कोटद्वार:आज विश्व गौरैया दिवस (World Sparrow Day) है. 20 मार्च को हर साल विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है. गौरैया के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिए साल 2010 में इस दिवस को मनाने की शुरुआत की गई थी, पिछले कुछ समय से गौरैया की संख्या में काफी कमी आई है. विश्व गौरैया दिवस लोगों में गौरेया के प्रति जागरुकता बढ़ाने और उसके संरक्षण के लिए मनाया जाता है. दरअसल, कुछ दशक पहले घर के आंगन में फुदकने वाली गौरैया अब मानवीय गलतियों के कारण अब विलुप्त होने के कगार पर है. इसका मुख्य कारण प्रदूषण और नई कॉलोनियों, कटते पेड़ों और फसलों में कीटनाशकों के छिड़काव है.
विश्व गौरैया दिवस, नेचर फॉरएवर सोसाइटी ऑफ इंडिया के साथ-साथ फ्रांस की इकोसेज एक्शन फाउंडेशन की ओर से शुरू की गई एक पहल है. इसी की तर्ज पर उत्तराखंड में भी अब कई संस्थाएं गौरैया के संरक्षण के लिए आगे आई हैं. पौड़ी गढ़वाल जनपद के कोटद्वार के छोटे से गांव नन्दपुर के रहने वाले शिक्षक दिनेश कुकरेती अध्यापन कार्य के साथ गौरेया के संरक्षण के लिए 15 वर्षों से काम कर रहे हैं.
दिनेश कुकरेती 15 साल से कर रहे गौरैया का संरक्षण. दिनेश कुकरेती कहते हैं कि उन्होंने आज से करीब 15 साल पहले गौरेया को बचाने का संकल्प लिया था. तब से लेकर वो गौरेया के घोंसला (nest) बनाकर लोगों को निशुल्क बांट रहे हैं. दिनेश बताते हैं कि अब तक 15 वर्षों में लगभग 16 हजार गौरैया नेस्ट अपने हाथों से बांट चुके हैं और वो खुद लोगों के घर जा कर घोंसला लगा चुके हैं. उनसे मोहल्ले में गौरैया के लिए करीब 500 घोंसला लगाए हैं. गौरैया के घोंसला में समय-समय पर पानी और दाना भी रखा जाता है.
आखिर क्यों विलुप्त हो रही गौरैया: दिनेश कुकरेती का कहना है कि लगातार घट रहे जंगलों और नई कॉलोनियों के बनने के कारण गौरैया विलुप्त होती जा रही है. पहले झोपड़ी व कच्चे मकान ही गौरेया का सुरक्षित ठिकाना माना जाता था. गौरेया मानव सहयोगी पक्षी है. वह मानव के आसपास ही रहना पसंद करती हैं. दिनेश के अपने हाथों से बने नेस्ट अभी तक 1600 घोंसले विभिन्न राज्यों में पहुंचा चुके हैं.
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दिनेश कुकरेती के काम को मिल रही सराहना: इस काम को देश के विभिन्न सामाजिक संगठनों ने सराहा है. दिनेश के काम को मान सम्मान भी मिल रहा है. शिक्षक दिनेश कुकरेती के साथ उनकी धर्मपत्नी वन्दना भी जीव जंतु प्रेमी हैं. वन्दना को नेस्ट बनाने व घोंसलों पर रंग भरना व चित्रकारी करना उनको बहुत पसंद है. इस काम को करने में आनंद की अनुभूति होती है.
ऐसे शुरू हुआ गौरैया संरक्षण दिवस: नासिक निवासी मोहम्मद दिलावर ने गौरैया पक्षियों की सहायता हेतु नेचर फॉर इवर सोसाइटी की स्थापना की थी. इनके इस कार्य को देखते हुए टाइम ने 2008 में 'हीरोज ऑफ दी एनवायरमेंट' नाम दिया था. विश्व गौरैया दिवस मनाने की योजना भी इन्हीं के दिमाग की उपज थी. 2010 में पहली बार गौरैया दिवस मनाया गया. 20 मार्च 2018 को पूरे विश्व में 'गौरैया दिवस' मनाया गया. तब इसकी थीम 'आई लव स्पैरो' रखी गई थी.
पहाड़ में सदियों से है पक्षियों के संरक्षण की प्रथा: उत्तराखंड में सदियों से पक्षियों के संरक्षण का चलन है. हर त्योहार पर सबसे पहले चिड़ियों के लिए खाना निकाला जाता है. पक्षी पहाड़ के जन-जीवन में ऐसे रचे बसे हैं कि उन पर गीत भी हैं. गोपाल बाबू गोस्वामी का गीत- 'आमै की डाई मा घुघुती ना बासा' इतनी मिठास लिए है कि आज भी हर कोई इसे गुनगुनाता है. नरेंद्र सिंह नेगी का गाया गाना- 'घुघुती घुराण लागि मेरा मैतै की' आज भी ससुराल में रह रही बेटियों की आंखें भिगा जाता है.
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गौरैया को ऐसे बचाएं: गौरैया को अपने घर और आसपास घोंसले बनाने दें और अपनी छत, आंगन, खिड़की, मुंडेर पर दाना-पानी रख दें. गर्मी आ रही है तो गौरैया के लिए घर के बाहर पानी रख दें. घर के आसपास ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं. फसलों में रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक कीटनाशक प्रयोग करें.
गौरैया के विलुप्त होने के कारण:पशु चिकित्सकों का कहना है कि लगातार हो रहे शहरीकरण, पेड़ों का कटान और फसलों में रासायनिक का छिड़काव गौरैया की कमी का कारण बन रहे हैं. फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से गौरैया की प्रजनन क्षमता में कमी आई है. कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीड़े नष्ट होने से गौरैया और उसके बच्चों को मिलने वाले भोजन में भी कमी आई है. गौरैया जब कीटनाशक का छिड़काव की हुई फसल के दाने खाती है तो उसको गॉट नाम की बीमारी हो जाती है. गॉट नाम की बीमारी गौरैया की किडनी को डैमेज कर देती है जो अंतत: उसकी मौत का कारण बनता है.