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धुनारों की एक छोटी सी बस्ती जो देखते ही देखते बन गई ऐतिहासिक नगरी, जानें आजादी से पहले पुरानी टिहरी का इतिहास - टिहरी का इतिहास

पुरानी टिहरी 1815 से पहले तक एक छोटी सी धुनारों की बस्ती थी जिसमें 8-10 परिवार रहते थे. इनका व्यवसाय तीर्थ यात्रियों व अन्य लोगों को नदी के आर-पार ले जाना था. धुनारों की यह बस्ती कब बसी इसका कोई सही जानकारी अब तक नहीं मिल पाई है.

आजादी से पहले पुरानी टिहरी का इतिहास.

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Published : Jul 31, 2019, 8:10 AM IST

Updated : Jul 31, 2019, 12:29 PM IST

टिहरी:पुरानी टिहरी शहर के डूबे हुए 15 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी यहां के लोग पुरानी टिहरी को नहीं भुला पाये हैं. आज से 15 साल पहले एक भरा पूरा शहर विकास की भेंट चढ़ गया. इस शहर के साथ लोगों के खेत-खलिहान, पुश्तैनी मकान और न जाने क्या-क्या डूब गया. जो कि आज भी उनकी यादों में है. पुरानी टिहरी को याद करते हुए आज भी लोगों की आंखें छलक आती हैं जिससे उनका इस शहर के प्रति लगाव साफतौर पर दिखता है. आइये नजर डालते हैं पुरानी टिहरी शहर के इतिहास पर.

आजादी से पहले पुरानी टिहरी का इतिहास.

पुरानी टिहरी 1815 से पहले तक एक छोटी सी धुनारों की बस्ती थी जिसमें 8-10 परिवार रहते थे. इनका व्यवसाय तीर्थ यात्रियों व अन्य लोगों को नदी के आर-पार ले जाना था. धुनारों की यह बस्ती कब बसी इसकी अबतक कोई सही जानकारी नहीं मिल पाई है. 17वीं शताब्दी में पंवार वंश के गढ़वाल राजा महिपत शाह के सेना नायक रिखोला लोदी के इस बस्ती में एक बार पहुंचने का इतिहास में उल्लेख जरूर मिलता है. इससे पहले इस स्थान का उल्लेख स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में भी है. जिसमें इसे गणेशप्रयाग व धनुषतीर्थ कहा गया है. सत्तेश्वर शिवलिंग सहित कुछ और सिद्ध तीर्थों का भी केदार खण्ड में उल्लेख है. तीन नदियों (भागीरथी, भिलंगना व घृत गंगा) से घिरे होने के कारण इस जगह को त्रिहरी या टिहरी नाम से पुकारा जाने लगा.

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पौराणिक स्थल व सिद्ध क्षेत्र होने के बावजूद टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में ज्यादा मान्यता नहीं मिल पाई. ऐतिहासिक रूप से यह शहर 1815 में ही चर्चाओं में आया, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सहायता से गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह ने गोरखों को हराकर अपनी रियासत वापस हासिल थी. जिसके बाद अंग्रेजों ने रियासत का विभाजन कर उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर गढ़वाल व अलकनन्दा पार का समस्त क्षेत्र हर्जाने के रूप मे हड़प लिया. 1803 में सुदर्शन शाह के पिता प्रद्युम्न शाह गोरखाओं के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए. 12 साल के निर्वासित जीवन बिताने के बाद सुदर्शन शाह अपनी शेष बची रियासत के लिए राजधानी की तलाश में टिहरी पहुंचे. किंवदंती के अनुसार टिहरी के काल भैरव ने उनकी शाही सवारी रोककर उन्हें यहां राजधानी बसाने को कहा था. 28 या 30 दिसम्बर 1815 को सुदर्शन शाह ने यहां पर विधिवत गढ़वाल रियासत की राजधानी स्थापित की.

