वाराणसी : सनातन धर्म में अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग पूजा पद्धति और वर्णित धार्मिक अनुष्ठान करने की परंपरा बताई गई है. चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य समाज के लिए अलग-अलग रीति रिवाज और अलग-अलग विधान पूजा-पाठ से संबंधित माने जाते हैं. खासतौर पर अंतिम समय यानी मृत्यु उपरांत 10 दिन और फिर अंतिम के 3 दिन यानी कुल 13 दिनों के काम अलग-अलग होते हैं.
मृत्यु उपरांत किए जाने वाले कर्मों को लेकर वाराणसी के विद्वानों के अपने विचार हैं. उनका कहना है कि सनातन धर्म और शास्त्रों के अनुसार तो 10 दिनों तक मुखाग्नि देने वाला सदस्य अशौच में माना जाता है. कई बार स्थिति-परिस्थिति राज्य और जिले एवं जातियों की परंपरा के अनुसार यह व्यवस्था अलग-अलग हो सकती है. लोग अपनी सामाजिक व्यवस्था और नियम के अनुसार अशौच नियमों का पालन करते हैं.
तेरहवीं का कोई विधान नहीं : काशी के शक्तिपीठ माता विशालाक्षी के महंत और कर्मकांडी विद्वान पंडित राजनाथ तिवारी बताते हैं कि मृत्यु उपरांत 13 दिनों तक की जाने वाली कर्म पद्धति सामाजिक मान्यता के अनुसार अलग-अलग हैं. हिंदू धर्म शास्त्रों में तेहरवीं का कोई विधान बताया ही नहीं गया है. मौत के बाद सिर्फ द्वादश यानि 12 दिनों तक किए जाने वाले कर्म को ही विशेष महत्व दिया जाता है. इस दौरान प्राण छूटने के साथ ही परिवार को नियम का पालन शुरू करना होता है. अंतिम संस्कार करने वाले यानी मुखाग्नि देने वालों के लिए नियम होते हैं. मुखाग्नि देने वाले व्यक्ति को घर से दूर अलग रखा जाता है. उसके वस्त्र और भोजन भी अलग बनते हैं. दैनिक क्रिया और सोने के लिए अलग बिस्तर की व्यवस्था भी परिवार से अलग होती है. उसे 10 दिनों तक कड़े तौर तरीकों का पालन करना होता है. उसे बाल-दाढ़ी भी 10 दिनों तक संवारना नहीं होता है.
पंडित राजनाथ तिवारी का कहना है कि धर्म शास्त्रों के अनुसार, किसी भी मृत शरीर को मुखाग्नि सिर्फ एक आदमी ही दे सकता है. वह परिवार की ओर से चुना गया कोई सदस्य हो सकता है. परंपरा के मुताबिक मुखाग्नि देने के लिए परिवार के सबसे बड़े या सबसे छोटे सदस्य को प्राथमिकता दी जाती है. नियम के अनुसार, एक से ज्यादा व्यक्ति मुखाग्नि नहीं दे सकते हैं.
कर्मकांडी विद्वान एवं श्री काशी विश्वनाथ न्यास परिषद के सदस्य पंडित दीपक मालवीय का कहना है कि सनातन परंपरा में अंतिम संस्कार का विधान सबसे महत्वपूर्ण है, जो मृत्यु उपरांत किया जाता है. सनातन धर्म में एक व्यवस्था श्राद्ध कर्म बताई गई है. शास्त्रों के मुताबिक संतान का कर्तव्य है कि वह अपने पिता या अपने माता का अंतिम संस्कार करें . अंतिम संस्कार के लिए मुखाग्नि देने से पूर्व उसे छह पिंडदान करने होते हैं. चिता को अग्नि देने से पहले 6 पिंडदान की परंपरा है.
- मुखाग्नि देने वाले के लिए नियम (Rules for son performing last rites)
- अगले 13 दिनों तक सफेद वस्त्रों में रहना होता है.
- उसे अपने परिवार से अलग रहना होता है.
- उसका सोने का बिस्तर और खाने पीने की व्यवस्था भी अलग होती है.
- मुखाग्नि देने वाले बर्तन बिल्कुल अलग रखे जाते हैं.
- वह शाम को सूर्य अस्त होने से पहले अनाज खा सकता है
- उसके भोजन में हल्दी और छौंका लगाई चीजें शामिल नहीं होती है
- मृत्यु के तीसरे दिन से उसे गरुड़ पुराण का श्रवण करना होता है. गरूड़ पुराण में गरुड़ ने 16 प्रश्न भगवान विष्णु से पूछे हैं और श्री हरि ने 16 अध्यायों में उसका उत्तर दिया गया है. गरुड़ पुराण तो सुनने की व्यवस्था तीसरे दिन से लागू होती है और 10 दिन पूर्ण होने तक चलती है.
- मुखाग्नि देने वाले को मौत के दसवें दिन 10 पिंडदान करने होते हैं
- एकादशी के दिन कहीं-कहीं एक पिंडदान करने की व्यवस्था है, जिसे मध्यम षोडसी कहते हैं.
- द्वादशा यानी 12 वें दिन सबसे पहले 16 पिंडदान करना होता है. उसे षोड़सी बोलते हैं.
13वें दिन भोज की परंपरा :12 वें दिन 16 पिंडदान करने के साथ ही हर पिंड को चांदी के तार से काटने की व्यवस्था बताई गई है, यह प्रक्रिया इसलिए पूरी की जाती है ताकि मृत व्यक्ति को मुक्ति मिल सके यानी उसे पितृलोक में स्थान मिले. इसे सपिंडन नाम से जाना जाता है. यह मुक्ति की व्यवस्था होती है. इस कर्म को करने के बाद अंतिम दिन गणेश पूजन और विष्णु पूजन की प्रक्रिया को घर में किया जाता है और शैय्या दान होता है. यह दान का कर्म करने के बाद ब्राह्मणों को यह चीजें दी जाती है और 13 ब्राह्मणों को भोज कराने की परंपरा है. इसके अलावा परिवारजनों और मित्रजनों को भोजन कराया जाता है.
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