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विद्रोह से डर गए थे अंग्रेज! इतिहास का एक अनदेखा पन्ना जबलपुर का सैन्य विद्रोह, कौन थे इसके नायक - JABALAPUR SAINIK VIDROH 1945

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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Aug 14, 2024, 8:31 AM IST

Updated : Aug 14, 2024, 10:48 AM IST

जबलपुर के सैन्य विद्रोह से अंग्रेजों का मनोबल टूट गया था. इस विद्रोह के बाद ही अंग्रेजों को लगने लगा था, कि अब भारत में रहना उनके लिए मुश्किल हो गया है. इसी विद्रोह में शामिल सैनिकों को अंग्रेजों ने यातनाएं दी.

JABALPUR STRUGGLE FREEDOM
जबलपुर सैन्य विद्रोह से अंग्रेजों का टूटा मनोबल (ETV Bharat)

जबलपुर: भारत की आजादी में जबलपुर का विशेष योगदान है. क्योंकि आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ जब मुकदमा चलाया गया, तो जबलपुर में भी सेना की सिग्नल कोर के जवानों ने विद्रोह कर दिया था. इतिहासकारों का कहना है कि "भारत में हुए इस सैन्य विद्रोह के बाद अंग्रेज डर गए थे और इस विद्रोह के तुरंत बाद ही आजादी की पटकथा लिख दी गई थी, लेकिन सैनिक विद्रोह को भारतीय इतिहास में बहुत जगह नहीं दी गई.

देश की आजादी में जबलपुर सैन्य विद्रोह का महत्वपूर्ण योगदान (ETV Bharat)

हिंद फौज के सिपाहियों पर चले मुकदमा से भड़का विद्रोह

नवंबर 1945 को आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ लाल किले में देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा था और इस मुकदमे के दौरान सिपाहियों के खिलाफ कई किस्म की सजाओं के बारे में चर्चा थी. इन हजारों सिपाहियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाई करने की बात कही जा रही थी. कभी यह सुनने को मिल रहा था, कि इन जवानों को उम्र कैद दी जाएगी और कुछ लोगों के बीच में यह चर्चा थी कि इनमें से कुछ सिपाहियों को फांसी की सजा भी दी जा सकती है.

इन मुकदमों का सेना के जवानों पर पड़ा गहरा असर

आजाद हिंद फौज के इन जवानों के खिलाफ चलने वाले इस मुकदमे से भारतीय सेना के जवानों पर बड़ा गहरा असर पड़ा. देश में कई जगह सैनिक विद्रोह हुए. जबलपुर में भी दिल्ली में हो रही सारी घटनाओं की पूरी जानकारी तुरंत मिल रही थी. क्योंकि जबलपुर उसे जमाने में भी संचार का बड़ा केंद्र था. जबलपुर की सिग्नल स्कोर सेना की एक यूनिट थी और इसमें दिल्ली में घट रही हर घटना की पल-पल की जानकारी मिल रही थी.

जय हिंद का नारा लगाते बैरिकों से निकले सैनिक

आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ चल रहे मुकदमे के खिलाफ भारतीय सेना के जवानों में आक्रोश धीरे-धीरे बढ़ने लगा और जबलपुर में 22 फरवरी को यह आक्रोश जय हिंद के नारे के साथ फूट पड़ा. जब जबलपुर में सिग्नल कोर के जवान हवलदार कृष्णन, हवलदार जगत सिंह और ज्ञान सिंह नाम के तीन जवानों ने जय हिंद का नारा लगाते हुए अपने बैरक से निकल आए. देखते ही देखते इन तीन जवानों के साथ पूरी बटालियन के लगभग 500 जवानों ने जोर-जोर से जय हिंद के नारे लगाना शुरू कर दिया और यह छावनी से निकल पड़े. जवानों के इस विद्रोह को देखकर 500 जवानों से शुरू हुआ यह काफिला 1700 जवानों तक पहुंच गया. इसमें सेना में काम करने वाले जवानों के अलावा क्लर्क और दूसरे विभागों के अधिकारी कर्मचारी भी शामिल हो गए थे.