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राजधानी बनने के समय टिहरी रियासत का राजकोष लगभग खाली था, इस समय रियासत को पटरी पर लाना और राजधानी का विकास करना काफी कठिन चुनौती था. उसके बावजूद भी राजा ने यहां 700 रुपये में 30 छोटे-छोटे मकान बनवाये और यहीं से शुरू हुई टिहरी शहर की आधुनिक विकास यात्रा. जिसके बाद धीरे राजमहल का निर्माण भी शुरू करवाया गया लेकिन धन की कमी के कारण इसे बनने में 30 साल लग गये. इसी राजमहल को पुराना दरबार के नाम से जाना जाना था.

आजादी से पहले पुरानी टिहरी शहर का इतिहास

  • 1858 में टिहरी में भागीरथी नदी पर लकड़ी का पुल बनाया गया. इससे आस-पास के गांवों में आना-जाना सुविधाजनक हो गया.
  • 1859 में अंग्रेज ठेकेदार विल्सन ने रियासत के जंगलों के कटान का ठेका जब 4000 रु. वार्षिक में लिया तो रियासत की आमदनी बढ़ गई. 1864 में यह ठेका ब्रिटिश सरकार ने 10 हजार रु. वार्षिक में ले लिया. अब रियासत के राजा अपनी शान-शौकत पर खुल कर खर्च करने की स्थिति में आ गये थे.
  • 1959 में सुदर्शन शाह की मृत्यु हुई. जिसके बाद उनके पुत्र भवानी शाह टिहरी की गद्दी पर बैठे. राजगद्दी पर विवाद के कारण राजपरिवार के ही कुछ सदस्यों ने राजकोष की जम कर लूट की. जिसके कारण भवानी शाह के हाथ शुरू से तंग हो गये. उन्होंने मात्र 12 साल तक गद्दी सम्भाली. उनके शासन में टिहरी में कागज बनाने का ऐसा कारोबार शुरू हुआ कि अंग्रेजी सरकार के अधिकारी भी यहां से कागज खरीदने लगे.
  • भवानी शाह के शासन के दौरान टिहरी में कुछ मंदिरों का पुनर्निर्माण किया. साथ ही कुछ बागीचे भी लगवाये गये.
  • 1871 में भवानी शाह के पुत्र प्रताप शाह टिहरी की गद्दी पर बैठे. भिलंगना के बांये तट पर सेमल तप्पड़ में उनका राज्याभिषेक हुआ. उनके शासन मे टिहरी में कई नये निर्माण हुए. पुराना दरबार राजमहल से रानी बाग तक सड़क बनी, कोर्ट भवन बना, खैराती सफाखान खुला. रियासत के पहले विद्यालय प्रताप कालेज की स्थापना की गई जो पहले प्राइमरी व फिर जूनियर स्तर का किया गया.
  • राजकोष में वृद्धि हुई तो प्रतापशाह ने अपने नाम से 1877 में टिहरी से करीब 15 किमी पैदल दूर उत्तर दिशा में ऊंचाई वाली पहाड़ी पर प्रतापनगर बसाना शुरू किया. इससे टिहरी का विस्तार कुछ प्रभावित हुआ लेकिन टिहरी में प्रतापनगर आने-जाने हेतु भिलंगना नदी पर झूला पुल (कण्डल पुल) का निर्माण होने से एक बड़े क्षेत्र (रैका-धारमण्डल) की आबादी का टिहरी आना-जाना आसान हो गया. नदी पार के गांवों का टिहरी से जुड़ते जाना इसके विकास में सहायक हुआ.
  • 1887 में प्रतापशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कीर्तिशाह गद्दी पर बैठे. उन्होंने एक और राजमहल कौशल दरबार का निर्माण करवाा. उन्होंने प्रताप कॉलेज को हाईस्कूल तक उच्चीकृत किया. इस दौरान कैम्बल बोर्डिंग हाउस, एक संस्कृत विद्यालय व एक मदरसा भी टिहरी में खोला गया. कुछ सरकारी भवन बनाए गये, जिनमें चीफ कोर्ट भवन भी शामिल था. इसी चीफ कोर्ट भवन मे 1992 से पूर्व तक जिला सत्र न्यायालय चलता रहा.
  • 1897 में यहां घंटाघर बनाया गया जो तत्कालीन ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती की स्मृति में बनाया गया था. इसी दौरान शहर को नगर पालिका का दर्जा भी दे दिया गया. सार्वजनिक स्थानों तक बिजली पहुंचाई गई. इससे पूर्व राजमहल में ही बिजली का प्रकाश होता था.
