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उत्तराखंड में इस कुएं से चलती थी सुल्ताना डाकू की हुकूमत, आज खो रहा अस्तित्व

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Published : Aug 9, 2021, 5:14 PM IST

सुल्ताना डाकू को गुजरे कई दशक बीत गए हैं, लेकिन उसके किस्से इतने अर्से बाद आज भी 'जिंदा' हैं. हल्द्वानी के पास सुल्तान नगरी का नाम उसके ठहरने के कारण पड़ने की बात हो या फिर गड़प्पू के पास उसका 'कुआं', उससे जुड़ी कहानियां लोगों की जुबां पर आ ही जाती हैं.

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इस कुएं से चलती थी सुल्ताना डाकू की हुकूमत

रामनगर: सुल्ताना डाकू के बारे में कहा जाता है कि जितना वो दिलेर था, उतना ही रहम दिल. सुल्ताना डाकू खुद को मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का वंशज मानता था. उसने अपने घोड़े का नाम चेतक रखा था और कुत्ते का नाम राय बहादुर रखा था. अमीरों का माल लूटना और उसे गरीबों में बांटने का जिक्र से 14वीं सदी का एक कैरेक्टर 'रॉबिन हुड' याद आता है, जो अपने साथियों समेत ब्रिटेन के काउंटी नॉटिंघमशायर में शेरवुड के जंगलों में रहता था.

हालांकि, इसी तरह का एक कैरेक्टर भारत में भी था, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो अमीरों को लूटता था और गरीबों की मदद करता था. ये कैरेक्टर था सुल्ताना डाकू का, जिसे 96 साल पहले 7 जुलाई 1924 को फांसी के फंदे से लटका दिया गया था. सुल्ताना डाकू के धर्म के बारे में कुछ ज्यादा जानकारियां सामने नहीं आई हैं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सुल्ताना डाकू मुस्लिम था. वहीं, कुछ इतिहासकार उसे हिंदू मानते थे.

इस कुएं से चलती थी सुल्ताना डाकू की हुकूमत.

सुल्ताना डाकू का खौफ इस कदर था कि अगर किसी दूर-दराज के पुलिस थाने के आगे से वह गुजरता तो सिपाही उसे अपने हथियार सौंप देते थे. सुल्ताना डाकू का संबंध उत्तर प्रदेश के बिजनौर-मुरादाबाद इलाके में रहने वाले घुमन्तू और बंजारे भांतू समुदाय से था. भांतू अपने आपको मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का वंशज मानते थे.

वे मानते थे कि मुगल सम्राट अकबर के हाथों हुई राजा महाराणा प्रताप की पराजय के बाद भांतू समुदाय के लोग भागकर देश के अलग-अलग हिस्सों में चले गए. अंग्रेजी हकूमत ने भांतू समुदाय को अपराधी घोषित किया हुआ था. वह उनकी गतिविधियों पर लगातार नजर बनाए रखती थी.

सुल्ताना डाकू का उत्तराखंड कनेक्शन

सुल्ताना डाकू के किस्से और कहानियों का अंत नहीं है. वर्ष 1920 के आसपास नजीबाबाद, बिजनौर से लेकर कालाढूंगी एवं आसपास के इलाकों में उसका आतंक था. हथियार बंद गिरोह के साथ चलने वाला सुल्ताना बड़े जमीदारों को खूब लूटता था. हल्द्वानी के गौलापार के सुल्ताननगरी का नाम भी इस डाकू के साथ जुड़ा है.

स्थानीय लोगों के मुताबिक सुल्तान नगरी कभी घना जंगल हुआ करता था. उस दौर में डाकू सुल्ताना ब्रिटिश पुलिस से बचने के लिए अक्सर इस जंगल में छिप जाता था. इसके साथ ही कालाढूंगी में भी सुल्ताना डाकू आश्रय लेता था.