छावनी से निकलकर शहर की तरफ आने लगे थे जवान

भारत के इतिहास की बड़ी घटना 22 फरवरी 1946 को जबलपुर में घट रही थी. देखते ही देखते इस बात की चर्चा पूरे शहर में होने लगी और जवान छावनी से निकलकर शहर की तरफ आने लगे हैं. यह सभी जवान जबलपुर के कमानिया गेट और बड़े फुहारा पर आना चाहते थे. क्योंकि यही आजाद हिंद फौज के मुखिया सुभाष चंद्र बोस ने भाषण दिया था.

जबलपुर कांग्रेस अध्यक्ष ने सैनिकों का किया स्वागत

इसके पहले की जय हिंद के यह फौजी बड़े फुहारा तक पहुंचती जबलपुर कांग्रेस के नगर अध्यक्ष भवानी प्रसाद तिवारी और गणेश शंकर नायक इन जवानों का स्वागत करने के लिए तिलक भूमि की तलैया पहुंच गए. जहां इन लोगों से बातचीत के बाद यह कहा गया कि वह अपना आंदोलन शांतिपूर्वक चलाएं, बल्कि उन्हें मौलाना अबुल कलाम आजाद का एक पत्र भी दिखाया गया. जिसमें सैनिकों से विद्रोह न करने की बात कही गई थी. लिहाजा सैनिक अपनी बैरिकों में वापस लौटने लगे. हालांकि, यह आंदोलन 28 फरवरी तक चलाता रहा.

सैनिकों के खिलाफ चला मुकदमा

जबलपुर अंग्रेजों का एक बड़ा ठिकाना था और जबलपुर में इस किस्म का विरोध पहली बार देखने को मिला था. सेना के इस विद्रोह से अंग्रेज बुरी तरह डर गए और विद्रोह करने वाले सैनिकों के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाई की तैयारी की जा रही थी. इस दौरान जब जबलपुर के सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चला, तो सैनिकों की ओर से जबलपुर के एडवोकेट कुंजीलाल दुबे, असगर अली, सरदार राजेंद्र सिंह ने पैरवी की. कुंजीलाल दुबे ने यह तर्क दिया कि जय हिंद कहना किसी की खिलाफत नहीं है और अपने देश की जय जयकार करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसके बाद भी 90 जवानों की नौकरी खत्म कर दी गई. उन्हें जेल में डाल दिया गया, उनकी तनख्वाह और पेंशन बंद कर दी गई.

सेना के इस विद्रोह से बुरी तरह डर गए थे अंग्रेज

इतिहासकार सतीश त्रिपाठी बताते हैं कि "जबलपुर का विद्रोह सेना का विद्रोह था. इसके पहले जल सेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ, लेकिन अंग्रेजों को डर था कि यदि थल सेना में भी विद्रोह शुरू हो गया, तो वह कैसे सभालेंगे, उस समय अंग्रेजों के पास अंग्रेज सैनिकों की इतनी फौज नहीं थी कि वह इस विद्रोह को नियंत्रित कर लेते, इसलिए आनन-फानन में तत्कालीन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंन एटली को यह पत्र लिखा गया कि अब भारत में अंग्रेजों का रहना खतरे से खाली नहीं है और जल्द से जल्द अंग्रेजों को भारत छोड़ना होगा. इस घटना के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने कैबिनेट मिशन की घोषणा की और मार्च में कैबिनेट मिशन भारत आ गया था. जिन्होंने यह तय किया था कि भारत को आजादी 1948 नहीं बल्कि 1947 में ही दे दी जाएगी."

यहां पढ़ें...

संस्कारधानी में एमपी का सबसे ऊंचा तिरंगा झंडा, क्या है इस जगह का ऐतिहासिक महत्व

आजादी की लड़ाई में भिंड का अहम रोल, रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 की क्रांति के दौरान ग्वालियर को बनाया केंद्र

जबलपुर सैन्य विद्रोह के इतिहास में नहीं मिला उचित स्थान

इन घटनाओं को यदि सिलसिले बार ढंग से देखा जाए, तो भारत की आजादी के पीछे सैनिकों का यह विद्रोह एक बड़ी वजह थी. हालांकि, हमारे इतिहासकारों ने सैनिकों की इस विद्रोह को इतिहास में बहुत जगह नहीं दी. क्योंकि, यदि आजादी सेना के विद्रोह की वजह से मिली, तो भारत की आजादी का श्रेय सुभाष चंद्र बोस को जाता है. आज भी यह चर्चा हमेशा गर्म रहती है, कि हमे आजादी गांधी की वजह से या सुभाष की वजह से मिली थी.

