देहरादून/हरिद्वार: धर्मनगरी हरिद्वार इन दिनों कुंभ के रंग में रंगी है. कुंभ में सनातन संस्कृति, लोक आस्था की अलौकिक छटा देखने को मिल रही है. कुंभ एक धार्मिक संस्कार और सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन भर नहीं, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की एक पर्व है. जिसके लिए साधु-संत बड़ी संख्या में कुंभ में हिस्सा लेने पहुंचते हैं. कुंभ में मुख्य रूप से तेरह अखाड़े हैं. इन अखाड़ों में जूना अखाड़ा सबसे बड़ा है. जूना अखाड़ा संत परंपरा में दशनाम जूना अखाड़ा की परंपरा बेहद अलग है. हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान जूना अखाड़ा के पुरोहित जांगड़ समाज के लोग जगह-जगह जाकर शिव की आराधना गा रहे हैं. आखिर जूना अखाड़े से जांगड़ का क्या कनेक्शन है, आइये आपको बताते हैं.
जांगड़ समाज की वेशभूषा अपने आप में बेहद खास रहती है. ये सिर पर मोर मुकुट, माथे पर शेषनाग, कानों में कुंडल और बेहद चटकीले वस्त्र धारण करते हैं. कहा जाता है कि मोर मुकुट भगवान विष्णु ने इनके वंशजों को दिया था तो शेषनाग भगवान शिव की देन है. कानों में कुंडल साक्षात देवी द्वारा दिये गए हैं. दशनाम जूना अखाड़ा इन्हें अपना पुरोहित मानता है.
क्या होते हैं पुरोहित
पुरोहित अपने यजमान के यहां अगुआ बनकर यज्ञ आदि श्रौतकर्म, गृहकर्म और संस्कार तथा शांति आदि अनुष्ठान कराते हैं. आजकल कर्मकाण्ड करनेवाला, कृत्य करनेवाला ब्राह्मण पुरोहित कहलाता है. वैदिक काल में पुरोहित का बड़ा अधिकार था. तब पुरोहित मंत्रियों में गिने जाते थे. पहले पुरोहित यज्ञादि के लिये नियुक्त किए जाते थे. आजकल वे कर्मकांड करने के अतिरिक्त, यजमान की और से देवपूजन आदि भी करते हैं. पुरोहित का पद कुलपरम्परागत चलता है. विशेष कुलों के पुरोहित भी नियत रहते हैं.