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जौनपुर का ऐतिहासिक मौण मेला कल, 1866 में टिहरी राज में शुरू हुई थी अनूठी परंपरा - उत्तराखंड ताजा समाचार टुडे

पहाड़ों की रानी मसूरी के नजदीक जौनपुर में उत्तराखंड की ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर मौण मेला का आयोजन कल किया जाएगा. सन 1866 से लगातार इस मेले का आयोजन किया जाता रहा है. इस मेले में तेज बारिश में ही हजारों की तादाद में ग्रामीण अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों और औजरों के साथ अगलाड़ नदीं में मछलियों को पकड़ने के लिये उतर जाते थे और यह दृश्य काफी मन को मोहने वाला होता है.

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Published : Jun 25, 2022, 8:16 PM IST

मसूरी: टिहरी जिले में मसूरी के पास जौनपुर में रविवार को ऐतिहासिक मौण मेला का आयोजन किया जाएगा. कोरोना के कारण पिछले दो सालों से इस मेले का आयोजन नहीं हो रहा था. हालांकि, इस बार उम्मीद है कि बड़ी संख्या में ग्रामीण इस मेल में शिरकत करेंगे. जौनपुर में यह मेला साल 1866 से आयोजित होता आ रहा है. मौण मेले को लेकर ग्रामीणों में खास उत्साह है.

ग्रामीण अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों और औजरों के साथ अगलाड़ नदी में मछलियों को पकड़ने के लिए उतरेंगे. मेले से पहले यहां अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से निर्मित पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ देर के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है.
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मॉनसून की शुरूआत के साथ ही जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने के सामूहिक मौण मेले का आयोजन किया जाता है. इस मेले में क्षेत्र के हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और बुजुर्ग नदी की धारा के साथ मछलियां पकड़ने उतर जाते हैं. खास बात यह है कि इस मेले में पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखा जाता है. इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं.

टिमरू का पाउडर बनाकर मौण डालने की जिम्मेदारी हर साल अलग-अलग पट्टी के लोगों को दी जाती है. मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती है, जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं और बनाकर मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है, जो ढोल दमाऊ की थाप पर होता है.
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यह है ऐतिहासिक महत्व: मौण मेले का शुभारंभ 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था. तब से जौनपुर में निरंतर मेले का आयोजन किया जाता है. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें मेले टिहरी नरेश खुद अपने लाव लश्कर और रानियों के साथ मौजूद रहते थे. मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे. सामंतशाही के पतन के बाद सुरक्षा का जिम्मा ग्रामीण स्वयं उठाते हैं और किसी भी प्रकार का विवाद होने पर क्षेत्र के लोग स्वयं मिलकर मामले को सुलझाते हैं.

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