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गर्भवती महिला कहने के बजाय 'प्रेग्नेंट पर्सन' का इस्तेमाल उचित : सुप्रीम कोर्ट - using pregnant person says sc - USING PREGNANT PERSON SAYS SC

using pregnant person : सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात की अनुमति देने के एक मामले में अपने पहले के आदेश को वापस ले लिया. सुनवाई के दौरान बेंच ने कहा कि गर्भवती महिला कहने के बजाय प्रेग्नेंट पर्सन का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित है. जानिए क्या है मामला.

using pregnant person
सुप्रीम कोर्ट (ANI PHOTO)
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By Sumit Saxena

Published : May 6, 2024, 10:22 PM IST

नई दिल्ली : मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि सिजेंडर महिलाओं के अलावा अन्य लिंग पहचान वाले गैर-बाइनरी लोगों और ट्रांसजेंडर पुरुषों को भी गर्भावस्था का अनुभव हो सकता है. इसके साथ ही बेंच ने अपने पहले के आदेश को वापस ले लिया, जिसमें उसने 14 साल की रेप पीड़िता की 30 हफ्ते के गर्भपात की अनुमति दी थी.

नाबालिग के माता-पिता द्वारा सामान्य तरीके से बच्चे का जन्म कराने की इच्छा व्यक्त करने के बाद शीर्ष अदालत ने अपने पहले के आदेश को पलट दिया. सुप्रीम कोर्ट ने पहले नाबालिग को गर्भपात कराने की अनुमति दे दी थी. माता-पिता ने कहा कि उनकी बेटी के स्वास्थ्य की सुरक्षा को लेकर चिंताएं हैं, इसलिए वह चाहते हैं कि बच्चे का जन्म हो.

पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले सीजेआई ने स्पष्ट किया कि शीर्ष अदालत ने 'गर्भवती महिला' के बजाय 'प्रेग्नेंट पर्सन' शब्द का इस्तेमाल क्यों किया. सीजेआई ने फैसले में एक फुटनोट में कहा, 'हम 'गर्भवती व्यक्ति' शब्द का उपयोग करते हैं और मानते हैं कि सिजेंडर महिलाओं के अलावा, गर्भावस्था का अनुभव कुछ गैर-बाइनरी लोगों और अन्य लिंग पहचान वाले ट्रांसजेंडर पुरुषों द्वारा भी किया जा सकता है.'

शीर्ष अदालत ने कहा, 'इसलिए हम मानते हैं कि चौबीस सप्ताह से अधिक की गर्भकालीन आयु वाली प्रेग्नेंट पर्सन की जांच करने वाले मेडिकल बोर्ड को अदालत को पूरी जानकारी देकर उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर राय देनी चाहिए.'

सीजेआई ने कहा कि चुनने का अधिकार और प्रजनन स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है. उन्होंने कहा 'इसलिए, जहां नाबालिग गर्भवती व्यक्ति की राय अभिभावक से भिन्न होती है, अदालत को गर्भावस्था को समाप्त करने का निर्णय लेते समय गर्भवती के दृष्टिकोण को एक महत्वपूर्ण कारक मानना ​​चाहिए.'

पीठ ने अपने निष्कर्ष दर्ज करते हुए कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम डॉक्टरोंं और मेडिकल बोर्डों को सुरक्षा प्रदान करता है, जब वे गर्भावस्था को समाप्त करने के बारे में अच्छे विश्वास के साथ राय बनाते हैं. बेंच ने कहा कि 'गर्भधारण की समाप्ति पर अपनी राय बनाते समय मेडिकल बोर्ड को खुद को एमटीपी अधिनियम की धारा 3(2-बी) के तहत मानदंडों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि गर्भवती व्यक्ति की शारीरिक और भावनात्मक भलाई का भी मूल्यांकन करना चाहिए.' इसमें कहा गया है कि स्पष्टीकरण राय जारी करते समय मेडिकल बोर्ड को राय और परिस्थितियों में किसी भी बदलाव के लिए ठोस कारण बताने होंगे.