  • कीर्तिशाह ने अपने नाम से श्रीनगर गढ़वाल के पास अलकनन्दा के इस ओर कीर्तिनगर भी बसाया लेकिन तब भी टिहरी की ओर उनका ध्यान रहा. कीर्तिनगर से उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर चार किमी दूर ठीक सामने दिखाई देती थी.कीर्तिशाह के शासन के दौरान ही टिहरी में सरकारी प्रेस स्थापित हुई. जिसमें रियासत का राजपत्र व अन्य सरकारी कागजात छपते थे. स्वामी रामतीर्थ जब (1902 में) टिहरी आये तो राजा ने उनके लिए सिमलासू में गोल कोठी बनाई . यह कोठी शिल्पकला का एक उदाहरण मानी जाती थी.
  • सन 1913 में कीर्तिशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र नरेन्द्रशाह टिहरी की गद्दी पर बैठे. 1920 में टिहरी में प्रथम बैंक (कृषि बैंक) की स्थापना हुई और 1923 में यहां पब्लिक ‘लाइब्रेरी’ बनी. यह लाइब्रेरी बाद में सुमन लाइब्रेरी कें नाम से जानी गई जो अब नई टिहरी में है. 1938 में यहां काष्ट कला विद्यालय खोला गया और 1940 में प्रताप हाईस्कूल इन्टर कालेज में उच्चीकृत कर दिया गया.
  • बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत भर में मोटर गाड़ियां खूब दौड़ने लगी थी. टिहरी में भी राजा की मोटर गाड़ी थी जो राजमहल से मोतीबाग व बाजार में ही चलती थी. तब तक ऋषिकेश-टिहरी मोटर मार्ग नहीं बना था इसलिए मोटर गाड़ी के कलपुर्जे अलग-अलग लाकर टिहरी में ही जोड़े गये थे.
  • नरेन्द्रशाह ने मोटर मार्ग की सुविधा देखते हुए 1920 में अपने नाम से ऋषिकेश से 16 किमी दूर नरेन्द्रनगर बसाना शुरू किया. 10 साल में 30 लाख रु. खर्च करने के बाद नरेन्द्रनगर बसाया गया. इससे टिहरी के विकास में कुछ गतिरोध आ गया था. 1926 में नरेन्द्रनगर व 1940 में टिहरी तक सड़क बन गई. पांच साल तक गाड़ियां भागीरथी पार पुराना बस अड्डा तक ही आती थीं. टिहरी का पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था. लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया. इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेन्दुशाह स्वयं गाड़ी चलाकर टिहरी बाजार व राजमहल तक पहुंचे थे. 1942 में टिहरी में एक कन्या पाठशाला भी शुरू की गई.
  • 1946 को टिहरी में ही नरेन्द्रशाह ने राजगद्दी स्वेच्छा से अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को सौंप दी. जिन्होंने मात्र दो वर्ष ही शासन किया. 1948 में जनक्रांति ने राजशाही का तख्ता पलट दिया. सुदर्शन शाह से लेकर मानवेन्द्र शाह तक सभी राजाओं का राज तिलक टिहरी में ही हुआ.
  • टिहरी के विकास का एक चरण 1948 में पूरा हो जाता है जो राजा की छत्र-छाया में चला. इस दौरान राजाओं ने अलग-अलग नगर बसाये जिसके कारण टिहरी का विकास बाधित हुआ. राजमाता (प्रतापशाह की पत्नी) गुलेरिया ने अपने निजी कोष से बदरीनाथ मंदिर व धर्मशाला बनवाई थी. विभिन्न राजाओं के शासन के दौरान- मोती बाग, रानी बाग, सिमलासू व दयारा में बागीचे लगाये गये. शीशमहल, लाट कोठी जैसे दर्शनीय भवन बने व कई मंदिरों का भी पुनर्निर्माण कराया गया.
Last Updated : Jul 31, 2019, 12:29 PM IST

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