी राज्यसभा चुनाव में 10 सीटें खाली हैं. राज्य में फिलहाल 399 विधायक हैं. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार, यूपी में प्रत्येक उम्मीदवार को जीतने के लिए कम से कम 37 वोटों की आवश्यकता होती है.
भाजपा के पास 252 विधायक हैं और उसके एनडीए सहयोगियों के पास 34 विधायक हैं - अपना दल के 13, राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के नौ, निषाद पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के छह-छह विधायक, जनसत्ता दल लोकतांत्रिक, जिसके दो विधायक हैं, इन सभी के लिए अनुमान है कि वे भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे.
अगर बीजेपी अपने वोटों के अलावा अपने सहयोगियों से ये सभी 36 वोट हासिल करने में कामयाब हो जाती है, तो उसके कुल वोटों की संख्या 288 तक पहुंच जाएगी. हालांकि, बीजेपी ने आठ उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, जिसका मतलब है कि पार्टी को अब 296 वोट (37 गुणा 8) की जरूरत होगी. इस गणित के अनुसार भाजपा आठ वोटों से कम रह जाएगी, जिससे क्रॉस-वोटिंग के लिए मंच तैयार हो जाएगा, संभवतः सपा सदस्यों की ओर से, जो स्वयं 3 सांसदों को चुनना चाहते हैं.
1998 के महाराष्ट्र चुनाव में क्या हुआ था? छह सीटों के लिए सात दावेदार मैदान में थे. कांग्रेस ने दो उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था - नजमा हेपतुल्ला, जिन्होंने उच्च सदन में तीन कार्यकाल पूरे किए थे और राम प्रधान, पूर्व महाराष्ट्र-कैडर आईएएस अधिकारी और पूर्व केंद्रीय गृह सचिव. तत्कालीन शिवसेना के उम्मीदवार उसके मौजूदा सांसद सतीश प्रधान और मीडिया हस्ती प्रीतीश नंदी थे. वरिष्ठ नेता प्रमोद महाजन, जो उस वर्ष की शुरुआत में लोकसभा चुनाव हार गए थे, भाजपा के उम्मीदवार थे.
दो निर्दलीय उम्मीदवार भी थे: मीडिया दिग्गज विजय दर्डा, जिनका कांग्रेस ने समर्थन किया था और पूर्व रेल मंत्री सुरेश कलमाडी, जिनका शिवसेना ने समर्थन किया था. कांग्रेस के पास अपने दोनों उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त वोट थे. लेकिन घटनाओं के एक आश्चर्यजनक मोड़ में, सोनिया गांधी के करीबी सहयोगी कांग्रेस उम्मीदवार राम प्रधान हार गए. एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत हासिल की.
इस समय विधायकों की ओर से डाले गए वोट गुप्त थे. कांग्रेस विधायकों ने स्पष्ट रूप से अपनी पार्टी के मतदान निर्देशों की अवहेलना की, जिससे प्रधान की हार हुई. रिपोर्टों से पता चला कि अन्य दलों के विधायकों ने भी क्रॉस वोटिंग की थी.
इस घटना ने बदल दी चुनाव प्रक्रिया: पीआरएस विधायी अनुसंधान में आउटरीच के प्रमुख चखसू रॉय ने अखबारी लेख में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा था कि प्रधान की हार की गूंज सभी राजनीतिक हलकों में इस हद तक फैल गई कि पार्टियों ने अपने विधायकों पर लगाम लगाने के कदमों के बारे में सोचना शुरू कर दिया. समाधान निकालने के लिए 1997 में राज्यसभा सांसद और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एसबी चव्हाण की अध्यक्षता में राज्यसभा की एक आचार समिति की स्थापना की गई थी.
समाधान क्या प्रस्तावित था?
दिसंबर 1998 में अपनी पहली रिपोर्ट में, समिति ने पाया कि धन और बाहुबल ने राज्यसभा चुनावों में बढ़ती भूमिका निभाई. समिति ने सुझाव दिया कि धन और बाहुबल के प्रभाव को रोकने के लिए राज्य सभा के मामले में गुप्त मतदान की जगह राज्यसभा और राज्यों में विधान परिषदों के चुनाव में 'खुले मतदान' की प्रक्रिया अपनायी जाये.
2001 में, तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली ने एक विधेयक पेश किया, जिसमें जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया, ताकि राज्यसभा चुनाव में खुला मतदान हो सके. इसके बाद से राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले नेताओं को उनकी पार्टी निष्कासित कर सकती है.
क्रॉस वोटिंग के अन्य उदाहरण
- हाल ही में, जून 2022 में, तत्कालीन कांग्रेस नेता कुलदीप बिश्नोई की क्रॉस-वोटिंग के कारण भाजपा को हरियाणा में दो राज्यसभा सीटें मिलीं. इन दो सीटों के लिए तीन उम्मीदवार मैदान में थे. कुलदीप बिश्नोई की इस क्रॉस वोटिंग के कारण कांग्रेस के दिग्गज नेता अजय माकन चुनाव हार गये थे. बाद में कांग्रेस ने बिश्नोई को निष्कासित कर दिया और वह भाजपा में शामिल हो गये.
- उसी उच्च सदन चुनाव चक्र में, राजस्थान में भाजपा ने अपने विधायक शोभारानी कुशवाह को कारण बताओ नोटिस भेजे जाने के कुछ दिनों बाद राज्यसभा चुनाव में क्रॉस-वोटिंग के लिए निष्कासित कर दिया था. इससे पहले, जून 2016 में, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तत्कालीन राज्यसभा चुनावों में भाजपा के लिए क्रॉस वोटिंग करने के बाद छह विधायकों को निष्कासित कर दिया था.
बहुचर्चित अहमद पटेल का मामला: अगस्त 2017 में, नाटकीय घटनाओं के बाद कांग्रेस नेता अहमद पटेल उच्च सदन के लिए चुने गए थे. कांग्रेस ने उस समय मतदान प्रक्रियाओं का उल्लंघन करने के लिए दो विधायकों की ओर से दिए गए वोटों को अस्वीकार करने के लिए दो आवेदन डाला था. पार्टी ने दावा किया था कि विधायकों ने अपने मतपत्र अमित शाह (जो उस वर्ष गुजरात से चुने गए राज्यसभा सांसदों में से थे) को दिखाए थे. याचिका को पहले रिटर्निंग ऑफिसर ने खारिज कर दिया था.
अस्वीकृति पर, कांग्रेस नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने नई दिल्ली में चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात की और आरओ के फैसले पर आपत्ति जताई. चुनाव आयोग ने कांग्रेस की याचिका पर विचार किया और घोषणा की कि दोनों विधायकों ने मतदान प्रक्रियाओं और मतपत्र की गोपनीयता का उल्लंघन किया है. दो वोटों को अयोग्य घोषित कर दिया गया. इससे आवश्यक वोटों की संख्या 46 से घटाकर 44 हो गई. पटेल के पास 44 वोट थे और इस तरह वह पांचवीं बार लोकसभा पहुंचे थे.