सीजेआई ने कहा कि 'प्रजनन स्वायत्तता और गर्भावस्था की समाप्ति के निर्णयों में गर्भवती व्यक्ति की सहमति सर्वोपरि है. यदि किसी गर्भवती व्यक्ति और उसके अभिभावक की राय में मतभेद है, तो अदालत को उचित निष्कर्ष पर पहुंचने में सक्षम बनाने के लिए नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार गर्भवती व्यक्ति की राय को एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में ध्यान में रखा जाना चाहिए.'

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नाबालिग के माता-पिता द्वारा सामान्य तरीके से बच्चे का जन्म कराने की इच्छा व्यक्त करने के बाद शीर्ष अदालत ने अपने पहले के आदेश को पलट दिया. सुप्रीम कोर्ट ने पहले नाबालिग को गर्भपात कराने की अनुमति दे दी थी. माता-पिता ने कहा कि उनकी बेटी के स्वास्थ्य की सुरक्षा को लेकर चिंताएं हैं, इसलिए वह चाहते हैं कि बच्चे का जन्म हो.

पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले सीजेआई ने स्पष्ट किया कि शीर्ष अदालत ने 'गर्भवती महिला' के बजाय 'प्रेग्नेंट पर्सन' शब्द का इस्तेमाल क्यों किया. सीजेआई ने फैसले में एक फुटनोट में कहा, 'हम 'गर्भवती व्यक्ति' शब्द का उपयोग करते हैं और मानते हैं कि सिजेंडर महिलाओं के अलावा, गर्भावस्था का अनुभव कुछ गैर-बाइनरी लोगों और अन्य लिंग पहचान वाले ट्रांसजेंडर पुरुषों द्वारा भी किया जा सकता है.'

शीर्ष अदालत ने कहा, 'इसलिए हम मानते हैं कि चौबीस सप्ताह से अधिक की गर्भकालीन आयु वाली प्रेग्नेंट पर्सन की जांच करने वाले मेडिकल बोर्ड को अदालत को पूरी जानकारी देकर उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर राय देनी चाहिए.'

सीजेआई ने कहा कि चुनने का अधिकार और प्रजनन स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है. उन्होंने कहा 'इसलिए, जहां नाबालिग गर्भवती व्यक्ति की राय अभिभावक से भिन्न होती है, अदालत को गर्भावस्था को समाप्त करने का निर्णय लेते समय गर्भवती के दृष्टिकोण को एक महत्वपूर्ण कारक मानना ​​चाहिए.'

पीठ ने अपने निष्कर्ष दर्ज करते हुए कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम डॉक्टरोंं और मेडिकल बोर्डों को सुरक्षा प्रदान करता है, जब वे गर्भावस्था को समाप्त करने के बारे में अच्छे विश्वास के साथ राय बनाते हैं. बेंच ने कहा कि 'गर्भधारण की समाप्ति पर अपनी राय बनाते समय मेडिकल बोर्ड को खुद को एमटीपी अधिनियम की धारा 3(2-बी) के तहत मानदंडों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि गर्भवती व्यक्ति की शारीरिक और भावनात्मक भलाई का भी मूल्यांकन करना चाहिए.' इसमें कहा गया है कि स्पष्टीकरण राय जारी करते समय मेडिकल बोर्ड को राय और परिस्थितियों में किसी भी बदलाव के लिए ठोस कारण बताने होंगे.

सीजेआई ने कहा कि 'प्रजनन स्वायत्तता और गर्भावस्था की समाप्ति के निर्णयों में गर्भवती व्यक्ति की सहमति सर्वोपरि है. यदि किसी गर्भवती व्यक्ति और उसके अभिभावक की राय में मतभेद है, तो अदालत को उचित निष्कर्ष पर पहुंचने में सक्षम बनाने के लिए नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार गर्भवती व्यक्ति की राय को एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में ध्यान में रखा जाना चाहिए.'

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