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हरीश रावत@72 सालः कई बार गिरे और उठे, कुछ ऐसा है हरदा का राजनीतिक सफर - , देहरादून न्यूज

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत शनिवार को 72 साल के हो गए हैं. हरीश रावत उत्तराखंड की राजनीति में एक ऐसा नाम है जिसको लिए बिना इस पहाड़ी राज्य की राजनीति की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने 72वां जन्मदिन मनाया.

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Published : Apr 27, 2019, 10:09 PM IST

देहरादूनः पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत शनिवार को 72 साल के हो गए हैं. राज्य के अलग-अलग हिस्सों में रावत का जन्मदिन मनाया जा रहा है. 27 अप्रैल, 1947 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के मोहनारी गांव में जन्मे बालक के बारे में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये बालक एक दिन प्रदेश का मुख्यमंत्री बनेगा. हरीश रावत उत्तराखंड की राजनीति में एक ऐसा नाम है जिसको लिए बिना इस पहाड़ी राज्य की राजनीति की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

मोहनारी गांव में पैदा हुए हरीश चंद्र रावत के पिता राजेंद्र का सक्रिय राजनीति में कोई योगदान नहीं था, लेकिन हरीश रावत के बारे में कहा जाता है कि उनमें राजनीति मानो बचपन से ही आ गई थी. पिता ने रावत का दिमाग देखने के बाद कभी उनको किसी काम से नहीं रोका और यही कारण रहा की रावत जैसे ही जवानी की दहलीज पर चढ़े वैसे ही उन्होंने गांव और कस्बों की राजनीति शुरू कर दी.

शुरुआती दौर में हरीश रावत ने ब्लॉक प्रमुख का चुनाव लड़ा और न केवल जीते बल्कि उनकी जीत के आसपास भी उनका कोई विरोधी टिक नहीं पाया. ब्लॉक प्रमुख के बाद हरीश रावत युवा कांग्रेस का हिस्सा बनकर कुछ करना चाहते थे. हरीश रावत की रणनीति और उनका कामकाज कांग्रेस को इतना पसंद आया की पार्टी ने उन्हें जिला अध्यक्ष बना दिया.

जिला अध्यक्ष बनने के बाद हरीश रावत ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. हरीश रावत के कामों की चर्चा राजीव गांधी से लेकर इंदिरा गांधी तक पहुंचने लगी. पार्टी ने रावत पर विश्वास किया और सन 1980 में उन्हें अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ सीट से लोकसभा का टिकट दे दिया.

जिला अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के वो कई बड़े आंदोलन का हिस्सा रहे. 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में हरीश रावत ने पार्टी को तोहफे में अल्मोड़ा सीट दी. यहां से रावत दो बार चुने गए. 1990 तक रावत ने इस इलाके का लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया.

इसी बीच हरीश रावत केंद्र की राजनीति में शामिल हुए. जब वे लेबर एंड इम्प्‍लॉयमेंट के कैबिनेट राज्‍यमंत्री बने. इस बीच संचार मंत्री बनाया गया. रावत को हार का भी सामना करना पड़ा, लेकिन कांग्रेस ने उनके काम और पार्टी के प्रति निष्ठा को देखते हुए 1999 में कांग्रेस के हॉउस कमेटी का सदस्य बनाया. यहां आते-आते हरीश रावत देश की राजनीति को अच्छी तरह से समझ गए थे.

इस बीच उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग करने का आंदोलन जोरों पर था, लेकिन कहा जाता है कि हरीश रावत इसके खिलाफ थे. हांलाकि बाद में रावत को समझ आ गया था कि अगर राज्य अलग बन जाता है तो ना केवल उन्हें फायदा होगा बल्कि अलग राज्य में राजनीति करने का मौका भी मिलेगा. पार्टी ने सन 2001 ने रावत को उत्तराखंड का अध्यक्ष बना दिया.

रावत के कार्यकाल में प्रदेश में बीजेपी ने सत्ता हासिल कर ली इसके बाद हरीश रावत को सन-2002 में राज्यसभा के लिए चुना गया. इस बीच प्रदेश में कांग्रेस चुनाव जीत कर सरकार बनाई और नारायण दत्त तिवारी को सीएम बनाया गया. उस दिन के बाद से हरीश और तिवारी में मानो 36 का आंकड़ा हो गया. उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार आती रही, लेकिन हरीश रावत को मानो हर बार आलाकमान नजरअंदाज करने लगा.

इस बीच हरीश रावत ने देहरादून से महज 50 किलोमीटर दूर अपनी राजनीति का केंद्र तैयार कर लिया. रावत ने सन 2009 में हरिद्वार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. रावत को लगने लगा था कि अब अगर राज्य में कुछ समीकरण बैठे तो वो सीएम बन सकते हैं, लेकिन तिवारी के बाद बहुगुणा अचानक इलाहाबाद से आकर मुख्यमंत्री बन गए.

रावत ने पार्टी से बगावत कर दिल्ली में खूब हंगामा किया, लेकिन जोर आजमाइश के बाद कई नेताओं ने रावत को मना लिया. इस बीच रावत ने दिल्ली में अपनी भूमिका बनानी शुरू कर दी. मौका उस वक्त आया जब राज्य में भीषण आपदा आयी और चारों तरफ से बहुगुणा की खिलाफत होने लगी.

रावत भी सरकार के कामों के खिलाफ हो गए जिस कारण बहुगुणा को हटाना पड़ा, तब मानो हरीश रावत का सालों पुराना सपना पूरा होने वाला था. पार्टी ने उन्हें सीएम पद से नवाज दिया. रावत जानते थे की तीन साल बाद उन्हें जनता के बीच जाना है.

रावत के बारे ने कहा जाता है कि वो हर किसी की चाल को पहले से समझ जाते हैं, लेकिन हरीश उस समय मात खा गए जब उनकी ही सरकार में बगावत हो गयी. बगावत भी ऐसी नहीं पूरे नौ विधायकों ने रावत की सरकार को गिरा दिया. रावत इस मुसीबत से जैसे-तैसे उभरते वैसे ही रावत का स्टिंग ऑपरेशन हो गया.

जैसे-तैसे वह मामला भी शांत हुआ और राज्य में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था. हरदा को लगता था कि सरकार में उन्होंने अच्छा काम किया है, लिहाजा दोबारा से जनता उन्हें मौका देगी.

हरीश रावत ने न केवल हरिद्वार से विधानसभा चुनाव लड़ा बल्कि कुमाऊं की किच्छा सीट से भी अपनी ताल ठोकी. लेकिन कहते हैं कि जब समय खराब होता है तो आदमी के संग कुछ भी अच्छा नहीं होता, ऐसा ही हरीश रावत के साथ भी हुआ.

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हरीश रावत न केवल दोनों जगह से चुनाव हारे बल्कि कांग्रेस का राज्य में पूरा सूपड़ा साफ हो गया. एक बार फिर से हरीश रावत की किस्मत चुनावी ईवीएम में बंद है और लोकसभा चुनाव में नैनीताल सीट से लड़ रहे हैं. हरीश रावत के लिए ये आना वाला साल बेहद ही महत्वपूर्ण होने जा रहा है.

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