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अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए है रवांई घाटी, श्रावण मास में यहां लगता है अद्भुत मेला - Western culture

ढोल-दमाऊ की थाप और रंणसिंगे की हुंकार के साथ क्षेत्र में चलने वाले मेले इन दिनों अपने सबाब पर हैं. इन मेलों का लोग जमकर लुत्फ उठा रहे हैं. मेले जहां एक ओर मेल मिलाप और संस्कृति का द्योतक हैं.

मेले रवांई संस्कृति की पहचान.

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Published : Jul 21, 2019, 7:05 PM IST

पुरोला:उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी में इन दिनों खेतीबाड़ी के काम से निपटने के बाद मोरी, पुरोला,नौगांव के गांवों में लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखने में जुटे हैं. क्षेत्र की खुशहाली और धनधान्य की बरकत के यहां विभिन्न मेलों का आयोजन किया जा रहा है. रंवाई क्षेत्र में अषाढ़ व श्रावण मास में हर गांव में मेलों की झलक देखने को मिलती है. जिसमें दूर-दराज से लोग वापस गांवों में पहुंचते हैं.साथ ही अपने ईष्टदेव से मंगल कामना का आशीर्वाद भी लेते हैं.

मेले रवांई संस्कृति की पहचान.

ढोल-दमाऊ की थाप और रणसिंगे की हुंकार के साथ क्षेत्र में चलने वाले मेले इन दिनों अपने सबाब पर हैं. इन मेलों का लोग जमकर लुत्फ उठा रहे हैं. मेले जहां एक ओर मेल मिलाप और संस्कृति का द्योतक हैं. वहीं आस्था से लबरेज इन मेलों में पश्वा (देव अवतरित मनुष्य) का आशीर्वाद पाने के लोग लालायित रहते हैं. इसी कड़ी में शनिवार को देवरा गांव में राज्य के एकमात्र कर्ण मन्दिर में अलग-अलग गांवों से लोगों ने पहुंच कर आशीर्वाद लिया. देवरा गांव में कर्ण मंदिर में लगने वाला ये मेला सदियों से चला आ रहा है.

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इस मेले में पश्वा ब्लेड की धार से भी तेज चांदी के डांगरों को मुंह में दबाकर नृत्य करता है. जिसे देखकर लोग दांतों तले उंगुली दबा लेते हैं. यहां पहुंचकर लोग क्षेभ की खुशहाली के लिए अपने ईष्ट देव से कामना करते हैं.

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इन दिनों पाश्चात्य संस्कृति की छटा और भागदौड़ में कहीं मेले की चमक फीकी सी पड़ने लगी है. आज के युवा और आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी सभ्यता और संस्कृति को लगातार भूलते जा रहे हैं. ऐसे समय में इस तरह के मेलों का आयोजन कहीं न कहीं खत्म होती संस्कृति को आक्सीजन देने का काम करते हैं.

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