बागेश्वरःखर्कटम्टा गांव में आज भी तांबे से बनने वाले बर्तनों की गूंज दूर घाटियों में सुनाई पड़ती है. आग में तपने के बाद तांबे को कुशल कारीगरों के हाथ लगते हैं, तो हर रोज की दिनचर्या में काम आने वाले अनेकों प्रकार के बर्तनों में ढलते चले जाते हैं. आजादी से पहले की ताम्र शिल्प की इस अद्भुत कला को खर्कटम्टा गांव के तीन परिवारों ने आज तक संजोए रखा है.
शतकों पुरानी ताम्र शिल्पकला आज सिर्फ तीन परिवारों के सहारे जिंदा खर्कटम्टा गांव को ताम्र शिल्पियों के गांव के नाम से भी जाना जाता है. आजादी से पहले खर्कटम्टा समेत जोशीगांव, देवलधार, टम्ट्यूड़ा, बिलौना आदि गांवों में ताम्र शिल्पी यानी तांबे से बने गागर, तौले, वाटर फिल्टर के साथ ही पूजा, धार्मिक अनुष्ठान एवं वाद्य यंत्र, तुरही, रणसिंघी बनाते थे. इस काम में महिलाएं भी उनकी मदद किया करती थीं. तब ताम्रशिल्प उनका परंपरागत व्यवसाए माना जाता था. आजादी के बाद यह ताम्रशिल्प काफी प्रसिद्ध हुआ. शिल्पकार अपने औजारों के साथ गांव-गांव जाकर लोगों के तांबे के पुराने बर्तनों की मरम्मत किया करते थे.
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खर्कटम्टा गांव के 62 साल के शिल्पकार सुंदर लाल बताते हैं कि पहले तांबे का काम हर घर में होता था. धीरे-धीरे युवा पीढ़ी बाहर नौकरी करने चली गई और यह काम कम होता चला गया. अब गांव में सिर्फ तीन परिवार ही इस काम को अपनी आजीविका बनाए हुए हैं. बता दें कि शिल्पकार सुंदर लाल को उनकी शिल्पकला के लिए उत्तराखंड सरकार के साथ उद्योग विभाग भी सम्मानित कर चुका है.
तांबे व पीतल को जोड़कर बने गंगा-जमुनी उत्पाद और पात्रों के विभिन्न हिस्सों को गर्मकर व पीटकर जोड़ने की तकनीक इस शिल्प और शिल्पियों की खासियत होती है. सुंदर लाल के साथी सागर चंद्र बताते हैं कि अब गिने-चुने कारीगर ही विपरीत परिस्थितियों में भी अपने इस पैतृक व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं. तांबे से गागर, तौला, फिल्टर, परात, सुरई, फौला, वाद्ययंत्र रणसिंह, तुतरी, ढोल, मंदिर की सामग्री व शो-पीस आदि बनाते हैं, जो कि अत्यंत शुद्ध माने जाते हैं.