जबलपुर: भारत की आजादी में जबलपुर का विशेष योगदान है. क्योंकि आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ जब मुकदमा चलाया गया, तो जबलपुर में भी सेना की सिग्नल कोर के जवानों ने विद्रोह कर दिया था. इतिहासकारों का कहना है कि "भारत में हुए इस सैन्य विद्रोह के बाद अंग्रेज डर गए थे और इस विद्रोह के तुरंत बाद ही आजादी की पटकथा लिख दी गई थी, लेकिन सैनिक विद्रोह को भारतीय इतिहास में बहुत जगह नहीं दी गई.

देश की आजादी में जबलपुर सैन्य विद्रोह का महत्वपूर्ण योगदान (ETV Bharat)

हिंद फौज के सिपाहियों पर चले मुकदमा से भड़का विद्रोह

नवंबर 1945 को आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ लाल किले में देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा था और इस मुकदमे के दौरान सिपाहियों के खिलाफ कई किस्म की सजाओं के बारे में चर्चा थी. इन हजारों सिपाहियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाई करने की बात कही जा रही थी. कभी यह सुनने को मिल रहा था, कि इन जवानों को उम्र कैद दी जाएगी और कुछ लोगों के बीच में यह चर्चा थी कि इनमें से कुछ सिपाहियों को फांसी की सजा भी दी जा सकती है.

इन मुकदमों का सेना के जवानों पर पड़ा गहरा असर

आजाद हिंद फौज के इन जवानों के खिलाफ चलने वाले इस मुकदमे से भारतीय सेना के जवानों पर बड़ा गहरा असर पड़ा. देश में कई जगह सैनिक विद्रोह हुए. जबलपुर में भी दिल्ली में हो रही सारी घटनाओं की पूरी जानकारी तुरंत मिल रही थी. क्योंकि जबलपुर उसे जमाने में भी संचार का बड़ा केंद्र था. जबलपुर की सिग्नल स्कोर सेना की एक यूनिट थी और इसमें दिल्ली में घट रही हर घटना की पल-पल की जानकारी मिल रही थी.

जय हिंद का नारा लगाते बैरिकों से निकले सैनिक

आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के खिलाफ चल रहे मुकदमे के खिलाफ भारतीय सेना के जवानों में आक्रोश धीरे-धीरे बढ़ने लगा और जबलपुर में 22 फरवरी को यह आक्रोश जय हिंद के नारे के साथ फूट पड़ा. जब जबलपुर में सिग्नल कोर के जवान हवलदार कृष्णन, हवलदार जगत सिंह और ज्ञान सिंह नाम के तीन जवानों ने जय हिंद का नारा लगाते हुए अपने बैरक से निकल आए. देखते ही देखते इन तीन जवानों के साथ पूरी बटालियन के लगभग 500 जवानों ने जोर-जोर से जय हिंद के नारे लगाना शुरू कर दिया और यह छावनी से निकल पड़े. जवानों के इस विद्रोह को देखकर 500 जवानों से शुरू हुआ यह काफिला 1700 जवानों तक पहुंच गया. इसमें सेना में काम करने वाले जवानों के अलावा क्लर्क और दूसरे विभागों के अधिकारी कर्मचारी भी शामिल हो गए थे.

छावनी से निकलकर शहर की तरफ आने लगे थे जवान

भारत के इतिहास की बड़ी घटना 22 फरवरी 1946 को जबलपुर में घट रही थी. देखते ही देखते इस बात की चर्चा पूरे शहर में होने लगी और जवान छावनी से निकलकर शहर की तरफ आने लगे हैं. यह सभी जवान जबलपुर के कमानिया गेट और बड़े फुहारा पर आना चाहते थे. क्योंकि यही आजाद हिंद फौज के मुखिया सुभाष चंद्र बोस ने भाषण दिया था.

