छिंदवाड़ा: मध्य प्रदेश के बहुचर्चित जिलों में से एक छिंदवाड़ा के नाम को लेकर कई कहानियां चलती हैं. बताया जाता है कि एक समय इस पूरे इलाके में छिंद यानी देसी खजूर के पेड़ सबसे ज्यादा पाए जाते थे, इसके कारण ही इस जगह का नाम छिंदवाड़ा रखा गया. कुछ लोग यह भी बताते हैं कि इस एरिया के जंगल में शेर भी पाए जाते थे इसलिए इसको सिंहवाड़ा कहा जाता था, जो बाद में चलकर छिंदवाड़ा हो गया. आज भी तामिया और पातालकोट के अलावा छिंदवाड़ा के सभी इलाकों में काफी मात्रा में छिंद के पेड़ पाए जाते हैं. इस जगह की पहचान कायम बरकरार रखने के लिए यहां के करीब 50 गांव के आदिवासी छिद के पत्तों से राखियां बना रहे हैं.
छिंद के मुकुट और आभूषण के बिना नहीं होते मंगल काम
आदिवासी सिर्फ छिंद से राखियां ही नहीं बनाते बल्कि कई तरह के आभूषण और घर के सजावट के सामान भी तैयार करते हैं. जिनकी मांग देश और विदेश में रहती है. आदिवासियों के घरों में होने वाली शादियों में आज भी बाजार से लाया मुकुट नहीं पहना जाता, बल्कि छिंद से बना पारंपरिक मुकुट ही पहना जाता है. इसके साथ ही कई प्रकार के आभूषण भी पहने जाते हैं, जो छिंद के पत्तों से बनाए जाते हैं. आदिवासी अंचलों में अगर कोई भी बड़ा नेता या खास मेहमान आता है तो छिंद के पत्ते से बना मुकुट पहनाकर उसका स्वागत किया जाता है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से लेकर बागेश्वर धाम के मुखिया पंडित धीरेंद्र शास्त्री को भी यह मुकुट पहनाकर सम्मानित किया जा चुका है.
परंपरा के साथ-साथ रोजगार का भी है साधन
छिंद का पेड़ आदिवासियों के लिए चलती फिरती दुकान से कम नहीं है, क्योंकि इसका तने के अंदर के पल्प से लेकर पत्ते, फल और लकड़ियां भी काम में आती हैं. आदिवासी इसके डंडों से झाड़ू, सजावट के समान और घरों को पानी की बौछार से बचने के लिए टेंट बनाते हैं. इसके अलावा इसका पल्प खाने के भी काम आता है. जून और जुलाई में इसके फल पकते हैं जो स्वास्थ्य के लिए भी बेहद लाभकारी माने जाते हैं.
देश की राजधानी से लेकर विदेश में भी इन राखियों की डिमांड
आदिवासियों के बीच काम करने वाले समाजसेवी पवन श्रीवास्तव ने बताया कि, छिंदवाड़ा की पहचान कायम रखने के लिए उन्होंने एक छोटी सी मुहिम चलाई है. छिंद के पत्तों से राखी बनाने का काम पिछले 3-4 सालों से किया जा रहा है, ताकि छिंदवाड़ा के आदिवासियों के रोजगार के साथ-साथ यहां की पहचान को बरकरार रखा जा सके. खास बात यह है कि पिछले साल दिल्ली के कुछ वकीलों और समाजसेवी इन राखियों को खरीदकर ले गए थे. उन्होंने एक बार फिर से इसकी डिमांड की है. विदेशों में रहने वाले छिंदवाड़ा के कई लोगों ने इस राखियों की मांग की है.''
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छींद के पेड़ों की वजह से छिंदवाड़ा की बनी पहचान
कई स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि, एक समय छिंदवाड़ा, छिंद के पेड़ से भरा था और इस जगह का नाम 'छिंदवाड़ा' (वाड़ा का मतलब है जगह) रखा गया. छिंदवाड़ा नगर की एक विशेष पहचान है, इसे जंगली खजूर, शुगर डेट पाम, टोडी डेट पाम, सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट पाम आदि नामों से भी जाना जाता है. वानस्पतिक भाषा में इसका नाम फोनिक्स सिल्वेस्ट्रिस है, जो एरेकेसी परिवार का सदस्य है. यह पेड़ उपजाऊ से लेकर बंजर मैदानी भूमि में, सामान्य से लेकर अत्यंत सूखे मैदानी भागों में, सभी तरह की मिट्टी में आसानी से उग जाता है.