वाराणसी :डाला छठ के बारे में हम सब जानते हैं लेकिन धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी में अपने संतान की लंबी आयु, सुख और सौभाग्य के साथ ही सुहाग की लंबी उम्र की कामना के साथ महिलाओं ने आज ललही छठ का व्रत रखा. काशी के विभिन्न शिवालयों और कुंड, तालाब के किनारे महिलाओं ने इस व्रत के पूरे विधि-विधान और पूजन पाठ को किया. ललही छठ का व्रत प्रत्येक साल भाद्रपद कृष्ण पक्ष की पष्ठी तिथि को रखा जाता है. इसे हलषष्ठी माता की पूजा भी कहा जाता है.
पूजा में यह फल नहीं खाए जाते
हिंदू धर्म में तमाम व्रत और पूजा हमारे वातावरण और प्रकृति पर निर्भर होते हैं. आज के दिन जुताई से उत्पन्न हुई अन्न, फल और सब्जियां व्रती महिलाएं नहीं खातीं. व्रत में केवल तिल्ल का चावल, पताही का चावल और करेमुआ का साग जैसे तालाब और पोखरे में पैदा होने वाली खाद्य सामग्री ही खाई जाती है. यह पूजा बहुत कठिन है. महिलाएं इसमें निर्जला व्रत रहती हैं. जब तक व्रत नहीं हो जाता, तब तक जल ग्रहण नहीं करतीं.
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ललही छठ की पूजा में जिसकी भी मनोकामना पूरी होती है, वह बैंड बाजा के साथ थाल लेकर पहुंचता है. भक्त माथे पर सभी पूजा की सामग्री की थाल लेकर चलता है. कुंड या तालाब के पास आकर पूरे विधि विधान से ललही महारानी की पूजा की जाती है. उन्हें भुना चना, गेहूं, धान, मक्का, ज्वार और बाजरा चढ़ाया जाता है.
जगदंबा देवी ने बताया कि इस पूजा का बहुत ही अधिक महत्व है. जिस भी दंपत्ति को संतान नहीं होती, वह इस पूजा में आता है. मनौती मानता है तो उसकी गोद भर जाती है. घर की महिलाएं निर्जला व्रत रहतीं हैं. तालाब और कुंड के पास आकर ललही छठ महारानी का डाल भरतीं हैं.