जबलपुर कांग्रेस अध्यक्ष ने सैनिकों का किया स्वागत

इसके पहले की जय हिंद के यह फौजी बड़े फुहारा तक पहुंचती जबलपुर कांग्रेस के नगर अध्यक्ष भवानी प्रसाद तिवारी और गणेश शंकर नायक इन जवानों का स्वागत करने के लिए तिलक भूमि की तलैया पहुंच गए. जहां इन लोगों से बातचीत के बाद यह कहा गया कि वह अपना आंदोलन शांतिपूर्वक चलाएं, बल्कि उन्हें मौलाना अबुल कलाम आजाद का एक पत्र भी दिखाया गया. जिसमें सैनिकों से विद्रोह न करने की बात कही गई थी. लिहाजा सैनिक अपनी बैरिकों में वापस लौटने लगे. हालांकि, यह आंदोलन 28 फरवरी तक चलाता रहा.

सैनिकों के खिलाफ चला मुकदमा

जबलपुर अंग्रेजों का एक बड़ा ठिकाना था और जबलपुर में इस किस्म का विरोध पहली बार देखने को मिला था. सेना के इस विद्रोह से अंग्रेज बुरी तरह डर गए और विद्रोह करने वाले सैनिकों के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाई की तैयारी की जा रही थी. इस दौरान जब जबलपुर के सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चला, तो सैनिकों की ओर से जबलपुर के एडवोकेट कुंजीलाल दुबे, असगर अली, सरदार राजेंद्र सिंह ने पैरवी की. कुंजीलाल दुबे ने यह तर्क दिया कि जय हिंद कहना किसी की खिलाफत नहीं है और अपने देश की जय जयकार करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसके बाद भी 90 जवानों की नौकरी खत्म कर दी गई. उन्हें जेल में डाल दिया गया, उनकी तनख्वाह और पेंशन बंद कर दी गई.

सेना के इस विद्रोह से बुरी तरह डर गए थे अंग्रेज

इतिहासकार सतीश त्रिपाठी बताते हैं कि "जबलपुर का विद्रोह सेना का विद्रोह था. इसके पहले जल सेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ, लेकिन अंग्रेजों को डर था कि यदि थल सेना में भी विद्रोह शुरू हो गया, तो वह कैसे सभालेंगे, उस समय अंग्रेजों के पास अंग्रेज सैनिकों की इतनी फौज नहीं थी कि वह इस विद्रोह को नियंत्रित कर लेते, इसलिए आनन-फानन में तत्कालीन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंन एटली को यह पत्र लिखा गया कि अब भारत में अंग्रेजों का रहना खतरे से खाली नहीं है और जल्द से जल्द अंग्रेजों को भारत छोड़ना होगा. इस घटना के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने कैबिनेट मिशन की घोषणा की और मार्च में कैबिनेट मिशन भारत आ गया था. जिन्होंने यह तय किया था कि भारत को आजादी 1948 नहीं बल्कि 1947 में ही दे दी जाएगी."

यहां पढ़ें...

संस्कारधानी में एमपी का सबसे ऊंचा तिरंगा झंडा, क्या है इस जगह का ऐतिहासिक महत्व

आजादी की लड़ाई में भिंड का अहम रोल, रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 की क्रांति के दौरान ग्वालियर को बनाया केंद्र

जबलपुर सैन्य विद्रोह के इतिहास में नहीं मिला उचित स्थान

इन घटनाओं को यदि सिलसिले बार ढंग से देखा जाए, तो भारत की आजादी के पीछे सैनिकों का यह विद्रोह एक बड़ी वजह थी. हालांकि, हमारे इतिहासकारों ने सैनिकों की इस विद्रोह को इतिहास में बहुत जगह नहीं दी. क्योंकि, यदि आजादी सेना के विद्रोह की वजह से मिली, तो भारत की आजादी का श्रेय सुभाष चंद्र बोस को जाता है. आज भी यह चर्चा हमेशा गर्म रहती है, कि हमे आजादी गांधी की वजह से या सुभाष की वजह से मिली थी.

Last Updated : Aug 14, 2024, 10:48 AM IST
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