रामनगर: उत्तराखंड के जंगलों के लिए सागौन अभिशाप बनते जा रहा हैं. वन विभाग इस पेड़ के उन्मूलन के लिए लगातार प्रयास कर रहा है. कहा जाता है कि सागौन को ब्रिटिश काल के दौरान अंग्रेज यहां लाए थे, इसे इमारती लकड़ी के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. वहीं, लेंटाना को भी अंग्रेज अपने साथ यहां लेकर आए थे. दोनों प्रजातियों के पेड़ों को जैवविविधता के लिए काफी खतरनाक माना जाता है, जो वनों के विस्तार में बाधक बने हुए हैं.
बता दें सागौन के पेड़ों से जंगलों में जानवरों को भोजन की उपलब्धता काफी कम हो जाती है. क्योंकि इसके नीचे कोई चीज पनप नहीं पाती है. सागौन के नीचे न कोई घास होती है, न कोई पौधा पनप पाता है. साथ ही इसकी पत्तियां मवेशियों के चारे के काम भी नहीं आती हैं. जिसके उन्मूलन के लिए वन महकमा सालों से लगा हुआ है. इसका पूरी तरह उन्मूलन असंभव हो जाता है.
वन विभाग लेंटाना के साथ-साथ सागौन को भी खत्म करने के लिए काम कर रहा है. ज्यादातर सागौन की जो तादात है वह कुमाऊं क्षेत्र में पाई जाती है. अगर वन प्रभाग तराई पश्चिमी के जंगलों की बात करें तो यहां 4,903 हेक्टयर भूमि में सागौन के वृक्ष हैं. वहीं, वन प्रभाग रामनगर की बात करें तो 3,358 हेक्टेयर भूमि पर सागौन के वृक्ष हैं. कॉर्बेट में सागौन के वृक्ष नहीं लगाए गए हैं और न ही ऐसा कोई ब्यौरा सागौन का कॉर्बेट प्रशासन के पास मौजूद है, लेकिन फिर भी कॉर्बेट में भी कई पेड़ सागौन के मौजूद हैं.