वाराणसी : 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी, हमने किस्मत को बस में किया'. एक दौर में ये गीत बच्चों के बचपन के मायने बताने के साथ भविष्य के प्रति उनके नजरिए को भी बयां करता था. वहीं आज के वक्त में कुछ लोग खुद के लाभ के लिए इनके बचपन को पैरों तले रौंद रहे हैं. वे इनसे भीख मंगवाते हैं. इसकी बानगी ट्रैफिक सिग्नल, मंदिरों के बाहर और गंगा घाटों समेत अन्य जगहों पर देखने को मिल जाती है. एक बार इस दलदल में फंसने के बाद बच्चे खुद के भविष्य के बारे में कुछ सोच नहीं पाते हैं. इससे आगे चलकर उनका जीवन अंधकारमय हो जाता है. शहर की एक महिला ऐसे बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम कर रहीं हैं. वे बच्चों को शिक्षित बनाने के साथ उनमें आगे बढ़ने का जज्बा पैदा कर रहीं हैं. करीब 10 सालों से उनकी ये मुहिम जारी है.
अकेले दम पर की थी पहल की शुरुआत :पढ़ने की उम्र में मजबूरी में दूसरे काम करने वाले बच्चों के लिए प्रतिभा सिंह किसी मसीहा से कम नहीं हैं. वे पहले खुद के ही दम बर बच्चों का भविष्य संवारने में जुटी थीं लेकिन उन्होंने अपने प्रयासों को एक संस्था का रूप दे दिया है. वह अपने घर में ही उन बच्चों के लिए स्कूल संचालित करती हैं, जो भीख मांगने जैसी बुरी आदतों में लिप्त रहते हैं. प्रतिभा सिंह के इस प्रयास की शुरुआत साल 2013 में हुई थी. अब तक वह लगभग 159 से ज्यादा बच्चों के भविष्य को संवार उन्हें सही दिशा में ले जाने का काम किया. जो मां-बाप, दादा- दादी या घर का अन्य व्यक्ति इन बच्चों को ले जाकर उनसे भीख मंगवाने की जिद में लगे रहते थे. वहीं परिवार के सदस्य आज अपने बच्चों को स्कूल में छोड़ने आते हैं.
इस तरह आया था आइडिया :लगभग 10 साल पहले प्रतिभा अपने कुछ दोस्तों के साथ एक बस्ती में ठंड के मौसम में कंबल का वितरण करने गईं थीं. वहां पर इन्होंने कुछ ऐसे बच्चों को देखा जो न कभी स्कूल गए न उन्हें शिक्षा से कोई मतलब था. इसके बाद वह संकट मोचन मंदिर पहुंचीं और वहां भी बाहर भीख मांगते बच्चों को देखकर उनका मन काफी विचलित हुआ. प्रतिभा बताती हैं कि बस यहीं से उनके मन में एक बीज पनपने लगा कि आखिर इन बच्चों की क्या गलती है?, इनका बचपन क्यों उनसे छीना जा रहा है?, क्यों यह बच्चे अपने माता-पिता के साथ मिलकर इस काम को कर रहे हैं. कुछ दिनों तक प्रयास करने के बाद जब प्रतिभा दो-तीन बच्चों को अपने घर लेकर आईं तो घर पर भी विरोध हुआ. लेकिन पति ने उनका पूरा साथ दिया. प्रतिभा इन बच्चों को नहलाने, तैयार करने, खाना खिलाने और पढ़ाने तक का काम करने लगीं.
सहयोग के लिए सामने आने लगे लोग :प्रतिभा के प्रयास से बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. प्रतिभा भी खोज-खोजकर बच्चों को लेकर आने लगीं. इसके कक्षा एक तक पढ़ने के बाद कुछ बच्चों का एडमिशन शहर के बड़े नामी स्कूलों में स्कूल मैनेजमेंट के प्रयास से होने लगा. प्रतिभा बताती हैं कि उनके इस प्रयास में सबसे बड़ी चुनौती पैसे की थी. घर में आमदनी इतनी नहीं थी कि इन बच्चों का खर्च चलाया जा सके. इसलिए उनके दोस्तों, शहर के कुछ नामी डॉक्टरों और कुछ अन्य लोगों ने सामाजिक कार्य में उनकी मदद करना शुरू कर दी. इसके बाद धीरे-धीरे यह संख्या 10 से 20, फिर 50 से 159 तक पहुंच गई. प्रतिभा बताती हैं कि अभी तक लगभग 35 से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं जो शहर के कई बड़े स्कूलों में पढ़ रहे हैं. एडमिशन तो लगभग 100 बच्चों का करवाया गया था, लेकिन कई बीच में ही पढ़ाई छोड़कर भाग गए, लेकिन 35 अभी भी ऐसे हैं जो कक्षा 6 से लेकर आठवीं तक की पढ़ाई गंभीरता से कर रहे हैं. इन सभी के खर्च को उठाने के लिए स्कूलों ने खुद अपनी तरफ से प्रयास किया है. कई स्कूल न तो फीस ले रहे हैं और न ही ट्रांसपोर्ट का पैसा. यहां तक कि खाना-पीना और किताबों तक का खर्च भी स्कूल अपने स्तर पर उठाने लगे हैं.