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जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब 'माई इंडिया' के अध्याय 'सुल्ताना: इण्डियाज रॉबिन हुड' में गड़प्पू के जंगल में जिस टीले का जिक्र किया है दरअसल, इसी टीले पर सुल्ताना डाकू का कुआं है. स्थानीय लोगों का कहना है कि सुल्ताना डाकू इस कुएं के पास रहता था और अफगानिस्तान से नेपाल को जाने वाले बंजारा जाति के व्यापारियों को लूटता था. इस कारण इस रास्ते का नाम ही बंजारी रोड पड़ गया. लेकिन विडंबना देखिए पर्यटकों को लुभाने वाला यह कुआं आज अपना अस्तित्व खोता जा रहा है.

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस अड्डे पर सुल्तान डाकू के दो शार्प शूटर 24 घंटे बंदूक लेकर पहरा देते थे. सुल्ताना कहीं भी डकैती डालता था, लेकिन गड़प्पू के जंगल में अपने अड्डे पर आकर जरूर रुकता था. उसने कालाढूंगी समेत आसपास के क्षेत्रों में कभी डकैती नहीं डाली. लेकिन, सरकार की उपेक्षा के कारण आज यह जगह जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है. स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर सरकार सुल्ताना डाकू के कुएं का जीर्णोद्धार करा दे तो स्थानीय पर्टयन को काफी बढ़ावा मिल सकता है.

वहीं, वन विभाग के बरहैनी वन क्षेत्र के घने जंगल के बीचों-बीच नाले में होने के कारण स्थानीय वन क्षेत्राधिकारी रूपनारायण गौतम को विभागीय नक्शे में सिर्फ गड़प्पू नाले में लगे इस कुएं के अलावा कोई दूसरा टीला चिह्नित क्षेत्र में नहीं मिल सका है.

मिथक बन गया सुल्ताना

सुल्ताना अपने जीवनकाल में ही एक मिथक बन गया. उसके बारे में कहा जाता कि वह केवल अमीरों को लूटता था और लूटे हुए माल को गरीबों में बांट देता. यह एक तरह से सामाजिक न्याय करने का उसका तरीका था. लेकिन, लोगों के बीच यह बात भी मशहूर है कि उसने कभी किसी की हत्या नहीं की. यह अलग बात है कि उसे एक गांव के प्रधान की हत्या करने के आरोप में फांसी दी गई. अपने अंतिम वर्षों में वह अपने कारनामों को कुमाऊं के तराई-भाबर से लेकर नजीबाबाद तक सीमित कर चुका था. जिम कॉर्बेट के सुल्ताना-संस्मरणों में बार-बार कुमाऊं के कालाढूंगी, रामनगर और काशीपुर का ज़िक्र आता है.

ऐसे पकड़ा गया सुल्ताना डाकू

सुल्ताना डाकू अपने इलाके के गरीबों के बीच मसीहा माना जाता था, इसलिए चप्पे-चप्पे में लोग उसके जासूस बन जाने को तैयार रहते. कई ब्रिटिश अफसर उसे दबोचने के काम में लगाए गए थे. लेकिन कोई भी सफल न हो सका. आखिरकार टिहरी रियासत के राजा के अनुरोध पर ब्रिटिश सरकार ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक कुशल और बहादुर अधिकारी फ्रेडी यंग को बुलाया.

आगे जाकर फ्रेडी यंग का नाम इतिहास में सुल्ताना के साथ अमिट रूप से दर्ज हो गया. क्योंकि लंबे संघर्ष के बाद फ्रेडी ने न केवल सुल्ताना को धर दबोचा, बल्कि उसने सुल्ताना की मौत के बाद उसके बेटे और उसकी पत्नी की जैसी सहायता की, वह अपने आप में एक मिसाल है.

300 सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और आखिरकार 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद जिले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया.

सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे. इस पूरे मिशन में जिम कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी. नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुकदमा चलाया गया और इस मुकदमे को 'नैनीताल गन केस' कहा गया. कोर्ट ने सुनवाई के बाद सुल्ताना डाकू को फांसी की सजा सुनाई. 7 जुलाई 1924 को सुल्ताना डाकू को अन्य साथियों के साथ आगरा की जेल में फांसी पर लटका दिया गया था.

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