चमोलीः ऐतिहासिक मां नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा संपन्न हो गई है. वेदनी और बालपाट बुग्याल में नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अनुष्ठान का आयोजन किया गया. जिसके बाद मां नंदा कैलाश के लिए विदा हुई. मां नंदा को विदाई के वक्त ग्रामीणों की आखें छलक गईं. वहीं, दूसरी ओर बंड क्षेत्र से आयोजित होने वाली लोकजात में नरेला बुग्याल में पूजा-अर्चना की गई.
आज मां नंदा राज राजेश्वरी की डोली सुबह गैरोली पातल में प्रातःकालीन पूजा-अर्चना के बाद वेदनी बुग्याल पहुंची. जहां देवी के पुजारियों ने नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अर्चना के बाद मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया. जिसके बाद राज राजेश्वरी नंदा ल्वांणी, उलंग्रा, बैराधार, गोठिना, कुराड और डांगतोली होते हुए अपने ननिहाल देवराडा गांव पहुंचेगी. जहां देवी आगामी छह महीने तक प्रवास के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ लौटेगी.
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दूसरी ओर दशोली कुरुड़ की डोली रामणी गांव में पूजा-अर्चना के बाद बालपाटा बुग्याल पहुंची. बालपाटा बुग्याल में मां नंदा की पूजा-अर्चना करने के बाद जहां मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया गया. वहीं, पूजा-अर्चना के बाद राज राजेश्वरी नंदा की डोली अपने रात्रि प्रवास के लिए मथकोट गांव पहुंच गई है. बता दें कि चमोली के बालपाटा में भी लोकजात आयोजित होती है.
नंदादेवी लोकजात और राजजात में अंतरः मां नंदा लोकजात यात्रा का आयोजन हर साल आयोजित होता है. जो हर साल कुरुड़ मंदिर से आयोजन किया जाता है. इस साल भी कोविड नियमों को मद्देनजर रखते हुए नंदा लोकजात का आयोजन किया गया. नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदादेवी की पूजा-अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन हो गया है. जबकि, राजजात हर बारह साल में आयोजित की जाती है.
नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व:7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.